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मकान ले लो, मकान
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मेरे मित्र को एक मकान चाहिए। वैसे दिल्ली में उनके पिता जी ने एक मकान बनवाया है और अब तक वो उसमें उनके साथ ही रह रहे थे। लेकिन कुछ साल पहले उनकी शादी हो गयी और उन्हें तब से लग रहा है कि उन्हें अब अलग रहना चाहिए। मैंने अपने मित्र से पूछा भी कि पिताजी के साथ रहने में क्या मुश्किल है?
जो हुआ अच्छा हुआ, जो होगा अच्छा होगा
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
सच में मेरा मन बदल गया आज पोस्ट लिखते-लिखते। मैंने सोचा था कि आज इंग्लैंड की सिमरन की कहानी आपको सुनाऊंगा। सुबह नींद खुलते ही मेरे मन में कहानी का ताना-बाना बुन जाता है। मैंने बहुत बार कोशिश की है कि कभी एक रात पहले ही लिख कर सो जाऊं, ताकि सुबह मुझे जल्दी न जगना पड़े, लेकिन मेरे चाहने से ऐसा नहीं होता। मेरी उंगलियाँ रुक जाती हैं, कहानी आगे बढ़ती ही नहीं।
अच्छाई ढूंढें, जिन्दगी आसान हो जायेगी
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मेरे पिताजी की आदत भी अजीब थी।
खाना खाने बैठते तो एक निवाला तोड़ कर थाली के चारों ओर घूमाते और फिर उसे किनारे रख कर थाली को प्रणाम करते और खाना खाना शुरू करते।
मैं उन्हें ऐसा करते हुए देखता और सोचता कि पिताजी ऐसा क्यों करते हैं?
हम नुमाइंदे हैं, इस संसार में
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मेरा मकान बदलना ही कुछ दिनों के लिए टल गया है। इसलिए फिलहाल चंद्रवती की कहानी का टल जाना भी लाजिमी है।
वजह?
शादी की बंजर भूमि पर प्यार के फूल खिलाओ
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
एक पिता और पुत्र ट्रेन में सफर कर रहे थे। पिता पुत्र से कहता नंबर तीन और दोनों जोर-जोर से हँसने लगते। दोनों की हँसी थमती और फिर पुत्र कहता नंबर सात। पुत्र के मुँह से नंबर सात निकला नहीं कि दोनों पेट पकड़ कर हँसने लगते।
मरने वाली लड़की ही क्यों?
संजय कुमार सिंह, संस्थापक, अनुवाद कम्युनिकेशन :
इसका जो कारण मुझे समझ में आता है वह यही है कि अपने यहाँ लड़कियों को भावनात्मक रूप से मजबूत बनाने की अवधारणा ही नहीं है। लड़कियाँ आम तौर पर पिता के करीब होती हैं और पिता से जिन विषयों पर बात होती है उसकी सीमा है। ऐसे में जब वे फँसती हैं तो उनकी परेशानी शेयर करने वाला कोई नहीं होता। खासतौर से जब मामला ब्वायफ्रेंड का हो।
बेटों को सबक, पिताओं को उम्मीद
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक
1 मार्च, 1988
मालवा एक्सप्रेस तय समय पर नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर रुकी थी। उसमें से एक दुबला-पतला लड़का हाथ में लोहे का बक्सा लिए नीचे उतरा था।
जब तपस्या (बेटा) शाप बन जाए
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
कल मैंने वादा किया था कि उस बच्चे की कहानी जरूर सुनाऊँगा, जिसकी कहानी मैंने चौथी कक्षा में पढ़ी थी।
‘फेरिहा’
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
'फेरिहा' एक चौकीदार की बेटी का नाम है। टर्की में रहने वाली फेरिहा मेहनत और लगन से अच्छे कॉलेज में दाखिला पा लेती है और खूब पढ़ना चाहती है। लेकिन उसके पिता को उसकी शादी की चिंता है। उन्होंने अपनी बिरादरी और हैसियत जैसे एक परिवार के लड़के को फेरिहा के लिए पसंद कर रखा है। पिता की निगाह में वही लड़का फेरिहा के लिए उपयुक्त है। वो जानते हैं कि वो लड़का भी फेरिहा को पसंद करता है, उसकी सुंदरता पर मरता है।
बेटा, जी लो जिन्दगी
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
यह कहानी किसी की आप बीती हो सकती है।