राजेश रपरिया :
अपने पहले स्वतंत्रता दिवस भाषण में प्रधानमंत्री मोदी देश के निम्न आय वर्ग के 7.5 करोड़ परिवारों को नायाब तोहफा देने की घोषणा करेंगे, जिनके अभी बैंकों में खाते नहीं हैं।
वित्त मंत्रालय के आला अधिकारी इसका खुला संकेत दे चुके हैं। लेकिन यह योजना कैसी होगी? इसका आकार-प्रकार कैसा होगा? इसका आधिकारिक विवरण भाजपा और केंद्र सरकार के आला लोग सीने से चिपकाये बैठे हैं।
असल में यह तोहफा मोदी के अति महत्वाकांक्षी लक्ष्य संपूर्ण वित्तीय समावेश का हिस्सा है। इसकी घोषणा करना अपनी साख को बचाये रखने के लिए मोदी की अनिवार्यता भी है। महँगाई पर काबू पाने में मोदी सरकार कोई तीर नहीं चला पायी है। रोजगार के पर्याप्त अवसर मुहैया कराना फिलहाल मोदी सरकार के लिए दूर की कौड़ी है।
यद्यपि वित्तीय समावेशन की योजना कोई नयी नहीं है। भारतीय रिजर्व बैंक 2010 से वित्तीय समावेशन के लिए नो फ्रिल अकाउंट खोलने पर जोर देता रहा है। इसे 2016 तक पूरा होना है। लेकिन मोदी के संपूर्ण वित्तीय समावेशन अभियान में कई ऐसी चीजें हैं, जो भारतीय रिजर्व बैंक के वित्तीय समावेशन अभियान में नहीं थीं। मोदी के संपूर्ण वित्तीय समावेशन अभियान के छह उद्देश्य हैं।
- मार्च 2015 तक हर जिले में 1000 से 5000 परिवारों को पाँच किलोमीटर के दायरे में बैंकिंग सुविधाएँ उपलब्ध कराना।
- सरकारी सहायता की योजनाओं के लाभार्थियों को मूल बैंकिंग सेवाएँ उपलब्ध कराना।
- सरकारी बैंकों पर अपने कार्य क्षेत्र में वित्तीय साक्षरता की जिम्मेदारी।
- हर ऐसे खाताधारी को 5,000 रुपये के ओवरड्राफ्ट की सुविधा मुहैया करना।
- हर खाताधारी को ‘रूपे’ डेबिट कार्ड मिलेगा और इसके साथ ही 1 लाख रुपये का दुर्घटना बीमा मुफ्त में मिलेगा।
- असंगठित क्षेत्र के लिए पेंशन योजना।
अभी जो खबरें छन कर बाहर आ रही हैं, उनके अनुसार ऐसे खातेदारों के क्रेडिट इतिहास की छह या 12 महीने समीक्षा की जायेगी। उसके बाद ही उनको 5,000 रुपये के ओवरड्राफ्ट की सुविधा मिलेगी। इस अभियान में निजी क्षेत्र की भी मदद ली जायेगी। आईटी कंपनियाँ और कॉर्पोरेट सेक्टर सफेद रंग के एटीएम लगायेंगे। सरकारी अधिकारियों का मानना है कि इससे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिलेगा। नॉन-बैंकिंग फाइनेंशियल कंपनियों को भी इस मिशन में शामिल किये जाने की पूरी संभावना है।
इस वित्तीय समावेशन के लिए 1,000 करोड़ रुपये का गारंटी फंड बनाया जायेगा। इसकी जिम्मेदारी नाबार्ड की होगी। इस फंड को कोई बजटीय समर्थन नहीं मिलेगा। इन खातों में संभवत: बैंक रेट से 3% अधिक ब्याज मिलेगा। इसमें से 1% ब्याज क्रेडिट गारंटी फंड और 1% ब्याज बैंक मित्रों को मिलेगी, जो ऐसे खातों की देखभाल करेंगे। केंद्र सरकार के वित्तीय सेवा सचिव जी.एस. संधु के मीडिया में आये बयानों के अनुसार ऐसे तीन करोड़ खाते शहरों में और 12 करोड़ खाते ग्रामीण क्षेत्रों में खोले जायेंगे। अतिरिक्त सचिव स्नेहलता श्रीवास्तव के अनुसार ओवरड्राफ्ट की सुविधा 25,000 रुपये तक हो सकती है। ओवरड्राफ्ट सुविधा पाने से पहले खातेदार की वित्तीय साक्षरता ट्रेनिंग को अनिवार्य बनाया जायेगा। इस वित्तीय समावेशन की खास बात यह है कि ऐसे खातेदारों को 5,000 रुपये का ओवरड्राफ्ट दिया जायेगा, कर्ज नहीं। इसके लिए कोई भी सिक्योरिटी खातेदार को नहीं देनी होगी।
अभी देश की 40% आबादी बैंकिंग सुविधाओं से वंचित है। सरकार की मंशा है कि हर परिवार के दो सदस्यों के खाते खोले जायें। इनमें ओवरड्राफ्ट की सुविधा दी जाये। यानी 15 करोड़ ऐसे खातेदारों को 5,000 रुपये के ओवरड्राफ्ट की सुविधा दी जाती है, तो यह रकम 75,000 करोड़ रुपये बैठती है। अनर्जक आय से जुझ रहे सरकारी बैंक इस नये बोझ को कितना झेल पायेंगे? लगता है कि इसकी चिंता क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज और रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के लिए छोड़ दी गयी है।
मोदी की संपूर्ण वित्तीय समावेशन की इस अति महत्वकांक्षी योजना में कई व्यावहारिक दिक्कतें और भी हैं। मार्च 2013 तक देश में 1.82 करोड़ ऐसे खाते खोले गये थे, जिनमें 80% ऐसे खाते निष्क्रिय (डॉरमेंट) हैं, यानी खाते का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। 15 करोड़ लोगों को वित्तीय साक्षरता देने के लिए विशाल और जिम्मेदार तंत्र चाहिए। क्या अक्षम सरकारी बैंक जमीनी स्तर पर इसे अमली जामा पहना पायेंगे? क्या सरकारी बैंकों के पास इस महत्वाकांक्षी योजना को पूरा करने के लिए पर्याप्त मानव संसाधन है?
बहरहाल, देश में अभी तकरीबन 1.15 लाख शाखाएँ और 1.6 लाख एटीएम हैं। इनमें गाँवों में 43,962 बैंक शाखाएँ और 23,334 एटीएम हैं। देश के तकरीब 50,000 गाँवों में टेलीफोन सुविधा उपलब्ध नहीं है और 23,000 गाँवों में टेलीकॉम कनेटिविटी बेहद कम है। मालूम हो कि यह पूरी योजना तकनीकी रूप से टेलीकॉम सेक्टर पर ही टिकी है। इंदिरा गांधी ने भी सरकारी बैंकों का राजनीतिक उद्देश्य के लिए ऐसे ही बेजा इस्तेमाल किया था। इससे इन बैंकों का भट्टा बैठ गया था। यह बात ज्यादा पुरानी नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी को भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन की यह उक्ति अच्छी नहीं लगेगी कि लोलुप राजनीतिज्ञ और चिरकुट पूँजीपति अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बड़ी बाधाएँ हैं, जो नागरिकों के अवसरों को कुचल देते हैं, आर्थिक विकास को अवरुद्ध कर देते हैं और देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने को कमजोर करते हैं।
(देश मंथन, 14 अगस्त 2014)