राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक, निवेश मंथन
चीनी राष्ट्रपति झी जिनपिंग के पहले भारत दौरे के लिए मोदी सरकार बेताब है।
चीनी राष्ट्रपति का दौरा मोदी के जन्मदिन से ठीक एक दिन पहले 16 सितंबर से गुजरात में शुरू होगा। खुद प्रधानमंत्री मोदी उनकी अगवानी के लिए मौजूद रहेंगे। दिलचस्प बात यह है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी का यह पहला गुजरात दौरा होगा। मोदी सरकार को इस दौरे से निवेश की भारी उम्मीदें हैं। कहना न होगा कि मोदी के अनेक सपने चीनी राष्ट्रपति के दौरे की उपलब्धियों पर टिके हुए हैं। मोदी और उनके सिपहसालारों को पूरा विश्वास है कि जापान से भी ज्यादा निवेश की घोषणा चीनी राष्ट्रपति इस यात्रा के दौरान कर सकते हैं।
हाल में मोदी के जापान दौरे के बाद जापान ने आगामी पाँच सालों में भारत में 35 अरब डॉलर के निवेश की घोषणा की है। जानकार मानते हैं कि जापान से बढ़ते संबंधों और दोस्ती को देख कर चीन भारत में ज्यादा-से-ज्यादा निवेश की घोषणा कर सकता है।
चीनी राष्ट्रपति के दौरे के बाद मोदी अमेरिका को साधने जायेंगे। लगता है सितंबर महीने में ही मोदी जापान, चीन और अमेरिका से आगामी पाँच-सात सालों में दस लाख करोड़ रुपये के निवेश का पुख्ता बंदोबस्त कर लेंगे।
चीन से ज्यादा-से-ज्यादा निवेश के लिए मोदी सरकार की वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण पिछले तीन महीनों में दो बार चीन हो आयी हैं। मोदी के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल भी हाल ही में चीन से लौट कर आये हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए मोदी भी चीन की यात्रा कर चुके हैं। वहाँ उनकी छवि आर्थिक सुधारों के कड़े हिमायती और सत्तावादी नेता की है, जो चीन की कार्यशैली के अनुरूप है। शायद यही वजह है कि चीनी राष्ट्रपति झी जिनपिंग अपनी भारत यात्रा गुजरात से शुरू करेंगे। अभी यह साफ नहीं हो पाया है कि चीनी राष्ट्रपति मोदी के गाँव और वडनगर जायेंगे या नहीं। वडनगर जाने के लिए मोदी ने विशेष आग्रह किया है।
पूरी उम्मीद है कि इस यात्रा के दौरान चीन दो औद्योगिक पार्क बनाने की विधिवत घोषणा करे। इनमें से एक पार्क महाराष्ट्र में और दूसरा गुजरात में होगा। इन दोनों पार्कों पर चीन पाँच-सात अरब डॉलर का निवेश करेगा। इन पार्कों के निर्माण से मोदी की मेक इन इंडिया की मुहिम को पंख लग सकते हैं। वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण को पूरा विश्वास है कि इन पार्कों के निर्माण से भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा कम होगा, जो अभी 35 अरब डॉलर का है।
वाराणसी और क्योटो के समझौते की तर्ज पर चीन भी महानगरों और राज्यों के बीच सहयोग की घोषणा इस दौरे में कर सकता है। मुंबई-शंघाई और गुजरात और चीन के दक्षिणी राज्य गुआन डांग के बीच सहयोग परियोजना शुरू की जा सकती है।
इसके अलावा भारत में बुलेट ट्रेन, रेलवे लाइनों को उन्नत बनाने और रेलवे प्लेटफॉर्मों को आधुनिक बनाने के लिए दोनों देशों के बीच सहयोग और निवेश का नया अध्याय शुरू होगा, जो पिछले 60 सालों से संबंधों की धुरी को बदल सकता है। इस बात के साफ संकेत हैं कि छह मार्गों पर बुलेट ट्रेन के लिए चीन तकनीक और वित्त मुहैया करा सकता है। इनमें दिल्ली-कोलकाता, दिल्ली-मुंबई जैसे मार्ग शामिल हैं।
