कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार :
कहानी बिलकुल फिल्मी लगती है, लेकिन फिल्मी है नहीं। कहानी बिलकुल असली है।
एक औरत की कहानी। एक आम गरीब औरत की कहानी। मिस्र में एक गरीब औरत एक-दो नहीं, बल्कि पूरे तैंतालीस सालों तक पुरुषों जैसी बन कर रही। पुरुषों की तरह कपड़े-लत्ते, वैसे ही उठना-बैठना, वह पुरुषों के झुंड में मेहनत-मजदूरी करती रही।
कभी ईंट-भट्टों पर, कभी खेतों में, कभी ईंट-गारा ढोने का काम तो कभी सड़कों पर बूट-पालिश। वजह यह कि उसके पति की मौत तब हो गयी थी, जब वह गर्भवती थी। बेटी को जन्म देने के बाद उसके सामने समस्या थी घर चलाने और बच्चे को पालने की। उसके पास आमदनी का कोई और रास्ता नहीं था।
भूखी निगाहों से कैसे बचती?
पढ़ी-लिखी वह थी नहीं। मेहनत-मजदूरी के सिवा वह कुछ और कर नहीं सकती थी और मिस्र का समाज ऐसा कि महिला हो कर उसके विकल्प बहुत सीमित थे। घरों में काम करे या फुटपाथ पर टोकरा लगा कर कुछ बेचे, लेकिन इससे गुजारा चल पाना आसान नहीं था। महिलाओं के लिए तो कहीं कोई ऐसी अलग से रोजगार की व्यवस्था तो है नहीं। कम उम्र में ही विधवा हो गयी। काम के लिए बाहर निकलती तो क्या वह पुरुषों की भूखी निगाहों से बच पाती? और क्या वह शोषण से बच पाती? क्या ‘मदद’ के नाम पर उस पर तरह-तरह के दबाव नहीं पड़ते, उसे छला नहीं जाता, क्या उसे जीने लायक पैसे कमाने के लिए कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती?
सीसा के पास और रास्ता क्या था?
ये सारे सवाल सीसा अबू दोह (अरबी में इसका सही उच्चारण क्या है, पता नहीं लग पाया. अल-अरबिया की अरबी वेबसाइट पर जैसा लिखा देखा, उसी आधार पर हिन्दी में नाम लिखने की कोशिश की है, लेकिन जरूरी नहीं कि यह उच्चारण सही हो) नाम की इस महिला के सामने थे और उसने इसका एक ही हल निकाला कि वह पुरुषों के बीच पुरुष बन कर रहे और तैंतालीस साल तक वह ऐसे ही रही। सीसा अबू दोह की यह कहानी एक बार फिर उन सारे सवालों को खड़ा कर देती है, जिनके जवाब हम आज तक नहीं ढूँढ पाये हैं। समाज चाहे कोई हो, धर्म चाहे कोई हो, संस्कृति चाहे कोई हो, देश चाहे कोई हो, हर समाज में स्त्री के सामने ऐसे सवाल और ऐसी समस्याएँ, कहीं कम या ज्यादा, कहीं कठिन तो कहीं बहुत कठिन तो कहीं असम्भव की शक्ल में उपस्थित होती हैं।
चाहे पश्चिम का आधुनिक समाज हो, जहाँ बहुत-सी सांस्कृतिक और तथाकथित नैतिक बेड़ियाँ और रूढ़ियाँ नहीं हैं, वहाँ भी पुरुषों के बीच महिलाओं का काम कर पाना न तो आसान है और न निरापद! तो फिर उन समाजों की स्थिति का अन्दाजी बखूबी लगाया जा सकता है, जहाँ महिलाओं को इज्जत, नैतिकता, शर्म-हया, चरित्र, धर्म, संस्कृति और संस्कारों की काल-कोठरियों में बन्द रखा जाता है। इनमें से कुछ समाजों ने भले ही महिलाओं को परदे के तम्बुओं से बाहर निकल कर चलने-फिरने की इजाजत दे रखी हो, लेकिन पुरुषों की तय की गयी बहुत-सी लक्ष्मण रेखाएँ ही महिलाओं के लिए मर्यादा की परिभाषाएँ तय करती हैं।
हैरान कर देनेवाला जीवट
ऐसे में सीसा अबू दोह की कहानी, उसका संकल्प, उसका जीवट सचमुच हैरान कर देने वाला है, जो मिस्र के उस रूढ़िग्रस्त इसलामी समाज से आती है, जहाँ महिलाओं के काम करने को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता। हालाँकि एक अनुमान के मुताबिक वहाँ करीब 30 प्रतिशत गरीब महिलाएँ कामकाजी हैं और उन्हे अपना परिवार पालने के लिए फुटपाथों पर सामान बेचने से लेकर घरों में काम कर गुजारा चलाना पड़ता है। इनमें से ज्यादातर ऐसी हैं, जिनके पति या तो मर गये, या पति कमाने लायक नहीं रह गये, या वे तलाकशुदा हैं या पतियों ने उन्हें छोड़ दिया, लेकिन इस लाचारगी के बावजूद मिस्र का समाज इन्हें अच्छी नजर से नहीं देखता। कामकाजी महिलाओं पर पड़ोसी ताना मारते हैं। क्योंकि यौन-उत्पीड़न और महिला- तस्करी के मामले में मिस्र का रिकॉर्ड काफी खराब है और दूसरी तरफ, महिलाओं की ‘चारित्रिक शुद्धता’ को लेकर आग्रह इतना दकियानूसी है कि आज भी करीब 80-85 प्रतिशत से ज्यादा महिलाओं को खतने की परम्परा से हो कर गुज़रना पड़ता है! मिस्र में महिलाओं के इस खतने पर 2007 में ही कानूनी पाबन्दी लग चुकी है, लेकिन परम्पराओं की जकड़ इतनी गहरी है कि किसी को जेल और सजा की परवाह नहीं। अस्पतालों में ये खतने हो रहे हैं, पढ़े-लिखे डॉक्टर धड़ल्ले से ये खतने कर रहे हैं। धार्मिक मिथ, रूढ़ियाँ और परम्पराएँ विज्ञान और पढ़ाई-लिखाई पर कितनी भारी पड़ सकती हैं, यह इस बात का सबूत है। यह खतना क्यों किया जाता है? क्योंकि ऐसा मानते हैं कि इस खतने से महिलाओं की यौनेच्छा मन्द पड़ जाती है और वह विवाह के पहले तक ‘शुद्ध’ व ‘पवित्र’ बनी रहती है! यानी मकसद यह कि विवाह के लिए पुरुष को ‘पवित्र’ स्त्री मिले!
