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प्रतिष्ठा पर चोट पहुँचाने से सत्य को जानना जरूरी
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
अगर मैंने ये कहानी अपने कानों से नहीं सुनी होती तो मुझे कभी अपने पत्रकार होने की शर्मिंदगी के उस अहसास से नहीं गुजरना पड़ता, जिससे मैं दो दिन पहले गुजरा हूँ। कहानी मुझे एक डॉक्टर ने सुनाई और पहली बार मुझे इस कहानी को सुनते हुए आत्मग्लानि सी हो रही थी। मुझे लग रहा था कि कहीं चुल्लू भर पानी मिल जाए तो फिर कभी किसी को अपना मुँह भी न दिखाऊँ।
ये जंगलराज नहीं है, ये पॉवर सेंटर का ‘बिखराव’ है
सुशांत झा, पत्रकार :
नीतीश कुमार की कानून-व्यवस्था को लेकर प्रतिबद्धता पर व्यक्तिगत रूप से मुझे कोई संदेह नहीं है। उन्होंने पिछले एक दशक में बिहार को ठीक-ठाक पटरी पर लाया है। लेकिन सीवान के पत्रकार की हत्या पर मेरी कुछ अलग राय है।
अभिव्यक्ति की आजादी का दुरुपयोग
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मेरे जैसे पत्रकार नहीं होने चाहिए। ऐसे पत्रकार बेकार होते हैं, जो मालदा की घटना पर, सियाचीन के जाबांजों की मौत पर, सुलग रहे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पर अपनी कलम नहीं भांजते। ऐसे पत्रकारों पर लानत है। संजय सिन्हा से कई लोगों ने गुहार लगायी है कि आप कुछ ऐसा क्यों नहीं लिखते, जिससे आपकी देशभक्ति जाहिर हो।
अपेक्षित बनाम उपेक्षित
सुशांत झा, पत्रकार :
आधे से ज्यादा पत्रकारों और करीब 80% पब्लिक को पूछा जाए कि अपेक्षित और उपेक्षित में क्या फर्क है तो दाँत निपोड़ देंगे, लेकिन लालू के कुमार ने कह दिया तो मजे ले रहे हैं।
हिन्दी में नौकरी की संभावना कहाँ है
संजय कुमार सिंह, संस्थापक, अनुवाद कम्युनिकेशन:
हिन्दी में नौकरी की संभावनाएँ लगातार कम हुई हैं। हो रही हैं। एक समय था जब हिन्दी टाइपराइटर पर कोई ऐसा-वैसा बैठ भी नहीं सकता था। टाइपिंग से अनजान व्यक्ति शायद एक शब्द भी टाइप नहीं कर पाता। अगर हिन्दी में काम करना है, कुछ भी, कितना भी तो हिन्दी टाइपिस्ट के बिना काम नहीं हो सकता था। इसलिए ज्यादातर दफ्तरों में बिना काम के भी टाइपिस्ट होते थे या वहाँ काम ही ना हो तो अलग बात है।
मीडिया में नही है नियमित और सुकून की नौकरी
संजय कुमार सिंह, संस्थापक, अनुवाद कम्युनिकेशन :
मीडिया में ऐसा नहीं है कि अगर आपने एक स्तरीय मीडिया संस्थान में नौकरी शुरू की, अच्छा काम करते हैं, योग्य हैं तो उसी में रहेंगे, समय के साथ आपको तरक्की मिलती रहेगी और आप संतुष्ट या असंतुष्ट रहकर भी उसी में नौकरी करते हुए रिटायर हो जाएँ। अमूमन ऐसा देखने मे नहीं आता है – कुछेक अपवाद जरूर होंगे।
सीबीआई की पहली चुनौती है अक्षय का मामला
कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार:
पत्रकार अक्षय सिंह की मौत कैसे हुई? क्या वह व्यापम घोटाले के किसी नये सच तक पहुँचने के करीब थे? क्या नम्रता दामोर की संदिग्ध मौत की पड़ताल करते-करते अक्षय इस घोटाले के किसी और सिरे तक पहुँचने वाले थे?
इन मौतों की जिम्मेदारी तो लेनी होगी सीएम साहब
राजीव रंजन झा :
व्यापम - एक ऐसा घोटाला, जिसमें खुद मुख्यमंत्री के परिवार के लोगों के भी नाम उछले हैं। उन पर आरोप सही हैं या गलत, यह तो जाँच के बाद अदालत को बताना है। लेकिन राज्य में जिस घोटाले को लेकर सबसे ज्यादा उथल-पुथल है, उसके गवाह और अभियुक्त एक के बाद एक रहस्यमय ढंग से मरते जा रहे हैं और अब इस मामले की छानबीन करने दिल्ली से पहुँचा आजतक का संवाददाता भी अचानक बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के मर जाये तो इससे क्या समझा जाये?
जिधर देखो, सब क्लीन ही क्लीन है!
कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार:
न से नेता! जिसे कुछ नहीं होता! इसलिए राममूर्ति वर्मा को भी कुछ नहीं होगा! वह जानते हैं कि नेताओं का अकसर कुछ नहीं बिगड़ता। बाल भी बाँका नहीं होता!
अमर प्रेम
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
बचपन में मैं कुम्हार बनना चाहता था।