राजनीति की मौकापरस्ती बनाम रेलवे का कायाकल्प

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राजीव रंजन झा : 

लोकसभा चुनाव के नतीजों की गहमागहमी के बीच 16 मई को एक खबर कब आयी और किधर खो गयी, किसी को पता भी नहीं चला था। खबर यह थी कि आम चुनाव समाप्त होते ही रेलवे ने यात्री किरायों में 14.2 प्रतिशत और माल भाड़े में 6.5 प्रतिशत वृद्धि की घोषणा कर दी और यह वृद्धि 20 मई से लागू होगी।

यह वृद्धि सभी श्रेणियों के यात्रियों के लिए थी। सीधी किराया वृद्धि 10 प्रतिशत थी और 4.2 प्रतिशत वृद्धि ईंधन के भाव (एफएसी) पर आधारित थी।

दरअसल यह फैसला कुछ और पहले का था। यूपीए सरकार ने 5 फरवरी 2014 को ही रेल किराये और माल भाड़े में वृद्धि का फैसला किया था, जब रेलवे बोर्ड ने 1 अप्रैल 2014 से माल भाड़े में और 1 मई 2014 से यात्री किराये में वृद्धि लागू करने की तारीखें तय की थीं। उस समय रेलवे मंत्री मल्लिकार्जुन खड़गे ने, जो अब कांग्रेस संसदीय दल के नेता हैं, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भेंट की थी, जिन्होंने इस वृद्धि पर मुहर लगायी थी।

तब शायद यह सोचा गया था कि चुनावी प्रक्रिया 1 मई से पहले पूरी हो जायेगी। लेकिन चुनावी प्रक्रिया 16 मई तक चली। इसलिए 16 मई को चुनावी नतीजों की घोषणा के बीच ही रेलवे ने किराये और माल भाड़े में वृद्धि की अधिसूचना जारी कर दी।

यहाँ तक तो सामान्य सरकारी काम चल रहा था। लेकिन इसके बाद गेंद राजनीति के मैदान में चली गयी। अब इस फैसले के जो राजनीतिक फलितार्थ थे, वे तो बदल नहीं सकते। जरा 16 मई को इस खबर की सुर्खियाँ देखें – “जाते-जाते मनमोहन सरकार ने रेल यात्रियों को रूलाया”। जहाँ भी जनता को कुछ ज्यादा पैसे देने पड़ते हैं, उस खबर के शीर्षक कुछ ऐसे ही बनेंगे। इसलिए कांग्रेस ने सोचा कि अब जाते-जाते यह तोहमत अपने सिर पर क्यों ली जाये? उसे पता था कि अगर वह इस फैसले को अभी टाल दे तो यही फैसला मोदी सरकार को लेना पड़ेगा और उसे राजनीतिक हमले का एक मौका मिल जायेगा। अब हमले का मौका गँवा कर अपने सिर पर तोहमत लेना तो कतई राजनीतिक समझदारी नहीं होगी ना!

वैसा ही हुआ। जब मोदी सरकार ने एकदम विदाई के समय यूपीए-2 सरकार की ओर से लिये गये और बाद में टाल दिये गये इस फैसले को लागू किया, तो ऐसी ही सुर्खियों का निशाना मोदी सरकार बन गयी। वह अभी-अभी अच्छे दिन का चुनावी नारा देकर सत्ता में आयी है, इसलिए तुरंत अच्छे दिन से जुड़ी तुकबंदियाँ बन गयीं। लोग पूछने लगे कि अच्छे दिन के नाम पर महँगे दिन क्यों ले आये? कांग्रेस यह दिखाना चाहती है कि भाजपा ने हमारे फैसलों का विरोध करके जनता से वोट ले लिया और अब हमारे ही फैसलों को लागू कर रही है। वैसे यह दिलचस्प होगा कि जब कांग्रेस रेल किराये और माल भाड़े में इस वृद्धि का संसद में विरोध करेगी (जो अवश्यंभावी लगता है), तो उस समय लोकसभा में उसके नेता मल्लिकार्जुन खड़गे अपने ही एक फैसले के विरोध में क्या कहेंगे! खैर, राजनीति के अपने ही रंग-ढंग होते हैं।

