क़मर वहीद नक़वी, संपादकीय निदेशक, इंडिया टीवी :
सरकार किस दल की नहीं, बल्कि कैसी बनती है, इस पर निर्भर करेगा कि वह क्या काम कर पाती है।
अगर गठबंधन की सरकार बनी तो गठबंधन सरकारों की अपनी बहुत मजबूरियाँ होती हैं। वह जिन दलों के सहारे चल रही होती है, उन दलों की विचारधारा या हितों या स्वार्थों का असर सरकारी नीतियों पर होता है। नयी सरकार चाहे यूपीए की बने या एनडीए की, उसका कामकाज इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें घटक दल कौन-कौन होते हैं। कामकाज इस पर निर्भर करेगा कि घटक दल सरकार के साथ कितना मिल कर चलते हैं। सरकार गठबंधन की मजबूरियों से कितना उबर पाती है, या नहीं उबर पाती है, इस पर निर्भर करता है।
अभी अगर एनडीए को ही लें तो अंतर्विरोध दिखते हैं। हाल में नरेंद्र मोदी के एक भाषण से ऐसा लगा कि वे खुदरा (रिटेल) कारोबार में एफडीआई के पक्ष में हैं। लेकिन उनकी पार्टी पहले ऐसे संकेत दे चुकी है कि वह एफडीआई के विरोध में है।
बीच में कर सुधार पर रामदेव के सुझाव पर बहस हुई और पहले लगा कि ये सुझाव आकर्षक हैं। बाद में उन सुझावों को नकार दिया गया, क्योंकि वे सुझाव व्यावहारिक थे ही नहीं। इसलिए लगता नहीं है कि अभी आर्थिक मुद्दों पर भाजपा की दृष्टि बहुत साफ है। पिछले पाँच साल अर्थव्यवस्था के लिए बहुत बुरे बीते हैं। इसको पटरी पर कैसे लायेंगे, इसका खाका जब तक सामने नहीं आयेगा, तब तक उसका आकलन करना मुश्किल है।
विभिन्न विकल्पों में तीसरा मोर्चा तो सबसे खराब स्थिति है। लोग मना रहे हैं कि कोई भी आ जाये, पर तीसरा मोर्चा न आये। जितने ज्यादा दल गठबंधन में होंगे, उस गठबंधन की उतनी ही मजबूरियाँ होंगीं। यूपीए-2 में हमने देखा कि सरकार कुछ मंत्रियों के विभाग बदलने तक की स्थिति में नहीं थी। उसे मालूम था कि कहाँ समस्या है, फिर वह कुछ कर नहीं पा रही थी। अगर ऐसी ही अगली सरकार बनी तो आप उससे कुछ उम्मीद नहीं कर सकते।
पूरी राजनीति का चरित्र एक ही है, सिर्फ लेबल बदलता है। बुनियादी तौर पर कोई फर्क नहीं है। तीसरे मोर्चे की सरकार बेलगाम घोड़ों की सरकार होगी। अगर 10 घोड़े होंगे तो दसों दस दिशाओं में जायेंगे। कौन किस पर काबू रखेगा? हमने यूपीए में देखा कि 206 सीटें कांग्रेस के पास थीं, लेकिन वे एक छोटे सहयोगी दल के कामकाज पर कोई नियंत्रण नहीं रख पाये। नियंत्रण रख पाने की स्थिति में नहीं थे। इसलिए तीसरे मोर्चे की सरकार में तो यह सोचा ही नहीं जा सकता कि उसका प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों पर काबू रख पाने की स्थिति में होगा।
अगर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में कोई गठबंधन सरकार बनती है और उसमें उन्हें सहयोगियों की कम जरूरत पड़ती है तो वे कुछ करने के लिए अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में होंगे। लेकिन उनकी आर्थिक दृष्टि साफ हो कि वे जो कह रहे हैं उसे करेंगे कैसे?
