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हमारी खुशी
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
गाँव का एक आदमी मुंबई गया था और वहाँ वो ऊंची-ऊंची इमारतों को देख कर हैरान था।
सवा सेर गेहूँ
प्रेमचंद :
किसी गाँव में शंकर नाम का एक कुरमी किसान रहता था। सीधा-सादा गरीब आदमी था, अपने काम-से-काम, न किसी के लेने में, न किसी के देने में। छक्का-पंजा न जानता था, छल-प्रपंच की उसे छूत भी न लगी थी, ठगे जाने की चिन्ता न थी, ठगविद्या न जानता था, भोजन मिला, खा लिया, न मिला, चबेने पर काट दी, चबैना भी न मिला, तो पानी पी लिया और राम का नाम लेकर सो रहा। किन्तु जब कोई अतिथि द्वार पर आ जाता था तो उसे इस निवृत्तिमार्ग का त्याग करना पड़ता था। विशेषकर जब साधु-महात्मा पदार्पण करते थे, तो उसे अनिवार्यत: सांसारिकता की शरण लेनी पड़ती थी। खुद भूखा सो सकता था, पर साधु को कैसे भूखा सुलाता, भगवान् के भक्त जो ठहरे !
मौन की महिमा
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
चंद्रवती हमारी जिन्दगी में जब आयी थी तब उसकी उम्र चालीस साल रही होगी। वो पिछले 25 वर्षों से हमारे साथ है।
दुर्गा पूजा@ मेरा गांव
सुशांत झा, पत्रकार :
पता नहीं कितने साल हुए दुर्गा पूजा में गाँव गये हुए। हमारे यहाँ दशहरा नहीं बोलते हैं, दुर्गा पूजा या नवरात्रा बोलते थे। हद से हद दशमी। कलश स्थापन से ही पूजा शुरू। बेल-नोती और बेल तोड़ी..फिर बलि-प्रदान, मेला।
दूध का दाम
प्रेमचंद :
अब बड़े-बड़े शहरों में दाइयाँ, नर्सें और लेडी डाक्टर, सभी पैदा हो गयी हैं; लेकिन देहातों में जच्चेखानों पर अभी तक भंगिनों का ही प्रभुत्व है और निकट भविष्य में इसमें कोई तब्दीली होने की आशा नहीं। बाबू महेशनाथ अपने गाँव के जमींदार थे, शिक्षित थे और जच्चेखानों में सुधार की आवश्यकता को मानते थे, लेकिन इसमें जो बाधाएँ थीं, उन पर कैसे विजय पाते ? कोई नर्स देहात में जाने पर राजी न हुई और बहुत कहने-सुनने से राजी भी हुई, तो इतनी लम्बी-चौड़ी फीस माँगी कि बाबू साहब को सिर झुकाकर चले आने के सिवा और कुछ न सूझा।
रिश्तों को बचाने की जिम्मेदारी हमारी
संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
बहुत साल पहले गाँव के मुकुंद चाचा की शादी में गया था। पूरा गाँव नाच रहा था। पूरा गाँव क्या, मैं भी नाच रहा था।
पूरा गाँव सज-धज कर बाराती बन कर उस गाँव से दूसरे गाँव गया था। दूसरे गाँव वालों ने बारातियों का स्वागत नमकीन भुजिया और नींबू के शर्बत से किया था।