राजनीति करने में भाजपा भी कहाँ कम है! आज भाजपा के प्रवक्ता कहते हैं कि किराये और माल भाड़े में वृद्धि तो सालों पहले हो जाने चाहिए थे। साथ ही रेल बजट लाने से पहले ही किराये और माल भाड़े में वृद्धि को भी उन्होंने उचित ठहराया है। लेकिन यह फैसला होने के तुरंत बाद सामाजिक माध्यमों पर नरेंद्र मोदी का 7 मार्च 2012 का वह ट्वीट फैलने लगा जिसमें उन्होंने कहा था, “यूपीए ने रेल बजट से ठीक पहले रेलवे का माल भाड़ा बढ़ा कर संसद को बाइपास किया है। मैंने इसके विरोध में प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है।”

तब उन्होंने मनमोहन सिंह को लिखे पत्र में कहा कि रेलवे बजट से ठीक एक हफ्ते पहले रेलवे माल भाड़े में पिछले दरवाजे से 20 प्रतिशत की भारी वृद्धि का अचानक फैसला करके संसद की सर्वोच्चता को चोट पहुँचायी है। अगर मार्च 2012 में नरेंद्र मोदी रेलवे बजट से ठीक पहले अलग से माल भाड़े में वृद्धि की घोषणा के विरोध में थे, तो आज उनकी ही सरकार का वही काम ठीक कैसे है? उनका 2012 का विरोध गलत था, या आज उनकी सरकार का कदम गलत है? उस समय नरेंद्र मोदी ने माँग की थी कि माल भाड़े में वृद्धि को तुरंत वापस लिया जाये, क्योंकि इससे आम आदमी पर और परोक्ष रूप से पूरी अर्थव्यवस्था पर बोझ पड़ेगा। जब आज भाजपा के प्रवक्ता कहते हैं कि रेलवे के किराये और माल भाड़े तो दो साल पहले ही बढ़ा दिये जाने चाहिए थे, तो दो साल पहले नरेंद्र मोदी ऐसे ही एक फैसले का विरोध क्यों कर रहे थे?

इसलिए अगर शुद्ध राजनीति के मोर्चे पर देखें तो सारे ही दल अतार्किक विरोध और मौकापरस्ती के आदी हैं। लेकिन अगर रेलवे की हकीकत देखें तो बीते दशक की लोक-लुभावन राजनीति ने वाकई उसे अंदर से खोखला, निहायत ही गैर-पेशेवर और अक्षम बना दिया है। टिकट सस्ता होने का क्या फायदा, अगर टिकट मिलता ही नहीं हो? शताब्दी और राजधानी जैसी कुछ विशिष्ट ट्रेनों को छोड़ दें तो बाकी ट्रेनें कब पहुँचेंगी, उसका कोई ठिकाना ही नहीं होता। प्लेटफॉर्म पर पहुँच कर आप खुद को इंसान नहीं, माल गोदाम में पड़े हुए बोरे जैसा महसूस करने लगते हैं।

यात्री किराये न बढ़ाने की लोक-लुभावन जिद में रेलवे को संसाधनों के लिए पूरी तरह से माल ढुलाई के भाड़े पर निर्भर कर दिया गया। लेकिन रेलवे का माल भाड़ा सड़क परिवहन की तुलना अप्रतिस्पर्धी होते जाने से देश की कुल माल ढुलाई में रेलवे की हिस्सेदारी बीते 10-20 वर्षों में लगातार घटती गयी। जब यात्री किराये बढ़ाये भी गये तो उसमें ज्यादातर बोझ एसी श्रेणी के यात्रियों पर डालने की नीति अपनायी गयी।

गरीब रथ में दिल्ली से मुंबई का एसी-3 का किराया 880 रुपये है। यह पहुँचने में 16:30 घंटे का समय लेती है, जो मुंबई राजधानी के लगभग बराबर है, और अगस्त क्रांति राजधानी से तो तेज ही है। अगर मुंबई राजधानी या अगस्त क्रांति राजधानी में एसी-3 का टिकट लेना हो तो 1815 रुपये देने पड़ेंगे। यानी गरीब रथ में समान सुविधाओं के लिए 50% से ज्यादा की सब्सिडी है।

अगर सामान्य ट्रेनों के किराये पर नजर डालें तो एसी श्रेणी पर लगातार बोझ बढ़ाने की नीति अपनायी गयी है। दिल्ली-मुंबई का पश्चिम एक्सप्रेस का फर्स्ट एसी का किराया 3335 रुपये, एसी-2 का किराया 1950 रुपये और एसी-3 का किराया 1350 रुपये है, जबकि स्लीपर का किराया 520 रुपये। एसी-3 का किराया स्लीपर के किराये के ढाई गुना से भी ज्यादा क्यों है?

