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रिश्ते मन के भाव से सुधरते हैं
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
कल रात मुझे एक लड़की ने फोन किया और रोने लगी। मैं बहुत देर तक समझ नहीं पाया कि आखिर माजरा क्या है। मैं चुपचाप उस तरफ से रोने की आवाज सुनता रहा, फिर जब वो जरा शांत हुई, तो मैंने पूछा कि आप कौन हैं और क्यों रो रही हैं?
मैं ‘माँ’ बनूँगा
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
आज मेरा एक बहुत बड़ा सपना पूरा होने जा रहा है। अब से कुछ देर बाद मुझे 'माँ' बनने का सौभाग्य मिलेगा।
आइए खूबियाँ ढूँढते हैं
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मैंने कल लिखा था न कि मेरी मुलाकात दिल्ली वाले लड़के से होगी।
‘पात्र’ को बड़ा करें
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मुझे एकदम ठीक से याद है कि पड़ोस वाली बेबी दीदी शादी के बाद घर लौट आयी थीं।
खाना मन माफिक और पहनना जग माफिक हो
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
दीदी की जब शादी हुई थी, तब उसे ही शादी का मतलब नहीं पता था। अब उनकी शादी हो गयी, तो वो साल भर बाद ही माँ भी बन गयीं। दीदी की शादी में मेरी उम्र उतनी ही थी, जिस उम्र में बच्चे आँगन में लगे हैंडपंप पर खड़े हो कर सार्वजनिक स्नान कर लेते हैं।
तैयारी खुशियों की
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
वैसे तो माँ रोज पूरे घर को खूब साफ करती थी, लेकिन दिवाली के मौके पर वो एक-एक चीज को उठा कर साफ करती। घर के सारे पँखें साफ करती, पूरे घर को धोती।
प्यार का बंधन
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
जब मैं छोटा बच्चा था, कभी-कभी मैं माँ को परेशान करने के लिए पलंग के नीचे छिप जाता। माँ मुझे ढूँढती, आवाज देती और फिर इधर-उधर पूछना शुरू कर देती।
हर महिला में माँ छुपी होती है
संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
छोटा था तो मेरे स्कूल जाने से पहले माँ जाग जाती थी। चाहे रात को सोने में उसे कितनी भी देर हुई हो, पर वो मुझसे पहले उठ कर मेरे लिए नाश्ता तैयार करती, लंच बॉक्स सजाती, मेरी यूनिफॉर्म प्रेस करती और फिर मुझे प्यार से ऐसे जगाती कि कहीं अगर मैं कोई सपना देख रहा होऊँ तो उसमें भी खलल न पड़ जाए। मैं जागता, रजाई मुँह के ऊपर नीचे करता, फिर सोचता कि रोज सुबह क्यों होती है, रोज स्कूल क्यों जाना पड़ता है, रोज भरत मास्टर को वही-वही पाठ पढ़ कर क्यों सुनाना पड़ता है। मुझे लगता था कि स्कूल को मंदिर की तरह होना चाहिए, जिसकी जब श्रद्धा हो चला जाए।
बदलाव ही जीवन है
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
दशहरा के महीना भर पहले हमारे घर में सुगबुगाहट शुरू हो जाती थी। मुझे नहीं पता कि घर के बाकी लोग दशहरा का इंतजार क्यों करते थे, पर मैं दशहरा का इंतजार नहीं करता था। माँ सुबह से ही ढेर सारी खाने-पीने की चीजें बनाने में जुट जाती, पिताजी पूजा की तैयारी करते। लेकिन दशहरा का दिन मेरे लिए उदासी का सबब होता। हालाँकि दशहरा पर नये कपड़े पहनने को मिलते थे, पर मेरा मन यह सोच कर उदास रहता कि आज दुर्गा जी की मूर्ति उठ जाएगी, आज उसे नदी में बहा दिया जाएगा और पिछले नौ दिनों से जो उत्सव चल रहा था, वो खत्म हो जाएगा।
प्यार, परवाह और भरोसा
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
पिछले हफ्ते हम अपनी बहन के ससुर के श्राद्ध में शामिल होने के लिए पटना गये थे। हम यानी मैं और मेरी पत्नी।