नरेंद्र मोदी की जो शैली रही है, उसे देखते हुए लगता है कि भाजपा की अब तक की जो आर्थिक नीतियाँ रही हैं, उस पर वे अपनी छाप लाये बिना मानेंगे नहीं। वे गलत या सही जो भी करते हैं, चीजों को इस प्रकार से करते हैं कि उन पर मोदी का ठप्पा लगे। इसलिए मुझे नहीं लगता कि वे किसी पुराने मसौदे पर काम करेंगे।
शायद ही कोई ऐसी बड़ी परियोजना हो जिसमें पर्यावरण-नियमों का उल्लंघन न किया गया हो और इस उल्लंघन के दुष्परिणाम सामने नहीं आये हों। उद्योग जगत को इस बात को समझना चाहिए कि अगर आप पर्यावरण को खत्म करके उद्योग लगायेंगे तो आप भी नहीं बचेंगे। लवासा सिटी से लेकर अन्य बड़ी-बड़ी परियोजनाओं तक में पर्यावरण नियमों का ध्यान नहीं रखा गया। मुकदमेबाजी भी होती है, लेकिन थोड़ा-थोड़ा करते-करते लोग निकाल ले जाते हैं और परियोजना खड़ी हो जाती है।
भूमि अधिग्रहण में जो समस्याएँ थीं, वे धीरे-धीरे इकट्ठा होती गयीं और अंततः इस रूप में आ कर खड़ी हुईं कि सरकार को मजबूरन एक कानून बनाना पड़ा। सही है कि यह कानून मुश्किलें खड़ी करता है, लेकिन अगर इससे लागत बढ़ेगी तो उद्योग जगत उसकी वसूली उपभोक्ताओं से करेगा ही। जहाँ तक बात है कि इसके चलते प्रतिस्पर्धी हो पायेंगे या नहीं, खास कर निर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) क्षेत्र में, क्योंकि वह पहले से ही खराब स्थिति में है, वह एक अलग समस्या है।
महँगाई घटाने की जहाँ तक बात है, कोई जादू की छड़ी कहाँ से लायेगा कि महँगाई घट जाये। मनमोहन सिंह ने भी कहा था कि हम महँगाई 100 दिनों में कम कर देंगे। चुनाव जीतने के लिए ये सब बातें होती हैं, लेकिन सब जानते हैं कि ये बातें व्यावहारिक नहीं हैं। दाम जहाँ तक पहुँच गये हैं, उससे नीचे आना तो संभव नहीं लगता है। किसी भी सरकार की सफलता इस पर है कि वह दामों को वहीं रोक ले, आगे नहीं बढ़े। कोई सरकार इतना भी कर ले तो लोग मान लेंगे कि वह सरकार महँगाई रोकने में सफल रही है।
दालें, चीनी वगैरह की महँगाई जितनी भी बढ़ी, वह सारी कृत्रिम महँगाई है और भ्रष्टाचार के कारण बढ़ी है। उसको जान-बूझ कर बढ़ाया गया है। न तो गन्ने या चीनी के उत्पादन में कहीं कमी हुई, न दूसरी चीजों के उत्पादन में कमी हुई, उसके बाद भी दाम लगातार बढ़ते रहे तो हेराफेरी की वजह से ही दाम बढ़े। अगर ऐसी हेराफेरी न होने दी जाये तो दाम जहाँ हैं, वहाँ रुक जायेंगे। अगर एक गठजोड़ बना हुआ है तो उस गठजोड़ को खत्म किये बिना कैसे महँगाई पर काबू पाने की बात सोची जा सकती है?
