क्यों अलोकतांत्रिक है आनंदी बेन के चयन का तरीका

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राजीव रंजन झा :

नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और उन्हें मिले विशाल जनादेश की ओट में आनंदी बेन पटेल का मुख्यमंत्री चुना जाना लोकतांत्रिक परंपरा के बारे में कुछ सवाल खड़े कर जाता है।

संभवतः नरेंद्र मोदी को इस बात का एहसास भी नहीं हो, क्योंकि गुजरात का नया मुख्यमंत्री उन्होंने बिल्कुल उसी तरह चुना है, जिस तरह कभी अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें बुला कर ‘आदेश’ दिया था कि गुजरात चले जाओ। आज नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन रहे हैं, तो उन्होंने वैसा ही ‘आदेश’ आनंदी बेन को दे दिया है कि मुख्यमंत्री बन जाओ! यहाँ आनंदी बेन का नाम मैं केवल तात्कालिक उदाहरण के रूप में ले रहा हूँ। वास्तव में यह प्रश्न हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विकसित हो गयी परिपाटी का है।

गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में आनंदी बेन पटेल का चयन उतना ही अलोकतांत्रिक है, जितना बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम माँझी का चयन है, और जितना मनमोहन सिंह का चयन था। इन तीनों का चयन जनता ने नहीं किया, जनता के चुने हुए विधायकों ने नहीं किया, सिर्फ एक-एक व्यक्ति ने किया और उस चयन पर विधायकों/सांसदों के समर्थन की केवल मुहर लगवायी गयी।

प्रश्न आनंदी बेन की काबिलियत का नहीं है। काबिल तो मनमोहन सिंह भी कम नहीं। प्रश्न यह है कि उन्हें चुना किसने? और प्रश्न आनंदी बेन या किसी अन्य नाम का नहीं है। प्रश्न यही है कि चयन कैसे हुआ।

जहाँ भी चयन में एक व्यक्ति की इच्छा चलती है, तो वह चयन लोकतांत्रिक नहीं है। मैं इसी आधार पर गांधी जी को भी अलोकतांत्रिक स्वभाव का मानता हूँ कि उन्होंने बहुमत की राय का अनादर करके सुभाष चंद्र बोस को अध्यक्ष पद पर नहीं रहने दिया। यहाँ बहुमत की राय का अनादर हुआ, ऐसा कोई प्रमाण नहीं है। लेकिन लोकतांत्रिक ढंग से बहुमत की राय ली ही नहीं गयी।

किसी राज्य के मुख्यमंत्री का चयन करने का अधिकार उस राज्य के विधायकों का होता है। व्यावहारिक रूप में यह सत्तारूढ़ दल या गठबंधन के विधायकों का अधिकार होता है। लेकिन कांग्रेस ने सबसे पहले यह परंपरा डाली कि विधायक दल को आलाकमान का संदेश चला जाये और सारे विधायक उस संदेश के अनुसार प्रस्ताव पारित कर दें। कांग्रेस ऐसे मौकों पर केंद्रीय पर्यवेक्षक भेजती थी, जिनका काम विधायकों से बातचीत करके उनकी राय जानना होता था। इसके बाद आलाकमान का फैसला आता था और सारे विधायक उस संदेख के अनुरूप प्रस्ताव पारित करने की औपचारिकता निभाते थे।

इसी से मिलती-जुलती एक परिपाटी शुरू की गयी कि विधायक दल एक प्रस्ताव पारित करके चयन का अधिकार आलाकमान को सौंप दे। अभी-अभी बिहार में यही हा। जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के विधायक दल ने एक प्रस्ताव पारित करके नीतीश कुमार को यह अधिकार सौंप दिया कि वे राज्य का अगला मुख्यमंत्री चुन लें। आखिर वही विधायक दल खुद अपना एक नेता क्यों नहीं चुन सकता था?

