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अपने कर्मों का भोजन हम स्वयँ बनाते हैं
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
चार दोस्त थे।
अब अगर चार की जगह तीन दोस्त भी होते तो वही होता, जो चार के होने पर हुआ।
खैर, संख्या की कोई अहमियत नहीं। न ही ये बहस का विषय हो सकता है।
भावे की हर बात भली, ना भावे तो हर बात बुरी
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
आज सोच रहा हूँ कि सु़बह-सु़बह आपसे वो बात बता ही दूँ जिसे इतने दिनों से बतान के लिये मैं बेचन हूँ।
मृत्यु अटल है, जीवन सकल है
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
आज आपको एक न में ले चलता हूँ।
अपने जीवन में मुझे एक बार ओशो से मिलने का मौका मिला।
जिंदगी सुन जरा मेरा इरादा क्या है
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
संजय से उसकी क्लास टीचर ने पूछा, "संजू अगर मैं तुम्हें दो रुपये दूँ, और फिर दो रुपये दूँ तो तुम्हारी जेब में कितने रुपये होंगे?"
संजू ने कहा कि मैडम जी, पाँच रुपये।
हमारी-आपकी ज़िंदगी का आखिर मकसद क्या है?
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
एक अनपढ़ आदमी के नाम कहीं से एक चिट्ठी आयी। अनपढ़ आदमी अकेला था। न आगे नाथ न पीछे पगहा। ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी ने उस अनपढ़ आदमी के नाम घर पर चिट्ठी भेजी हो। उस आदमी ने उलट-पलट कर उस लिफाफे को देखा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर इसमें लिखा क्या है। किसी ने उसे चिट्ठी लिखी ही क्यों?
जीवन जीने की तैयारी में खर्च होता जीवन
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
कल किसी ने मुझे एक चुटकुला मैसेज किया। चुटकुला पढ़ कर मुझे हँसना चाहिए था, लेकिन मैं सारी रात सोचता रह गया। आइये पहले उस चुटकुले को आपसे साझा करता हूँ, फिर क्या सोचता रह गया इसे भी साझा करूँगा।