पश्चिम में नायक खोजने की औपनिवेशिक गुलाम मानसिकता

0
92
कोकाकोला

हम कितने मानसिक गुलाम हैं, हम इससे समझ सकते हैं कि क्रिस्टियाना रोनाल्डो के एक कदम के कारण मीडिया उनकी वाहवाही से भरा है कि उन्होंने कोक की दो बोतलें गिरा दीं! अर्थात्, उसे अस्वीकार कर दिया। जबकि मजे की बात यही है कि वे न केवल कोक बल्कि नॉन-वेज ब्रांड केएफसी का भी विज्ञापन कर चुके हैं।

15 अगस्त 1947 को कथित रूप से भारत को अंग्रेजों से स्वतंत्रता मिली। इसके लिए न जाने कितने लोगों ने बलिदान दिया और न जाने कितनी आहुतियाँ दी गयीं। लोग प्रसन्न हुए कि हमें हमारी पहचान मिली और अब हम अपने नायक गढ़ेंगे! हम अपने बीच से ही लायेंगे कोई, हम अपने साथ से ही खोज लेंगे साथ, और हम अपनी संस्कृति के प्रति जगायेंगे नयी आस!
मगर क्या हुआ? हमारे भीतर क्या वह सांस्कृतिक पहचान विकसित हो सकी? क्या हम अपने नायकों को खोज सके? या फिर आयातित नायकों का ही दौर अभी तक चला आ रहा है, जैसे पहले अंग्रेज किसी बुद्धिजीवी को बुद्धिजीवी मानते थे और लोग मान बैठते थे, और अपनी समस्त पहचान को उसी की पहचान के साथ जोड़ लेते थे।
क्या ऐसा नहीं था? यदि नहीं था तो अंग्रेजों ने पंडिता रमाबाई जैसी ईसाई स्त्रियों को महान बनाया, तो हमने भी मान लिया! हम आज भी आदर करते हैं। हम यह प्रश्न नहीं उठाते कि जब वे ईसाई बन गयी थीं, और जाहिर है कि हिंदू धर्म से नफरत के चलते ही बनी तो उन्होंने अपना हिंदू नाम क्यों नहीं त्यागा और हिंदू धर्म पर द हाई कास्ट हिंदू वीमेन जैसी किताब क्यों लिखी, जब वे उस धर्म को त्याग चुकी थीं? और हम अभी तक पंडिता रमाबाई की कहानी पर आँसू बहाते हैं और वे हमारे धर्म के विषय में दुराग्रह से भरी हुई पुस्तक लिखती हैं! मगर चूँकि उन्हें बुद्धिजीवी होने का प्रमाण-पत्र उस समय अंग्रेजों ने दिया था, और ईसाइयों ने दिया था, तो उस पर प्रश्न क्या?
खैर! यदि हम सोचते हैं कि हम उस औपनिवेशिक मानसिकता से उबर चुके हैं, तो हम भ्रम में हैं। हम नहीं उबरे हैं। हमें अपने वैज्ञानिकों की कोई भी वैज्ञानिक उपलब्धि शून्य लगती है और जब तक विदेश से इसे प्रमाणित नहीं किया जाता या फिर कोई ईसाई इसे प्रमाणित नहीं कर देता, हम अपने ही देश की उपलब्धि को उपलब्धि नहीं मानते, जैसा हमने अभी आयुर्वेद और एलोपैथ में ही को-वैक्सीन में देखा है!
हम कितने मानसिक गुलाम हैं, हम इससे समझ सकते हैं कि क्रिस्टियाना रोनाल्डो के एक कदम के कारण मीडिया उनकी वाहवाही से भरा है कि उन्होंने कोक की दो बोतलें गिरा दीं! अर्थात्, उसे अस्वीकार कर दिया। जबकि मजे की बात यही है कि वे न केवल कोक बल्कि नॉन-वेज ब्रांड केएफसी का भी विज्ञापन कर चुके हैं।
औपनिवेशिक गुलामी इस हद तक दिमाग में भरी हुई है कि हम अपने नायकों को नहीं खोजते हैं। लोग कह रहे हैं कि हमारे खिलाड़ी क्या इससे सीखेंगे? हमारे खिलाड़ी शायद ही किसी नॉन-वेज उत्पाद का प्रचार करते होंगे? क्योंकि केएफसी तो भारत का ही है, परंतु कोई भी बड़ा खिलाड़ी उस उत्पाद के साथ नहीं जुड़ा है और एल्कोहल आदि का भी प्रचार भी बड़े खिलाड़ी नहीं करते हैं।
परंतु जो सबसे बड़ा नाम कोक के विज्ञापन के खिलाफ खड़ा हुआ था, वह नाम था बैडमिंटन के महान खिलाडी पुलेला गोपीचंद का!
वर्ष 2001 में गोपीचंद ने बैडमिंटन के सबसे प्रतिष्ठित टूर्नामेंट ऑल इंग्लैंड चैंपियनशिप में पुरुषों का एकल पदक जीता था। यह याद रखा जाये कि क्रिस्टियाना रोनाल्डो अपने कैरियर के आरंभ में फिसल गये थे और उन्होंने कोकाकोला का विज्ञापन किया था। परंतु गोपीचंद ने तब उस विज्ञापन का प्रस्ताव ठुकरा दिया था, जब वे अपने अभिभावक के साथ किराये के घर में रहते थे।
परंतु उनका नाम हमारे देश में लोगों को पता नहीं है, हालांकि अधिक वर्ष नहीं हुए हैं, परन्तु फिर भी हमारे देश में लोगों को यह नहीं पता है कि गोपीचंद भी स्वास्थ्य को प्राथमिकता दे चुके हैं। वे साफ कह चुके हैं कि जिस प्रकार शराब पीना और सिगरेट पीना सेहत के लिए हानिकारक है, उसी तरह सॉफ्ट ड्रिंक्स पीने से भी नुकसान होता है।
और गोपीचंद का नाम इतना छोटा भी नहीं है। भारत में बैडमिंटन की नयी पीढ़ी तैयार करने में उनका ही योगदान है।
इतना ही नहीं, विराट कोहली भी सॉफ्ट ड्रिंक्स के विज्ञापन को नकार कर चुके हैं। विराट तो अपने-आप में एक ब्रांड हैं। फिर भी भारतीय अपने खिलाड़ियों को कोस रहे हैं!
खैर! यह तो है खिलाड़ियों को लेकर आत्महीनता का बोध! हमारे यहाँ राजीव दीक्षित एवं बाबा रामदेव जैसे संन्यासी भी इन कोल्ड ड्रिंक्स के सेवन से दूर रहने का परामर्श देते हैं। परंतु हमारे भीतर इतनी आत्महीनता है कि हम देखना ही नहीं चाहते कि हमारे समाज में भी नायक हैं, जो समय-समय पर ऐसी बातें बताते रहते हैं।
वे समय-समय पर परामर्श देते रहते हैं, समय-समय पर हमें जड़ों की ओर लौटने के लिए कहते हैं, हमारी पहचान के लिए उत्प्रेरित करते हैं, परंतु फिर भी हम लोग पश्चिम की ओर देखते हैं। दरअसल हम लोग अभी भी मानस में गुलाम ही हैं।
प्रश्न यही है कि क्या हम कभी इस वैचारिक दरिद्रता से उबरने के लिए कदम बढ़ा पायेंगे? क्या कभी हम अपने ही मध्य के किसी नायक को अपना नायक मान पायेंगे?
(देश मंथन, 20 जून 2021)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें