हम सब एक हैं बस टीवी में नहीं हैं

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रवीश कुमार, वरिष्ठ टेलीविजन एंकर :

मीडिया में जो चुनाव दिखता है वो चुनाव की हक़ीकत के बहुत करीब नहीं होता। हम तक जो पहुँचता है या परोसा जाता है वो मीडिया के पीछे होने वाली गतिविधियों का दशांश भी नहीं होता। जो सवाल होते हैं वो हवाई होते हैं और जो जवाब होते हैं वो करिश्माई।

सबकुछ इस तरह से स्वत: आयोजित हो जाता है कि लोगों को प्रायोजित लगना स्वाभाविक है। एक ही बात का सुकून रहा कि बड़ी संख्या में लोग मिले जो इस सच्चाई को समझते हैं। इसका मतलब यह भी नहीं कि इस समझ को वे अपने फ़ैसले का आधार बनाते ही हो। सिर्फ छिपाने वाला ही पर्दा नहीं करता, जानने वाला भी करता है।

जैसे आप कभी कैमरे पर होते नहीं देख पायेंगे कि कैसे अतीत के एक बड़े राष्ट्रीय नेता के प्रपौत्र विदेश से बुलाये जाते हैं ताकि वे अपने दादा का नाम लेकर अपनी जाति के इलाक़े में घूम सकें। सेवापुरी शायद भूमिहार बहुल इलाक़ा है। उस इलाक़े में प्रचार के लिए बिहार से भी बड़े नेता हैं। प्रपौत्र महोदय के साथ का लड़का कई बड़े नेताओं का नाम लेता है। शान से बिना पूछिए जाति बताता है। मैं सन्न रह गया। जिस राजनेता का ज़िक्र हमेशा करामात करने में आता रहा है उसका प्रपौत्र जात लिये घूम रहा है। क्या राजनारा़यण भूमिहार थे? कहीं मैंने लंका के शोर में ग़लत तो नहीं सुन लिया। बहुत देर तक यही सोचता रहा है कि रणनीतिकार ने क्या शानदार डिटेलिंग की है। ख़ानदानों की खोज की है और विदेशों तक से बुलाया है। युवक बताता है कि हमारी ड्यूटी सेवापुरी में लगी है। सी पी ठाकुर की को भी बुलाया गया है। एक लाख वोट है भूमिहारों का।

भीड़ में मेरे प्रदेश से कई नेता मिलते हैं। कहते हैं उनका कवर कर लीजिये। ये हाल ही में भाजपा में आये हैं। इनका क्यों कर लें? धरना हो रहा है। सबका कवर होगा। इनका करें या उस कार्यकर्ता का जो इस गर्मी में तपती सड़क पर लेटा है। मुँह दिखायी की परिपाटी पर वो नेता भी चलता है, जो राजनीति में एनआरआई, एमएनसी, आईएएस और सेना से आता है। आज कल से राजनीति में विदेशों से आये लोग ऐसे परिचय देते हैं जैसे अहसान कर रहे हों। जबकि कर वही रहे हैं जो अपना सब गँवा कर स्थानीय कार्यकर्ता कर रहा है। लेकिन इनके मियामी, हावर्ड बोलते ही लोगों के कान खड़े हो जाते हैं। ये लोग भी अपने स्कूल कालेज का नाम जात की तरह बताते हैं।

एक और राजपूत नेता वहाँ जा रहे हैं जहाँ राजपूत बिरादरी के लोग हैं। चौरसिया समाज के बीच चौरसिया जा रहे हैं। पटेलों के बीच पटेल जा रहे हैं। हर मोहल्ले की पहचान जाति और भाषा के आधार पर की गयी है। जनसम्पर्क के जरिये इन सब पहचानों को संगठित किया जा रहा है। कोई तो टूटेगा कोई तो जुटेगा। नतीजा जब आयेगा तो जानकार लिखेंगे कि इस बार जाति की राजनीति टूट गयी। जबकि यह चुनाव जातियों की नयी डिटेलिंग के साथ लड़ा जा रहा है। बीजेपी ने वाकई इस चुनाव को युद्ध की तरह लड़ा है। सब जायज है। बिहार के अख़बारों में विज्ञापन छपते हैं जिसमें मोदी के साथ एक जाति विशेष के नये पुराने नेताओं तस्वीर होती है। टीवी को यह सब नहीं दिखता। वो सिर्फ बयान सुनता है। बयान बंदर। बयान लोक कर पेड़ पर। इसका मतलब यह नहीं कि कांग्रेस सपा बसपा या जो भी प पा वाली पार्टियाँ हों वे जातियों की राजनीति नहीं कर रही हैं।