अगर नरेंद्र मोदी की सरकार बनी तो यह देखना होगा कि कौन-से सहयोगी दल आते हैं और उनके विभागों पर नरेंद्र मोदी कितना नियंत्रण रख पाते हैं। अगर वे नियंत्रण रख पाये तो वे सफल हो जायेंगे और अगर नहीं रख पाये तो वही परिणाम होगा जो आपने बीते पाँच साल में यूपीए सरकार में देखा है।
चिदंबरम ने हाल में बजट में पेश आर्थिक आँकड़ों में जो सुधार दिखाये हैं, वे तो कॉस्मेटिक हैं। ऐसे कॉस्मेटिक सुधार कोई भी सरकार कर सकती है, और यह ऐसा ही है कि जैसे कोई चार्टर्ड एकाउंटेंट आपकी बैलेंस शीट को साफ करता है। आपने तय किया कि एक आँकड़े तक पहुँचना है, आपने सोने के आयात पर रोक लगा दी तो हो गया।
भारत में इससे ज्यादा बड़े आर्थिक मुद्दे हैं। कर संबंधी सुधारों की बातें हम 20 सालों से सुनते आ रहे हैं, पर अब तक नहीं हुआ। अगर आप कर सुधार करें और ज्यादा से ज्यादा लोगों को करों के दायरे में ला सकें तो बहुत सी आर्थिक समस्याएँ सुलझ सकती हैं। दूसरी बात यह है कि अर्थव्यवस्था सब्सिडी देने के बदले लोगों को सशक्त बनाने वाली हो। लोग खुद इतना कमाने लगें कि उन्हें सब्सिडी न देनी पड़े। जो सरकार ये दो चीजें कर लेगी, वह अर्थव्यवस्था की बहुत सारी समस्याएँ सुलझा लेगी। इसके अलावा, निर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) पर जोर दिया जाये।
नये रोजगार पैदा करने की बात सुनने में बड़ी अच्छी लगती है, लेकिन यह आसान नहीं है। सब्सिडी बाँटने में क्या है? आपने लोगों के बैंक खाते खुलवा दिये, आधार कार्ड बनवा दिया और आपने सब्सिडी देना शुरू कर दिया। जो लोग टैक्स दे रहे हैं, उनका पैसा आपके पास आया और आपने सब्सिडी बाँट दी, काम खत्म हो गया। सरकार को इस सब्सिडी प्रणाली में करना कुछ नहीं पड़ता है। मेहनत नहीं होती और सरकार अपना वोट-बैंक बना लेती है। लेकिन रोजगार पैदा करने के लिए आपको अर्थव्यवस्था को उतनी तेजी देनी होगी जिससे उत्पादन बढ़े या नयी सेवाओं की जरूरत पैदा हो। इन सबके लिए बिजली की जरूरत होगी। इसलिए कोई कहे कि हम तुरंत रोजगार पैदा कर देंगे तो इसके लिए कोई अलादीन का चिराग तो है नहीं। यह एक लंबी प्रक्रिया है, जिसमें 10-15 साल लगेंगे। कोई सरकार इतने लंबे रास्ते पर चलती नहीं, क्योंकि ऐसा लंबा रास्ता चुनना राजनीतिक बेवकूफी होती है। जब आप सब्सिडी पर चलेंगे तो अर्थव्यवस्था कहाँ से आगे बढ़ेगी?
कौशल विकास (स्किल डेवलपमेंट) से सेवा क्षेत्र में बढ़ोतरी हो सकती है। इसलिए यह करना जरूरी है। आप भारत और दुनिया के बाजार को ध्यान में रख कर नये कौशल का विकास करें तो उसका फायदा होगा। चीन का उदाहरण सामने है सबके।
लोग गुजरात मॉडल की काफी चर्चा कर रहे हैं। लेकिन मानव विकास के कई सूचकांकों में गुजरात की स्थिति अच्छी नहीं है। इतने सालों से नरेंद्र मोदी वहाँ शासन कर रहे हैं। फिर भी गुजरात बहुत से मामलों में काफी ऐसे राज्यों से भी पीछे है, जिनके लिए कोई यह नहीं कहता कि वहाँ बड़ा विकास हुआ है। इसलिए अगर सरकार बदली भी तो कोई बड़ा गुणात्मक अंतर होगा, ऐसा मुझे लगता नहीं है। लेकिन काफी हद तक इस बात पर निर्भर है कि भाजपा कैसी आर्थिक दृष्टि को लेकर चलती है और उसे कैसे सहयोगी मिलते हैं।
