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खुल कर सामने आएं ना?

देवेन्द्र शास्त्री :
हमने आरएसएस और दक्षिण पंथियों का झूठ और छलावा पढ़ा और देखा है। वो पचास साल तक सत्ता के गलियारों में झाँक भी नहीं सके। अब जाकर उन्हें समझ में आयी कि सच स्वीकार किए बिना काम नहीं चलने वाला। तो कुछ सच उन्होंने स्वीकार कर लिए जैसे गाँधी, पटेल को अपना लिया, नेहरु के योगदान को भी मानने लगे हैं। और फिलहाल गोडसे को त्याग दिया। हाँ लेकिन मंदिर मस्जिद, हिंदू-मुसलमान, अदानी-अंबानी चल रहा है। मजदूर और किसान आज भी उनकी प्राथमिकता पर नहीं है। ठीक है, दो साल और हैं, देखते हैं क्या करते है। पर यहाँ मैं उनकी बात नहीं कर रहा। वो तो पहले से कुख्यात हैं, जैसे भी हैं, सामने हैं। ढका-छुपा अब कुछ नहीं। मैं बात कर रहा हूँ तथाकथित सेकुलर्स की।
बिहार चुनाव में ध्रुवीकरण के लिए पुरस्कार लौटा रहे हैं लेखक

अभिरंजन कुमार :
किसी दिन पुरस्कार लौटाने के लिए यह जरूरी है कि आज पुरस्कार बटोर लो। पुरस्कार मिले तो भी सुर्खियाँ मिलती हैं। मिला हुआ पुरस्कार लौटा दो तो और अधिक सुर्खियाँ मिलती हैं। समूह में पुरस्कार लौटाना चालू कर दो तो क्रांति आ जाती है। ऐसी महान क्रांति देखकर मन कचोटने लगा है। काश...
कौन लोग लतीफे बना रहे हैं पुरस्कारों के लौटाने पर

राकेश कायस्थ :
साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का जो सिलसिला चल रहा है, उसे लेकर फेसबुक पर हो रही लतीफेबाजी क्या दर्शाती है? आखिर वे कौन लोग हैं, जो चुटकले बना रहे हैं और तालियाँ पीटकर खुश हो रहे हैं? पुरस्कारों की वापसी का जो सिलसिला शुरू हुआ है, उसके पीछे कोई लंबी चौड़ी कहानी नहीं है।