होटलों में जाइये। आपको कई उद्योगपति और कारोबारी मिलेंगे। इनमें गुजरात से आये कारोबारी और उद्योगपति हैं। जिस चुनाव को जीता हुआ घोषित कर दिया गया है वहाँ उद्योगपति क्यों आ रहे हैं। कई तो ऐसे उद्योगपति भी हैं जो मौजूदा सरकार में लाभांवित होते रहे हैं। कोई अपनी तरफ़ से दस हजार नेता पर बने कामिक्स की किताब से आया है। हिन्दी अंग्रेज़ी में बाल नरेंद्र की प्रतियाँ बाँट रहा है। एक अजीब सी राजनीति संस्कृति पर बन रही है, जो कई कारणों से आलोचना के केंद्र में ही नहीं है। रसूख़ वाले लोग आराम से बताते हैं अरे फलाँ होटल में वो उद्योगपति ठहरे हैं जो बल्ब बनाते हैं वो हैं जो टीवी बनाते हैं वहाँ वो हैं जो गंजी अंडरवियर बनाते हैं।

वाराणसी के होटलों की लाबी में जाइये। अलग अलग राज्यों से अलग अलग जाति और भाषा के नेता आते जाते दिख जायेंगे। ज़्यादातर तो कांग्रेस बीजेपी के ही होते हैं। बसपा का तो कोई बेचारा भी नहीं दिखता। सारे स्टार वाले होटल हैं। इन होटलों में नेता और उद्योगपतियों के अलावा मीडिया के लोग ठहरे हैं। सुबह सुबह निरीह कार्यकर्ता इन नेताओं को लेने आते हैं। लाबी में खड़े खड़े इंतज़ार करते हैं। परफ्यूम और कलफ से लकदक कुर्ता पहने नेता जी उतरते हैं। फारच्यूनर और स्कार्पियों धायं से रूकती है और नेता जी को कार्यक्रम में ले जाती है। इसमें भी एक भेदभाव दिख गया। एक समृद्ध पार्टी के दलित नेता को सैंट्रो कार या आई टेन में जाते देखता हूँ। आम आदमी पार्टी को नेता भी किसी बड़े होटल में ठहरे हैं क्या। मुझे़ नहीं दिखे। इतने महँगे होटलों में तो नहीं दिखे।

खैर शाम होती है। ये नेता धीरे धीरे लौटने लगते हैं। 

दिन भर राष्ट्रवाद और संस्कार पर भाषण देने के बाद शाम अचानक इन सबसे से ऊपर उठ कर तर होने लगती है। थकान शायद शराब से ही उतरती होगी। बनारस बजबजा रहा है। सत्ता को सेवकों से भर देने वाली राजनीति संस्कृति शाम को होटलों में मिलती है। लाबी में खड़ा परिश्रमी या शायद आदर्शों या विचारधारा में डूबा कार्यकर्ता अपने लिए भी ऐसे दिनों की कल्पना करता होगा। आप कांग्रेस और बीजेपी में कोई फ़र्क नहीं कर सकते। अब तो यह बहस भी नहीं है। राजनीति की एक ही संस्कृति होती है सत्ता। और सत्ता की देहभाषा एक ही होती है रूतबा। पैसा, पावर और पोलिटिक्स। इनका संगम टीवी पर नहीं दिख सकता। टीवी सिर्फ बयान दिखा सकता है। जो टीवी देखते हैं वो भी भीतर से ऐसे होते हैं। बाहर से विकास, ग़रीबी दूर करने का जादू ,राष्ट्रवाद सेवा और विकास के भाषणों को पसंद करते होंगे। अंदर से कुछ और होते तो टीवी के ख़िलाफ सड़कों पर न होते। दर्शक भी तो इस गठजोड़ में शामिल है। होटल में नहीं रूका है तो क्या हुआ ऐसे सवालों पर चुप तो है। हम सबकी तरह। हम सब एक दूसरे के जैसे हैं। अपने अपने कमरों से निकल कर होटल की लॉबी में घुलमिल जाते हैं।

(देश मंथन, 10 मई 2014)

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