आडवाणी: अथक रथी से अथक हठी तक

0
133

अखिलेश शर्मा, वरिष्ठ संपादक (राजनीतिक), एनडीटीवी : 

बीजेपी के सबसे बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी एक बार फिर रूठे हैं।

पिछले नौ महीनों में ऐसा तीसरी बार हुआ। एक बार फिर उन्हें मनाने का वही सिलसिला शुरू हुआ है। सुबह से उनसे मिलने के लिए बीजेपी के बड़े नेताओं का ताँता लगा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बड़े नेताओं ने भी उनसे फ़ोन पर बात की। 

आडवाणी से मिलने वाले तमाम नेता उनसे एक ही गुज़ारिश कर रहे हैं कि वो गांधीनगर से ही चुनाव लड़ें और इस बारे में पार्टी का फ़ैसला मानें। लेकिन आडवाणी इसके लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। कल संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति की बैठक के बाद पार्टी के फ़ैसले की जानकारी देने के लिए आडवाणी से मिलने गए सुषमा स्वराज और नितिन गडकरी को भी उन्होंने साफ़ कर दिया कि उनकी पहली पसंद भोपाल है।

जबकि २८ फ़रवरी को गांधीनगर गए आडवाणी ने वहाँ साफ़ कर दिया था कि वो वहीं से चुनाव लड़ना चाहते हैं। ये बात उन्होंने टीवी कैमरों पर कही। तब तक बीजेपी की पहली सूची आ चुकी थी और उसमें आडवाणी का नाम नहीं था। वो चाहते थे कि पहली सूची में ही गांधीनगर से उनका नाम घोषित कर दिया जाए। लेकिन उनका नाम न पहली में आया और न दूसरी में। छठी सूची में नाम आना उन्हें अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल लगा। 

आडवाणी के क़रीबी हरिन पाठक का नाम भी नहीं आया। २००९ में पाठक के नाम पर आडवाणी और मोदी आमने-सामने आए थे। तब आडवाणी के दबाव में मोदी को अपने पैर पीछे खींचने पड़े। इस बार भी ऐसा ही कुछ होता दिख रहा है। आडवाणी को मनाने के लिए एक ये रास्ता भी तलाशा जा रहा है।

आडवाणी को ये एहसास है कि अगर वो गांधीनगर छोड़कर भोपाल जाते हैं तो ये मोदी के लिए बेहद नुक़सानदायक होगा क्योंकि इसका मतलब होगा कि भितरघात से आशंकित होकर वो अपनी सीट बदल रहे हैं। इसी कारण से मोदी भी आडवाणी को गांधीनगर से ही चुनाव लड़ने के लिए मनाते हुए दिखना चाहते हैं। इस बीच संघ ने भी साफ़ कर दिया है कि आडवाणी के भोपाल से लड़ने में कोई तुक नहीं है और उन्हें पार्टी का फ़ैसला मानना होगा। संघ ने ये भी कहा है कि चुनाव के वक़्त ऐसे विवाद नहीं होने चाहिएं।

आडवाणी का हठ अब बीजेपी के गले की फाँस बन गया है। पार्टी की कमान पहली पीढ़ी के हाथ से निकल कर दूसरी पीढ़ी के हाथों में चली गई है। बुज़ुर्ग नेता इस चुनाव को आख़िरी मौक़ा मानकर मैदान में उतरने के लिए हाथ-पैर मार रहे हैं। पर पार्टी में सवाल ये पूछा जा रहा है कि आडवाणी आख़िर चुनाव क्यों लड़ना चाहते हैं? क्योंकि पार्टी मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार पहले ही घोषित कर चुकी है और इस पर कोई समझौता नहीं होगा। 

ज़ाहिर है आडवाणी फिर मानेंगे लेकिन उनके रूठने और मनाने की क़वायद हर बार पार्टी की छवि पर दाग लगा जाती है और इस बार भी ऐसा ही हो रहा है। बीजेपी को ज़्यादा नुक़सान इसलिए भी है क्योंकि आडवाणी चुनाव के दौरान नाराज़ हुए हैं।

 

 

 

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें