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दो कब्रें
प्रेमचंद :
अब न वह यौवन है, न वह नशा, न वह उन्माद। वह महफिल उठ गई, वह दीपक बुझ गया, जिससे महफिल की रौनक थी। वह प्रेममूर्ति कब्र की गोद में सो रही है। हाँ, उसके प्रेम की छाप अब भी ह्रदय पर है और उसकी अमर स्मृति आँखों के सामने। वीरांगनाओं में ऐसी वफा, ऐसा प्रेम, ऐसा व्रत दुर्लभ है और रईसों में ऐसा विवाह, ऐसा समर्पण, ऐसी भक्ति और भी दुर्लभ। कुँवर रनवीरसिंह रोज बिला नागा संध्या समय जुहरा की कब्र के दर्शन करने जाते, उसे फूलों से सजाते, आँसुओं से सींचते।
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