भ्रष्टाचार को लेकर भाजपा चाहे जितनी भी बड़ी-बड़ी बातें करे, लेकिन उसने भ्रष्टाचार पर बहुत-से समझौते किये। उसने ऐसे लोगों को वापस लिया, जिन्हें उसने भ्रष्टाचार के कारण हटाया था। वो कारण आज भी मौजूद हैं, पर भाजपा ने उन्हें वापस ले लिया। अगर आप एक चुनाव की मजबूरी के कारण समझौते कर रहे हैं तो कल को सरकार चलाने की मजबूरी के कारण समझौते नहीं करेंगे, यह बात कैसे मानी जा सकती है? इसलिए भ्रष्टाचार के मुद्दे पर इन दलों में कोई अंतर नहीं है। जहाँ तक भ्रष्ट नहीं किये जा सकने वाले व्यक्ति की बात है, वह तो मनमोहन सिंह के साथ भी लागू होती है। सवाल यह है कि आप खुद भ्रष्ट नहीं हों और आप बाकी लोगों के भ्रष्टाचार को न रोक पायें तो जनता को उससे कोई लाभ नहीं है। यही बात इनके साथ भी है। अगर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं और उनके साथ आने वाले दल अगर उनकी बाँह उमेठते रहें तो उन्हें भी समझौते करने ही पड़ेंगे।
यह बात ठीक है कि मनमोहन सिंह के हाथ में राजनीतिक शक्ति नहीं थी, लेकिन अगर होती भी तो वे क्या करते? क्या किसी को आप हटा सकते थे? जो मंत्री हटाये गये, वे तब हटे जब पानी नाक तक आ गया।
हमारा राजनीतिक तंत्र इतना भ्रष्ट हो चुका है कि ज्यादा उम्मीदें नहीं लगा सकते। उम्मीद बस इतनी कर सकते हैं कि नरेंद्र मोदी अगर प्रधानमंत्री बनें तो खुद को पिछली सरकार से बेहतर साबित करने के लिए कुछ करें। वे इतनी बड़ी-बड़ी बातें कह कर चुनाव में उतरे हैं और कुछ नहीं कर पायेंगे तो उन्हें इसका बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ेगा। जो सरकार जितनी बड़ी आशाएँ जगा कर आती है, उसकी समस्याएँ उतनी ही बड़ी होती हैं। जैसे जनता पार्टी की सरकार बनी तो लोगों को लगता था कि पूरा भ्रष्टाचार अब खत्म हो जायेगा क्योंकि ये संघर्ष करने वाले लोग हैं और बिल्कुल भ्रष्ट नहीं हैं। लेकिन क्या हुआ, यह सबने देखा। वी. पी. सिंह भ्रष्टाचार और राजनीतिक शुचिता के मुद्दे पर ही आये थे। उनके समय में भी मंडल को लेकर कैसी राजनीति हुई, यह सबको पता है। अगर सरकारें राजनीतिक लाभ को ध्यान में रख कर फैसले करने लगती हैं तो वे अपने रास्ते से भटक जाती हैं। गठबंधन की सरकार में ये खतरे और बढ़ जाते हैं, क्योंकि कई लोगों के हितों को साथ में ले कर चलना होता है।
अगर मान लीजिए कि भाजपा ममता बनर्जी से समर्थन ले ले, उदाहरण के तौर पर, तो आप जानते हैं कि ममता बनर्जी एनडीए सरकार में भी थीं और यूपीए सरकार में भी। दोनों समय उन्होंने जो कुछ किया, वह किसी से छिपा नहीं है। अगर वे तीसरी बार आयेंगी तो वैसा नहीं करेंगी, यह सोचने का कोई कारण नहीं है। इसलिए कितने लोगों की जरूरत पड़ती है, कौन-कौन आता है, यह महत्वपूर्ण है। मान लें कि तमिलनाडु से जयललिता का समर्थन लेना पड़ा तो वे अपनी शर्तें रखेंगी। हो सकता है कि अगर नवीन पटनायक समर्थन दें तो वे उस तरह से व्यवहार न करें जैसा जयललिता और ममता बनर्जी करती हैं।
(देश मंथन, 03 अप्रैल 2014)