पुरुष की तरह रही, तो कोई लाँछन नहीं लगा!
अब आप समझ सकते हैं कि मिस्र के ऐसे समाज में जन्मी सीसा के लिए पति की मौत के बाद क्या रास्ता बच गया होगा? उसने एक चुप बगावत की, क्योंकि खुल कर बगावत करना उसके लिए सम्भव नहीं था। समाज में कौन उसका साथ देता? वह ‘पुरुष’ बन गयी! किसी को पता नहीं चला कि वह महिला है। इसलिये वह पुरुषों के बीच निरापद हो कर काम करती रही, कोई मर्यादा नहीं टूटी, उस पर समाज, संस्कृति, धर्म, चाल-चलन की नैतिकताएँ और सीमाएँ छलाँगने का कोई लाँछन नहीं लगा। क्यों? सिर्फ इसलिये कि लोगों की निगाह में वह एक पुरुष थी और कुछ भी असामान्य नहीं कर रही थी! लेकिन एक महिला हो कर पुरुषों के बीच उसका काम कर पाना कतई आसान नहीं होता, यह आसानी से समझा जा सकता है। बहरहाल, आज उसका सम्मान किया जा रहा है!
सीसा अबू दोह ने बहुत तीखे सवाल उठाये हैं, मिस्र की समाज व्यवस्था पर जहाँ महिलाएँ तमाम बन्दिशों में जीती हैं और केवल मिस्र ही नहीं, बल्कि उसके सवाल दुनिया के समूचे इसलामी समाज से हैं कि बताओ कि अगर किसी महिला को उसका परिवार छोड़ दे, उसके पास जीने का कोई सहारा न हो, तो वह क्या करे? कैसे जीवन गुजारे? और ऐसी समाज व्यवस्था आखिर क्यों हो कि महिला को किसी पुरुष, किसी परिवार की छाँव, आश्रय, संरक्षण या यों कहें कि कैद में ही जीना अनिवार्य हो! कोई महिला अपनी जिन्दगी का फैसला खुद क्यों नहीं कर सकती, अपनी जिन्दगी अपनी मर्जी से क्यों नहीं जी सकती। उसे खूँटे में बाँध कर रखने का अधिकार पुरुषों को किसने दिया? इसलामी आबादी को सीसा के सवालों पर गम्भीरता से और नये सिरे से सोचना चाहिये। मुझे तो सीसा की कहानी और सवाल मलाला यूसुफजई की कहानी और सवालों से कहीं बड़े लगते हैं। मलाला की बहादुरी से सीसा की बहादुरी किसी मायने में कम नहीं। मलाला ने लड़कियों की शिक्षा और उसके बारे में तालिबानी इसलाम की सनकी सोच के सवाल पर दुनिया को झकझोर दिया तो सीसा ने पूरे इसलामी समाज में औरत की स्थिति, उसकी समस्याओं और कठिनाइयों को अपनी जिन्दगी की किताब के हवाले से सामने रखा।
पूरी दुनिया के लिए हैं सीसा के सवाल!
और सीसा के सवाल सिर्फ इसलामी समाज तक ही सीमित नहीं हैं। उसके सवाल दुनिया के हर समाज से हैं कि महिलाओं की सुरक्षा क्या है? क्या एक ऐसा समाज जिसमें महिलाएँ पूरी तरह स्वतंत्र हो कर अपने को सुरक्षित महसूस कर सकें या फिर वह पुरुषों की तथाकथित सुरक्षा के भीतर बँधी पड़ी रहें? चरित्र और संस्कारों की सारी अग्नि परीक्षाएँ केवल महिलाओं के सिए ही क्यों? महिला ही पुरुष की नाक का सवाल क्यों बनी रहे, पुरुष क्यों नहीं महिला के लिए नाक का सवाल हो? पुरुष महिलाओं को अपनी इज्जत की गठरी समझते हैं, इसीलिये जब उन्हें किसी दूसरे पुरुष की इज्जत उतारनी होती है तो वह उसकी माँ-बहन से नाता जोड़ने लगते हैं। मूल समस्या यहीं पर हैं। पुरुषों को लेकर गालियाँ क्यों नहीं बनती हैं, केवल महिलाओं को लेकर गालियाँ क्यों बनती हैं? हमारा समाज अगर इसी एक सवाल का जवाब ढूँढ ले तो महिलाओं के प्रति हमारे नजरिये में ऐसे ही बहुत सारे बदलाव हो जायेंगे। शुक्रिया सीसा अबू दोह, दुनिया को आइना दिखाने के लिए!
(देश मंथन, 23 मार्च 2015)