यह 1960-1970 के दशकों की उस समाजवादी सोच का नतीजा है, जो कहती है कि कीमत का संबंध लागत से नहीं, बल्कि कीमत चुकाने वाले की क्षमता से होना चाहिए। वही ट्रेन, वही दूरी, रेलवे के ढाँचे पर बोझ और लागत के मामले में बहुत हुआ तो 19-21 या 18-22 का फर्क, लेकिन किराये में ढाई गुने से लेकर साढ़े छह गुना तक का फर्क!

लेकिन इस सोच का नतीजा क्या निकला है? जिस तरह से दान की बछिया के दाँत नहीं गिने जाते, उसी तरह सरकारी अमले ने मान लिया है कि स्लीपर और जनरल डिब्बों में चलने वाले लोग इंसान नहीं हैं और किसी भी तरह की सुविधा देने की कोई जरूरत ही नहीं है। इन्हें एक तरह से खैराती डिब्बे मान लिया गया है, जिनमें एक साफ-सुथरा टॉयलेट मुहैया कराना तक जरूरी नहीं समझा जाता। जरा स्लीपर और जनरल डिब्बों में यात्रा करने वालों से तो पूछा जाये कि वे क्या चाहते हैं? ठीक है, नहीं मिलेगी एसी की सुविधा, पर डिब्बे जरा साफ-सुथरे हों, टॉयलेट इस्तेमाल करने लायक हों, बेटिकट घुस कर आपकी सीट पर कब्जा करने और फिर आपको अपनी ही सीट पर बेचारा बना देने वालों की फौज न हो, तो क्या उन्हें 100-200 रुपये ज्यादा देने में परेशानी होगी?

लेकिन रेलवे को सुधारने की दिशा में किराये और माल भाड़े को बढ़ा देना ही अकेला या सबसे बड़ा उपाय हो, ऐसा भी नहीं है। रेलवे देश में सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला संगठन है, लेकिन इसकी यह लंबी-चौड़ी फौज इसकी शक्ति नहीं, दुर्बलता है। भारतीय रेलवे का जितना बड़ा नेटवर्क है और इसके पास जितने कर्मचारी हैं, उसके अनुपात की तुलना जरा कुछ अन्य बड़े देशों के रेलवे नेटवर्क से करें तो बात समझ में आ जायेगी। उसके बाद भी अक्सर रोना रोया जाता है कि कर्मचारियों की कमी के कारण रेलवे ठीक से सुविधाएँ नहीं दे पा रहा है।

माल ढुलाई रेलवे की दुधारू गाय है, लेकिन रेलवे ने इस गाय की भी कोई परवाह नहीं की है। आपने एक बार रेलवे को अपना माल सौंप दिया, उसके बाद वह कब गंतव्य तक पहुँचेगा इसका भगवान ही मालिक है। अगर आपने एक शहर से दूसरे शहर अपनी मोटरसाइकल रेलवे से भेजने के लिए बुक कराया हो और आपको गंतव्य स्टेशन पर अपनी मोटरसाइकल एकदम सही-सलामत मिल जाये, तो आपको तुरंत मंदिर जा कर प्रसाद चढ़ाना चाहिए। नरेंद्र मोदी ने खुद कई बार अपने भाषणों में जिक्र किया है कि संगमर्मर और टमाटर दोनों सामने पड़े हों तो रेलवे पहले संगमर्मर भेज देगा और टमाटर की खेप को सड़ने देगा।

भ्रष्टाचार केवल 2जी घोटाले और कोयला घोटाले के रूप में नहीं होता। यह सरकार की छोटी-से-छोटी खिड़की और बड़ी-से-बड़ी कुर्सी पर पसरा है। रेलवे भी इस बीमारी के साथ-साथ अक्षमता के संधिवात का शिकार है। इसे कड़वी दवा के एक-दो टैबलेट की नहीं, पूरे कायाकल्प की जरूरत है।

(देश मंथन, 24 जून 2014)

 

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