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बचपन
राकेश उपाध्याय, पत्रकार :
कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुक-ठुमुक प्रभु चलहिं पराई। निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा।।
बाल चरित अति सरल सुहाए, सारद सेष संभु श्रुति गाए।
जिन्ह कर मन इन्ह सन नहीं राता, ते जन बंचित किए बिधाता।।
नई पीढ़ी के पेय और बचपन की यादें – पेपर बोट
संजय कुमार सिंह, संस्थापक, अनुवाद कम्युनिकेशन :
आज सुबह के अखबार में अमरूद और लाल मिर्च की इस फोटू ने पुराने दिन याद करा दिये। पिछले कई साल से अमरुद तो आराम से उपलब्ध है ही, लाल मिर्च की भी कोई कमी नहीं रही। पर ऐसे अमरुद नहीं खाया। खाया नहीं क्या किसी ने खिलाया ही नहीं। बचपन में अमरुद बेचने वाला पूछ कर और कई बार बिना पूछे भी अमरुद इस तरह काट कर लाल मिर्च भर देता था। आज यह तस्वीर देख कर वो सब स्वाद याद आ गया। पुराने दिन याद आ गये। खाक अच्छे दिन-पुराने दिन बहुत अच्छे थे।
सोच में बदलाव
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
कल मैंने लिखा था कि मुझसे मेरे एक परिचित ने पूछा था कि फेसबुक पर रोज लिख कर मैं अपना समय क्यों जाया करता हूँ, तो मैंने बता दिया था कि यही वो मेला है, जहाँ मुझे अपने सारे खोया हुए रिश्ते मिले हैं।
अमर प्रेम
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
बचपन में मैं कुम्हार बनना चाहता था।
दिल्ली 1975 : मेरा खोया बचपन
पुण्य प्रसून बाजपेयी, कार्यकारी संपादक, आजतक :
जैसे ही घुमावदार रिहाइश गलियों के बीच से निकलते हुये मुख्य सड़क पर निकलने को हुआ वैसे ही सामने टैगौर गार्डन केन्द्रीय विद्यालय का लोहे का दरवाजा इतने नजदीक आ गया कि वह सारे अहसास झटके में काफूर हो गये, जिन्हें सहेज कर घर से निकला था।