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रिश्तों के बारे में आत्ममंथन करें
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मुझे अपने परिचित से पूछना ही नहीं चाहिए था कि तुम्हारी मौसी कहाँ चली गईं? मैंने पूछ कर बहुत बड़ी गलती की और उस गलती का खामियाजा ये है कि आज कुछ लिखने का मन ही नहीं कर रहा है। रात भर सोने का उपक्रम करता रहा, करवटें बदलता रहा। फिर लगा कि आपसे इस बात को साझा कर लूं, शायद मेरा दुख थोड़ा कम हो जाए।
पैसा अधिक आने से नयी पीढ़ी पर असर
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
कभी-कभी ऐसा कुछ होता है कि आप सामने वाले से सिर्फ इतना ही कह पाते हैं, ‘वेरी गुड’। बहुत अच्छा किया आपने।
मेरी पहली दो लाइनों को पढ़ कर आप मन ही मन सोचेंगे कि संजय सिन्हा सुबह-सुबह पहली क्यों बुझा रहे हो, सीधे-सीधे मुद्दे पर क्यों नहीं आते।
सही बात है, सीधी बात का कोई मुकाबला नहीं होता।
चुप्पी
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
सर्दी के दिन थे। बुआ आँगन में चटाई बिछा कर अपने पोते को सरसों का तेल लगा रही थी। हम ढेर सारे बच्चे वहीं छुपन छुपाई खेल रहे थे।
विकल्प न हो तो, जो है उसमें खुश रहिये
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मेरे फुफेरे भाई के पास एक जोड़ी हवाई चप्पल थी। चप्पल क्या, समझिए ऊपर रंग उतरा हुआ फीता था, नीचे घिसी हुई ऐड़ी थी। ऐड़ी इतनी घिसी हुई कि पाँव फर्श छूता था। लेकिन थी चप्पल।
चिंता की चिंता छोड़िए और मस्त रहिए
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मेरी बुआ ने यह कहानी मुझे सुनायी थी। डेल कारनेगी ने पढ़ाई थी। माँ ने अमल करना सिखाया था। पत्नी इस पर अमल कराती है।
अब इतना लिख दिया तो वो कहानी फिर से आपको सुना ही दूँ, जिसे आप कम से कम एक हजार बार सुन चुके होंगे।