Saturday, August 9, 2025
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लैला

प्रेमचंद :

यह कोई न जानता था कि लैला कौन है, कहाँ से आयी है और क्या करती है। एक दिन लोगों ने एक अनुपम सुंदरी को तेहरान के चौक में अपने डफ पर हाफ़िज की यह ग़जल झूम-झूम कर गाते सुना-

रसीद मुज़रा कि ऐयामे ग़म न ख्वाहद माँद,

चुनाँ न माँद, चुनीं नीज़ हम न ख्वाहद माँद।

दिल की सुनो, बदलाव भी जरूरी

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

प्रिय संजय सिन्हा,

पिछले तीन दिनों से तुम जयप्रकाश नरायण, इमरजंसी, इन्दिरा गाँधी, अच्छे दिन वगैरह-वगैरह लिख रहे हो उसका फल तुमने भोग लिया है। कहाँ तुम एक-एक पोस्ट पर हजार-हजार लाइक बटोरा करते थे, और जबसे तुमने जरा राजनीतिक यादों की झलकियों को दिखाने की कोशिश की, तुम्हें तुम्हारी औकात पता चल गयी।

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