Friday, November 22, 2024
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भीतर से ही उड़ान संभव

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

बहुत दिनों बाद उड़ने वाले गुब्बारे की याद आयी। याद क्या आयी, समझ लीजिए कि मैं सावन में लगने वाले मेले में पहुँच गया। मुझे याद आने लगा कि माँ मुझे एक रुपया देती थी, सोमवारी मेले में जाने के लिए। मैं मिट्टी के खिलौने खरीदता, आलू टिक्की खाता, और आखिर में दस पैसे का गुब्बारा खरीदता। गुब्बारे को अपनी साइकिल की हैंडिल पर बांधता और दनदनाता हुआ घर पहुँचता।

कर्मों की कमाई

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

जब हम छोटे बच्चे थे, तब दशहरा के मौके पर मोहल्ले में छोटा सा स्टेज बना कर नाटक किया करते थे। मोहल्ले के सारे लोग वहाँ जुट जाते और हम 'रसगुल्ला-गुलाब जामुन' वाला नाटक करते। करने को तो हम 'कलुआ की माई वाला नाटक' भी करते, पर मेरा पसंदीदा नाटक 'रसगुल्ला-गुलाब जामुन' हुआ करता था। 

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