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रिश्तों की तलाश
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
आज आपको बहुत से सवालों के जवाब मिल जाएँगे।
जीने का संकल्प
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
“जब विकल्प की सीमाएँ समाप्त हो जाती हैं, तब मानव संकल्प का उदय होता है।”
गाली लंगड़ी होती
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
कायदे से ये कहानी मुझे कल ही लिखनी चाहिए थी। घटना कल की ही है।
अपनी विचारधारा के बारे में दो टूक
अभिरंजन कुमार :
मैं जब सड़क पर पैदल चलता हूँ या साइकिल चलाता हूँ, तो बाएँ चलता हूँ, ताकि आती-जाती गाड़ियों से अपनी रक्षा कर सकूँ। जब कार चलाता हूँ, तो दाएँ चलता हूँ, ताकि आते-जाते पैदल या साइकिल यात्रियों को मेरी वजह से परेशानी न हो। जहाँ कहीं दाएँ या बाएँ मोड़ हो और मुझे सीधा जाना हो, तो गाड़ी बीच की लेन पर ले आता हूँ।
रिश्तों का पाठ
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मेरी माँ की तबियत जब बहुत खराब हो गयी थी तब पिताजी ने मुझे पास बिठा कर बता दिया था कि तुम्हारी माँ बीमार है, बहुत बीमार। मैं आठ-दस साल का था। जितना समझ सकता था, मैंने समझ लिया था। पिताजी मुझे अपने साथ अस्पताल भी ले जाते थे। उन्होंने बीमारी के दौरान मेरी माँ की बहुत सेवा की, पर उन्होंने मुझे भी बहुत उकसाया कि मैं भी माँ की सेवा करूं।
यादों की लहरें
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मुझे बचपन में तैरना नहीं आता था, लेकिन अमेरिका में जब मैं अपने बेटे को स्वीमिंग क्लास के लिए ले जाने लगा, तो मैंने उसके कोच की बातें सुन कर तैरने की कोशिश की और यकीन मानिए, पहले दिन ही मैं स्वीमिंग पूल में तैरने लगा।
प्रेम एक विश्वास और भरोसा है
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मेरी समझ में आज तक ये बात नहीं आयी कि क्यों मेरी कुछ पोस्ट को तीन हजार लाइक मिलते हैं, और कुछ पोस्ट को सिर्फ पाँच सौ लाइक।
उनसे मिलें जो निराश हैं
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मैं जिन दिनों जनसत्ता में काम करता था, मैंने वहाँ काम करने वाले बड़े-बड़े लोगों को प्रधान संपादक प्रभाष जोशी के पाँव छूते देखा था। शुरू में मैं बहुत हैरान होता था कि दफ्तर में पाँव छूने का ये कैसा रिवाज है। लेकिन जल्दी ही मैं समझने लगा कि लोगों की निगाह में प्रभाष जोशी का कद इतना बड़ा है कि लोग उनके पाँव छू कर उनसे आशीर्वाद लेना चाहते हैं। हालाँकि तब मैं कभी ऐसा नहीं कर पाया।
जहाँ उम्मीद, वहीं जिन्दगी
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
यह तो आप जानते ही हैं कि सबसे ज्यादा खुशी और सबसे ज्यादा दुख, दोनों अपने ही देते हैं।
‘पात्र’ को बड़ा करें
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मुझे एकदम ठीक से याद है कि पड़ोस वाली बेबी दीदी शादी के बाद घर लौट आयी थीं।