Saturday, November 16, 2024
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शुभस्थ शीघ्रम्

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

मुश्किल ये है कि हम लोग अपनी जिन्दगी एक धारणा पर जीते चले जाते हैं। हम मान लेते हैं कि जो अच्छा है, उसी की बातें सुननी हैं। हम बहुत सी उन विद्याओं पर अमल नहीं करते, जिनके विषय में हमारे मन में बुरी भावनाएँ होती हैं, या जिनकी छवि ठीक नहीं होती। 

सदमा या आजादी

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

आपको बताया था न कि पिछले दिनों जब मैं कान्हा में टाइगर देखने गया था, उस रात जंगल के गेस्ट हाउस की बत्ती चली गयी थी। अब टाइगर तो वहाँ मिले नहीं, हाँ, पड़ोस के कमरे में एक डॉक्टर मिल गये। 

सती

प्रेमचंद :

मुलिया को देखते हुए उसका पति कल्लू कुछ भी नहीं है। फिर क्या कारण है कि मुलिया संतुष्ट और प्रसन्न है और कल्लू चिन्तित और सशंकित ? मुलिया को कौड़ी मिली है, उसे दूसरा कौन पूछेगा ? कल्लू को रत्न मिला है, उसके सैकड़ों ग्राहक हो सकते हैं। खासकर उसे अपने चचेरे भाई राजा से बहुत खटका रहता है। राजा रूपवान है, रसिक है, बातचीत में कुशल है, स्त्रियों को रिझाना जानता है।

अभिलाषा

प्रेमचंद :

कल पड़ोस में बड़ी हलचल मची। एक पानवाला अपनी स्त्री को मार रहा था। वह बेचारी बैठी रो रही थी, पर उस निर्दयी को उस पर लेशमात्र भी दया न आती थी। आखिर स्त्री को भी क्रोध आ गया। उसने खड़े होकर कहा, बस, अब मारोगे, तो ठीक न होगा। आज से मेरा तुझसे कोई संबंध नहीं। मैं भीख माँगूँगी, पर तेरे घर न आऊँगी। यह कहकर उसने अपनी एक पुरानी साड़ी उठाई और घर से निकल पड़ी। पुरुष काठ के उल्लू की तरह खड़ा देखता रहा।

मन को साफ करो खुश रहोगे

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

मैं प्रेम पर लिखते हुए बहुत डरता हूँ। डर की वजह सिर्फ इतनी है कि जब मैं ऐसी पोस्ट लिखता हूँ तो अगले दिन मेरे पास ऐसे-ऐसे कई सवाल आ खड़े होते हैं, जिनके जवाब में मुझे फिर प्रेम पर एक पोस्ट लिखनी पड़ती है। एक पोस्ट और लिख कर मैं मुक्त होता हूँ और सोचता हूँ कि कल ये वाली कहानी लिखूँगा, वो वाली कहानी लिखूँगा, पर रात में जैसे ही अपने इनबॉक्स में झाँकता हूँ, मेरी तय की हुई सारी कहानियाँ उड़ जाती हैं और रह जाता है प्रेम। 

जन्मों को होता है पति-पत्नी का रिश्ता

संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

पांडव लाक्षागृह में बतौर मेहमान बुलाए गये थे और जब उसमें आग लग गयी तो वो फँस गये थे। कहीं से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था। अब कोई करे भी तो क्या करे। लाक्षागृह धू-धू कर जल रहा था। युधिष्ठिर विचलित थे। अब इसमें से कोई कैसे बाहर निकले। सबकी आँखों में यही सवाल था। 

अपनी बचाऊँ कि ये सोचूँ कि सरकार क्या कर रही है

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

आज अपनी बात कहने के लिए मैं एक चुटकुले का सहारा ले रहा हूँ, लेकिन मैं जो लिखने जा रहा हूँ वो चुटकुला नहीं। वो बेहद संजीदा विषय है, इसलिए मेरा आपसे अनुरोध है कि आपमें से अगर किसी को चुटकुले पर आपत्ति हो, तो मुझे माफ कर दें।

***

बुनियादी विश्वास

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

माँ की सुनायी कहानियों में सिंहासन बत्तीसी की पुतलियों की कहानियों की मेरे मन पर अमिट छाप है। 

नरक का मार्ग

प्रेमचंद :

रात 'भक्तमाल' पढ़ते-पढ़ते न जाने कब नींद आ गयी। कैसे-कैसे महात्मा थे जिनके लिए भगवत्-प्रेम ही सबकुछ था, इसी में मग्न रहते थे। ऐसी भक्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। क्या मैं यह तपस्या नहीं कर सकती? इस जीवन में और कौन-सा सुख रखा है? आभूषणों से जिसे प्रेम हो वह जाने, यहाँ तो इनको देखकर आँखें फूटती हैं; धन-दौलत पर जो प्राण देता हो वह जाने, यहाँ तो इसका नाम सुनकर ज्वर-सा चढ़ आता है। कल पगली सुशीला ने कितनी उमंगों से मेरा शृंगार किया था, कितने प्रेम से बालों में फूल गूँथे थे। कितना मना करती रही, न मानी।

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