रवीश कुमार, वरिष्ठ टेलीविजन एंकर :
पिछले दो तीन दिनों में टीवी के सामने बैठा दर्शक भारतीय रेल को लेकर पर्याप्त रूप से शर्मिंदा हो चुका होगा। तमाम लेडी ऐंड लेडाज रिपोर्टर एंकर भारतीय रेल के जर्रे जर्रे का माखौल उड़ाते दिखे जैसे ये रेल न हो कबाड़ हो।
दुनिया की सबसे गयी गुजरी अगर रेल कहीं है तो वो भारतीय रेल ही है। लेडी ऐंड लेडाज रिपोर्टर एंकर पहले भारतीय पटरियों का मुआयना करने निकले। खाने से लेकर फटी कटी सीट दिखाकर छाती पीटने का क्रम जारी रहा। इस बेकार रेल को अगर इंतजार है तो सिर्फ और सिर्फ मोदी का। रेल मंत्री तो सिर्फ फाइल लेकर जा रहे हैं पढ़ने के लिए।
चैनलों के सूचना सुपरों में मोदी का रेल बजट हावी है, गौड़ा की गाड़ी सिर्फ नाम भर की है। अच्छा ही है प्रधानमंत्री की मुहर लग जाने से फैसले ज्यादा विश्वसनीय हो जाते हैं। पर इस प्रक्रिया में हम एक चीज नहीं देख रहे हैं कि कैसे दो मुल्कों की चंद ट्रेनों को दिखा दिखा कर रेल के हमारे साक्षात अनुभवों को ठुकराया जा रहा है। ट्रैक से लेकर कोच के भीतर तक के हर शाट को ऐसे पेश किया जा रहा है जैसे ये रेल चल कैसे रही है। इसे तो अभी पलट जाना चाहिए।
रेल बजट के कारण हफ्तों बाद हिन्दी के चैनलों का दिव्य दर्शन करने बैठा तो अचानक लगा कि हम भारत में क्यों हैं। हम जापान में क्यों नहीं हैं। हमारे सारे अनुभव रद्दी की टोकरी में फेंक देने लायक हैं। स्वर्ग तो जापान में हैं और इंद्रलोक बुलेट ट्रेन में।
मुक्तसर सी बात है। क्या हमारे चैनल दुनिया भर में फैले रेल के जाल के तमाम अनुभवों की विविधता को रख पा रहे है। चीन और जापान का अति जिक्र इसलिए कर रहे हैं क्योंकि प्रधानमंत्री ने बुलेट ट्रेन का सपना दिखा दिया है। बुलेट ट्रेन का सपना तो वैसे बहुत पुराना है मगर इस बार ऐसे पेश किया जा रहा है जैसे अब चंद दिनों की बात है। साकार होने जा रहा है। अमरिका से सीखते सीखते हम अमरिका जैसे हो गये और थोड़ा ब्रेक लेकर चीन और जापान के जैसा भी हो जाया जाये। रिपोर्टरों का टिड्डी दल चीन और जापान की तरफ धावा बोल चुका है। वहाँ की रेलगाड़ियों में सफर हो रहा है। उनके मुकाबले हमारे रेल के तमाम अनुभवों को दोयम दर्जे का बताया जा रहा है।
रिपोर्टर नलके को छू कर बता रहा है तो शीशे पर हाथ फेर रहा है। एक ने ट्रेन के भीतर कप ही रख दिया। बताया कि बिल्कुल हिलडुल नहीं रहा है। देखते देखते मैं ध्यान करने लगा कि राजधानी में भी तो हम कप रख देते हैं। चाय भरी होती है पर वो तो नहीं छलकती और न ही किसी ने राजधानी में इस अनुभव को कैमरे के सामने दोहराकर बताने की कोशिश की कि संतुलन का छोटा मोटा प्रयोग हमने भी कर लिया है।
कोई यह नहीं बता रहा है कि इस रेल का भारतीय रुपये में किराया कितना है। कौन चला रहा है और किस कीमत पर बुलेट ट्रेन बनी है। चीन का रेल नेटवर्क कितना है और उसके अनुपात में बुलेट ट्रेन का ग्यारह हजार किमी का नेटवर्क कितना प्रतिशत है। ग्यारह हजार बुलेट ट्रेन नेटवर्क लगाने में चीन ने कितना पैसा लगाया और वक्त लिया।
अचानक से ये लाल पीले लिलपोर्टर बताने लगे हैं कि बुलेट ट्रेन चीन की अर्थव्यवस्था को गति दे रही है। इसका आधार क्या है। चीन में हवाई और रोड नेटवर्क का क्या योगदान है फिर। क्या टीवी हमें समझ के विविध अवसरों तक ले जा रहा है। इस काम में हम सब फेल ही रहते हैं हर बार लेकिन क्या दर्शक यह समझ पा रहा है कि बुलेट ट्रेन के नाम पर जो दिखाया जा रहा है दरअसल वो हिंदुस्तान की फौरी जरूरत कम एक सियासतदां का प्रोपेगैंडा भी हो सकता है।
चीन ने बीजिंग ओलंपिक के समय दुनिया के सामने खुद की मार्केटिंग करने के लिए बुलेट ट्रेन का ये जाल बिछाया। यह कहा जा रहा है कि बुलेट ट्रेन कमाई और लागत के अनुपात से मुनाफामंद नहीं है। क्या चीन जापान गये लिलपोर्टर यह बता रहे हैं कि ग्यारह हजार किमी बुलेट ट्रेन के नेटवर्क के बाहर जो चीन का रेल नेटवर्क है उसकी रफ्तार का औसत क्या है। चीन की अर्थव्यवस्था में उसका क्या योगदान है।