मेरा प्रश्न यह है कि आनंदी बेन पटेल के चयन में इन सबसे अलग क्या हुआ है? आनंदी चुनी हुई विधायक हैं, अरसे से महत्वपूर्ण मंत्रालयों को सँभालती रही हैं। आगे शायद बतौर मुख्यमंत्री भी अच्छा ही काम करें। मेरा प्रश्न इन सब बातों को लेकर नहीं है। बात केवल यह है कि मुख्यमंत्री के रूप में उनके चयन का तरीका लोकतांत्रिक नहीं है।

यदि आनंदी बेन और उनके प्रतिद्वंद्वियों के बीच विधायक दल की बैठक में चुनाव होता और आनंदी बेन उसमें जीत कर मुख्यमंत्री बनतीं, तो यह सही मायने में लोकतांत्रिक फैसला होता। अब यह न कहें कि गुजरात में कोई और व्यक्ति मुख्यमंत्री बनने का इच्छुक था ही नहीं! ऐसा तो है नहीं कि आनंदी बेन वास्तविक सर्वसम्मति से चुनी गयी हों।

इस दरम्यान खबरें आती रहीं कि उनके अलावा और कौन-कौन से नाम इस पद की होड़ में हैं। ऐसी भी खबरें आयीं कि भाजपा के केंद्रीय पर्यवेक्षक के सामने आनंदी बेन के नाम का कई लोगों ने विरोध किया या अपनी दावेदारी रखी। ऐसे में जो भी लोग आनंदी बेन पटेल से सहमत नहीं थे, उन सबके सामने यह विकल्प खुला होना चाहिए था कि वे विधायक दल की बैठक में अपना या किसी अन्य के नाम का प्रस्ताव करें। फिर जो भी नाम प्रत्याशी के तौर पर सामने आते, उन पर विधायक दल मतदान करता और इसमें जीतने वाले को मुख्यमंत्री बनाया जाता।

काफी संभव है कि उस स्थिति में भी आनंदी बेन भरपूर बहुमत के साथ जीततीं। विधायकों के बहुमत का विश्वास पा कर मुख्यमंत्री बनने पर वे स्वयं को ज्यादा सशक्त महसूस करतीं। उन्हें किसी एक व्यक्ति का कृपा-पात्र बन कर उस पद पर बैठने का एहसास नहीं होता।

लेकिन लोग इस तरीके के बारे में कहते हैं कि इससे दल के भीतर असंतोष पैदा होने की गुंजाइश बनती है, गुट बन जाते हैं और आगे कामकाज मुश्किल हो जाता है। आखिर हम ऐसी परंपरा क्यों नहीं बना पा रहे कि एक बार मतदान हो जाने के बाद सभी लोग बहुमत का सम्मान करें और चुने हुए नेता के साथ काम करें। लोकतंत्र में मतदान से इतना परहेज क्यों! किसी भी चयन में मतदान का तरीका अपनाना लोकतांत्रिक होने की मुहर लगाता है।

कुछ मित्र इस प्रसंग में खुद नरेंद्र मोदी का उदाहरण सामने रखेंगे। कहेंगे कि फिर तो मोदी भी लोकतांत्रिक ढंग से प्रधानमंत्री नहीं बने। लेकिन मोदी का प्रधानमंत्री के रूप में चयन भरे-पूरे जनादेश से हुआ है। अगर आप भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के तौर पर उनके चयन की बात करें, तो हाँ, मेरा मानना है कि इस काम को बाकायदा एक निर्वाचन प्रक्रिया से करना चाहिए था। यह बात और है कि उस स्थिति में भी मोदी को ही सफलता मिलती। हम सब प्रत्यक्ष देख रहे थे कि मोदी की लोकप्रियता से विवश हो कर ही भाजपा के केंद्रीय नेताओं को उन्हें आगे लाना पड़ा था। वे किसी एक व्यक्ति की ‘कृपा’ से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नहीं बने थे, और न ही अब किसी एक व्यक्ति की कृपा से प्रधानमंत्री बने हैं।

(देश मंथन, 22 मई 2014)

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