डॉ वेद प्रताप वैदिक, राजनीतिक विश्लेषक :
इंदौर से लगे हुए शहर महू के पास एक गाँव है, जिसका नाम है- सीतापट! इस गाँव में कुल एक हजार लोग रहते हैं। इनमें से आठ सौ उच्च जाति के हैं और 200 दलित!
इन दलितों के साथ जो बर्ताव हो रहा है, उसे देखकर किसी भी भारतीय का माथा शर्म से नीचे झुक जायेगा। इन दलितों को न तो सरकारी नल का पानी मिल पा रहा है, न गाँव की कोई चक्की इनका आटा पीसने को तैयार है और न ही गाँव का कोई दुकानदार इन्हें राशन बेचने को तैयार है।
वे अपनी प्यास बुझाने के लिए आस-पास के नालों और नहरों से पानी खींचकर ले आते हैं, आटा पिसाने के लिए उन्हें दूर-दराज के गाँवों में जाना पड़ रहा है और अनाज खरीदने के लिए भी! ऊँची जातियों ने डंडे के जोर पर यह नियम लागू कर दिया है कि सीतापट के दलितों को जो कोई उक्त सुविधाएँ मुहय्या करवायेगा, उस पर पाँच हजार रुपये का जुर्माना किया जायेगा।
यह सब क्यों हो रहा है? यह इसलिए हो रहा है कि कावड़-यात्रा से लौटकर सीतापट की दलित महिलाओं ने गाँव के राम मंदिर के शिवलिंग पर जल चढ़ाना चाहा था। लेकिन पुजारी ने मना कर दिया। दलितों ने इस बात की शिकायत जिलाधीश और अन्य अधिकारियों से कर दी। इसी बात से नाराज होकर सीतापट के उच्च वर्णीय लोगों ने यह अत्याचार शुरू कर दिया।
यों तो होना चाहिए था कुछ उल्टा ही। गाँव के उस पुजारी और पंचायत के अधिकारियों को तुरंत गिरफ्तार किया जाना चाहिए था और उन्हें कड़ा दंड दिया जाना चाहिए था लेकिन देखिए कि उस महू के गाँव में क्या हो रहा है, जिस महू में डॉ. भीमराव आंबेडकर पैदा हुए थे। आंबेडकर के नाम पर महू में हर साल बड़ा उत्सव होता है। हजारों लोग और नेतागण उसमें शामिल होते हैं लेकिन अस्पृश्यता का आलम वहाँ आज भी वैसा ही है, जैसा कि 100-200 साल पहले था।
हम लोग सिर्फ राजनीतिक दृष्टि से आजाद हुए हैं। हमारी सामाजिक गुलामी ज्यों की त्यों बनी हुई है। आश्चर्य है कि इंदौर-जैसे प्रबुद्ध शहर के लोग भी सोये हुए हैं। एक सप्ताह हो गया, इस अत्याचार को चालू हुए लेकिन न तो कोई गांधीवादी, न कोई आर्यसमाजी, न कोई संघी, न कोई कांग्रेसी, न कोई समाज-सुधारक अभी तक सीतापट गया। किसी ने भी उन अज्ञानी सवर्णों को समझाने की कोशिश भी नहीं की।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने आज ही कहा है कि सच्चा हिंदुत्व इसी बात में निहित है कि समस्त हिंदू एक बराबर माने जायें। उनमें से भेद-भाव समाप्त हो। क्या यह मानसिक गुलामी सिर्फ कानून से रुक सकेगी? कानून तो थोड़ा-बहुत सहारा लगा सकता है। यह काम तो तब पूरा होगा, जब हम समाज की मनोदशा बदलेंगे।
(देश मंथन, 19 अगस्त 2014)