इन आकर्षक तस्वीरों से आप दर्शकों को हैरानी में डाला जा रहा है ताकि आप बुलेट ट्रेन की कथा को भी सास बहू सीरियल की तरह आँखें फाड़कर देख सकें। इन तस्वीरों को भी ध्यान से देखिये तो पता चलेगा कि हमारी रेल खराब जरूर हो सकती है मगर ऐसे कोच हमारे यहाँ भी हैं। जिस स्तर के चीन में हैं जापान में हैं उसी स्तर के आस पास के कोच हमारे यहाँ भी हैं।
ये और बात है कि हम अपने कोच की सीट को लात मारकर तोड़ देते हैं। चार्जर ऐसे ठूंसते हैं कि प्लग खराब हो जाये। मगर हिन्दी न्यूज चैनल अचानक बाइसकोप की मुद्रा में आ गये हैं और बुलेट ट्रेन की गाथा को परिकथा में बदलकर दिखा रहे हैं। दिखा क्या रहे हैं बल्कि आप पर थोप रहे हैं ताकि आप अपने साक्षात अनुभव को भूल जायें और इस वर्चुअल अनुभव के जादूलोक में समाँ जाये।
तभी तो किसी ने नहीं बताया कि बुलेट ट्रेन में चलेगा कौन। इसका किराया कितना होगा। कौन लोग देंगे। क्या ये बुलेट ट्रेन दिल्ली समस्तीपुर के बीच भी चलेगी या सिर्फ मुंबई अहमदाबाद जैसे कुलीन रूट पर। इसका जो भार पड़ेगा कहीं उसकी कीमत पर राजनीतिक प्रोपेगैंडा तो नहीं होगा जैसे कुछ नेता दिल्ली में मेट्रो का इस्तमाल सत्ता में आने के लिए करते रहे।
करीब दस साल पहले गया के पास रफीगंज में राजधानी एक्सप्रेस पटरी से उतर गयी थी। तब तीन सौ लोग मरे थे। कुछ दिन पहले छपरा के पास इसी तरह से राजधानी एक्सप्रेस के कोच पटरी से उतर गये। मरने वाले की संख्या थी चार। क्या मीडिया ने बताया कि रेलवे ने इतने दिनों में कोच की डिजाइन में काफी तरक्की हासिल कर ली है। हमारे कोच जर्मन टेक्नोलॉजी पर आधारित हैं। काफी बेहतर माने जा रहे हैं।
नया आना चाहिए मगर जो मीडिया के द्वारा समझ बनायी जा रही है मैं उसे लेकर अपनी आपत्ति दर्ज करा रहा हूँ। इस काम में कोई अपवाद नहीं है। हो सकता है कि मैं जहाँ काम करता हूँ वहाँ भी इसी तरीके से समझ बनायी जा रही हो। हमारे कोच किसी मामले में कम नहीं हैं। इसी एसी फर्स्ट सेकेंड को हम हैरानी से देखा करते थे, आज चैनलों में बुलेट ट्रेन देखने के बाद हम इसे भी खऱाब कहने लगेंगे। जरूर भारतीय रेल में कमियाँ हैं। लेकिन जो छवियाँ बनायीं जा रही हैं वो अतिरंजना से भरपूर हैं।
सब ये कहते हैं कि आजादी के बाद से हमने रेल लाइनें कम बिछाईं। एक नज़र में यह बात सबको शर्मिंदा कर सकती है कि हम इतने सालों से कर क्या रहे थे। लेकिन गुजराल के समय से ही भारतीय रेल ने गेज परिवर्तन का काम किया है। यानी मीटर ग्रेज,ब्राड ग्रेज को यूनी गेज में बदला गया। यह काम भी नये सिरे से पटरियाँ बिछाने से कम नहीं है। कोई पत्रकार यह क्यों नहीं बताता कि कितने एरिया में रेल की जरूरत है और वहाँ नहीं पहुँची है।
सब रोना रोते हैं कि आजादी के बाद से बहुत ज्यादा विस्तार नहीं किया। अंग्रेजी हुकूमत रेल के जरिये सत्ता पर काबिज रहना चाहती थी। इसलिए उसने अपने समय में ही दूर दराज के इलाकों में रेलमार्ग बिछा दिया था। जरूर नये मार्गों की जरूरत होगी लेकिन क्या यह बात बतायी नहीं जानी चाहिए।
इसलिए रेल बजट के बहाने चैनल में अपने स्क्रीन को चकाचक ही कर रहे हैं। रेल से जुड़े हमारे सामाजिक अनुभवों को जूतिया जूतिया कर इस हालत में पहुँचा दे रहे हैं कि चैनल पर रेल की तस्वीर देखकर रोने का मन करता है। भारत बीस साल से आर्थिक तरक्की कर ही रहा है।
क्या वाकई इसमें रेल का कोई योगदान नहीं रहा होगा। सबने इस बजट को उम्मीदों का बजट घोषित कर दिया है। किसकी उम्मीद भाई। बुलेट ट्रेन किसकी उम्मीद है। इतनी निराशा किस बात की है कि हम उम्मीदों का इस तरह से इंतजार कर रहे हैं। रेल घाटे की बात तो होती है लेकिन क्या हम इसके योगदान का सही तरीके से मूल्यांकन कर पाते हैं? कर रहे हैं? फिलहाल बुलेट ट्रेन देखिये और रोते रहिए। हम सब रोदूं क्लास के नागरिक है और चैनल सबसे बड़े रूदाली।
(देश मंथन, 08 जुलाई 2014)