जापान पहले ही मुंबई-अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन चलाने के लिए तकनीक देने की घोषणा कर चुका है। बुलेट ट्रेनों की स्पर्धा में चीन जापान को पटखनी देना चाहता है। बुलेट ट्रेनों का सबसे बड़ा संजाल चीन में है। तुर्की, वेनेजुएला और अर्जेंटीना में चीन जापान, जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों को पछाड़ कर अनुबंध हथिया चुका है। इसके अलावा चीन अमेरिका, रूस, सऊदी अरब, ब्राजील और म्यांमार में भी हाई-स्पीड ट्रेनों के अनुबंध हथियाने की फिराक में है।
दिलचस्प बात यह है कि चीन ने हाई-स्पीड ट्रेनों की तकनीक जापान और जर्मनी से ही ली थी। पर चीनी इंजीनियरों ने इस तकनीक का देसीकरण करके प्रति किलोमीटर लागत में जापान और जर्मनी को धराशायी कर दिया। एक बुलेट ट्रेन चलाने पर 70,000 करोड़ रुपये तक का खर्च आता है, यानी आगामी सालों में चीनी निवेश जापान से कई गुणा ज्यादा होगा। पर मूल सवाल अभी भी बना हुआ है कि क्या भारत की 80% जनता बुलेट ट्रेन का किराया वहन कर पायेगी? बुलेट ट्रेन का प्रति किलोमीटर किराया 5-6 रुपये से कम नहीं होगा।
एक तीर दो खिलाड़ी
मोदी चीन की तरक्की से चकित हैं। वे चीन के रास्ते से देश में उत्पादन (मैन्युफैक्चरिंग) क्रांति लाना चाहते हैं। चीन ने अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए अपने दरवाजे खोल दिये थे, जिससे वहाँ उत्पादन क्षेत्र में जबरदस्त इजाफा हुआ। कम लागत के कारण अमेरिकी कंपनियों ने चीन को अपना उत्पादन केंद्र (मैन्युफैक्चरिंग हब) बना लिया। लेकिन अब चीन में श्रम लागत अधिक हो चुकी है। इसलिए चीन अपनी अर्थव्यवस्था को मूल्यवर्धित (वैल्यू ऐडेड) और उच्च तकनीक वाली अर्थव्यवस्था बनाना चाहता है। पर साथ ही चीन कम लागत की अर्थव्यवस्था को भी नहीं छोड़ना चाहता है, जिसके कारण चीन का कायापलट हुआ है। अब कम लागत के उत्पादन के लिए वह भारतीय जमीन का इस्तेमाल करना चाहता है, जहाँ श्रम लागत चीन की अपेक्षा कम है और अर्द्धकुशल श्रमिकों का बाहुल्य है। वैसे भी विश्व की चार सबसे तेज उभरती अर्थव्यवस्थाओं में भारत सबसे निर्धन है। भारत में औद्योगिक पार्क बनाने के पीछे चीन की मंशा साफ समझी जा सकती है। इन पार्कों को विशेष दर्जा प्राप्त होगा और तमाम किस्म की सरकारी छूट भी मिलेगी। यहाँ चीन उन तमाम वस्तुओं का उत्पादन करेगा, जो चीन में स्पर्धी नहीं रह गयी हैं। इससे मोदी का मेक इन इंडिया का सपना साकार हो सकता है।
वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण पूरी तरह आश्वस्त हैं कि इससे चीन और भारत का व्यापार भी बढ़ेगा और चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा भी कम होगा। वर्ष 2013-14 के दौरान दोनों देशों के बीच में 65.85 अरब डॉलर का व्यापार हुआ। इसमें चीन की हिस्सेदारी तकरीबन 51 अरब डॉलर है और उसका व्यापार आधिक्य 35 अरब डॉलर का है। सरल शब्दों में कहें भारत चीन से 51 अरब डॉलर का आयात करता है और उसे 14 अरब डॉलर का निर्यात करता है।
पर मोदी सरकार को उम्मीद है कि इन पार्कों और भारतीय सूचना तकनीक एवं दवा कंपनियों की चीनी बाजार में अधिक पहुँच से यह व्यापार घाटा कम होगा। पर चीनी और भारतीय कहानी में एक बुनियादी अंतर है। चीन ने अपना बुनियादी ढाँचा अपने दम पर खड़ा किया है और भारत बुनियादी ढाँचे को विकसित करने के लिए पूरी तरह से विदेशी पूँजी निवेश पर आश्रित है। जाहिर है कि इसके परिणाम भी चीन से अलग होंगे। पिछले 14 वर्षों में चीन ने भारत में 41 करोड़ डॉलर का निवेश किया है, यानी केवल 2.9 करोड़ डॉलर प्रति वर्ष का औसत है। पर अब चीनी निवेश में लंबी छलाँग की बारी है, क्योंकि चीन के पास 3100 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है, जो भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से लगभग डेढ़ गुणा ज्यादा है। (देश मंथन, 12 सितंबर 2014)