बीत गये 49 दिन,लापता है जन लोकपाल

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संदीप त्रिपाठी :

दिल्ली में आप की सरकार बने और अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्री बने आज (4 अप्रैल,(शनिवार) 50वाँ दिन है। पिछली बार सरकार 49 दिन चली थी। तब अरविंद केजरीवाल ने यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया था कि विपक्ष जन लोकपाल पारित करने में सहयोग नहीं कर रहा है।

यानी अगर विपक्ष ने जन लोकपाल पारित कराने में केजरीवाल के मुताबिक सहयोग दिया होता तो 49 दिन बाद जन लोकपाल पारित हो जाता और दिल्ली से भ्रष्टाचार का नामोनिशाँ मिट गया होता।
केजरीवाल ने जन लोकपाल लागू करने के लिए जनता से पूर्ण समर्थन माँगा। जनता ने उम्मीद से आगे बढ़कर समर्थन दिया और विपक्ष को 70 सदस्यीय विधानसभा में 4.3 प्रतिशत से भी कम यानी महज तीन सीटें दीं। आप को 95.7 प्रतिशत सीटें मिलीं। विपक्ष के असहयोग का लफड़ा ही खतम। केजरीवाल और उनकी टीम दस दिन में लोकपाल पारित कराने की बात कह रही थी। आज 50वाँ दिन बीतेगा, केजरीवाल जन लोकपाल पर खामोश क्यों हैं? सवाल यह है कि क्या केजरीवाल जन लोकपाल पारित न करा पाने के लिए फिर इस्तीफा देंगे? पिछली बार अपने इस्तीफे से चार दिन पहले 10 फरवरी, 2014 को केजरीवाल ने कहा था कि जन लोकपाल पारित कराने के लिए उन्हें 100 बार इस्तीफा देना पड़ेगा तो देंगे। इस बार वे जन लोकपाल को पारित न करा पाने के लिए किस को दोषी बनायेंगे? यह भी सोचना पड़ेगा कि क्या जन लोकपाल पर प्रशांत भूषण ने कॉपीराइट तो नहीं करा रखा है, जिसकी वजह से केजरीवाल इसे पारित करा पाने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं।
इन 49 दिनों में जन लोकपाल पर कोई सुगबुगाहट तक नहीं हुयी, लेकिन आइये, देखते हैं, इन 49 दिनों में अरविंद केजरीवाल की उपलब्धियाँ क्या रहीं, क्या-क्या रिकॉर्ड अपने नाम किये?
बगावत
पिछले 49 दिन के कार्यकाल में अरविंद केजरीवाल को सिर्फ लक्ष्मी नगर से आप विधायक विनोद कुमार बिन्नी की बगावत झेलनी पड़ी थी। वही बिन्नी जिन्होंने पार्षद रहते हुए मुहल्ला सभा की अवधारणा को अपने क्षेत्र में लागू किया था और बिन्नी के आप में शामिल होने पर इसी मुहल्ला सभा की अवधारणा को आप ने अपनी आधारभूत अवधारणा के रूप में स्थापित किया था। तब पहले यह बताया गया कि बिन्नी मंत्री पद न मिलने से आरोप लगा रहे हैं। फिर यह बताया गया कि बिन्नी लोकसभा का टिकट माँग रहे थे जो पार्टी के इस नियम कि किसी विधायक को लोकसभा का टिकट नहीं दिया जायेगा, के विपरीत था। यह दीगर है कि लोकसभा चुनाव में आप के टिकट पर अरविंद केजरीवाल भी लड़े, राखी बिड़लान भी लड़ीं जो उस वक्त विधायक थीं। उस वक्त पार्टी के नियम का हवाला नहीं दिया गया।
अब इस बार के 49 दिन में पार्टी के संरक्षक शांति भूषण, पार्टी के लोकपाल एडमिरल रामदास, पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता योगेंद्र यादव, पार्टी की अनुशासन समिति के अध्यक्ष प्रशांत भूषण, पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की एकमात्र महिला सदस्य क्रिस्टीना सैमी, पार्टी के संसदीय दल के नेता धर्मवीर गाँधी के साथ-साथ पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य मयंक गाँधी, प्रो. आनंद कुमार, अजीत झा, राकेश सिन्हा, विशाल लाठे, अंजलि दमानिया, आप की राजस्थान इकाई के प्रवक्ता डॉ. राकेश पारिख, बिहार के सह पर्यवेक्षक उमेश सिंह, पूर्व विधायक राजेश गर्ग, हरीश खन्ना, अल्पसंख्यक मोर्चा के महामंत्री शाहिद आजाद और न जाने कितने और नेता केजरीवाल के विरोधियों की श्रेणी में रखे जा चुके हैं। पिछली बार के एक बिन्नी के मुकाबले इस बार न जाने कितने नाम।
टकराव
पिछली बार के 49 दिनों में केजरीवाल ने सिर्फ एक मोर्चे पर टकराव मोल लिया था। वह था खिड़की एक्सटेंशन कांड में दिल्ली के तत्कालीन विधि मंत्री सोमनाथ भारती को बचाने के लिए दिल्ली पुलिस के खिलाफ किया गया धरना जो दिल्ली पुलिस के दो-तीन छोटे कर्मचारियों को हटाने के बाद खत्म हुआ। दूसरा टकराव उन्होंने जन लोकपाल के मुद्दे पर उपराज्यपाल से लिया था। उपराज्यपाल कानूनी परामर्श के खिलाफ जाने के पक्ष में नहीं थे।
इस बार के 49 दिन में पार्टी के भीतर विभिन्न धुरंधरों से टकराव मोल लेने के अलावा पारदर्शिता को सबसे बड़ा सिद्धांत बताने वाले केजरीवाल ने सबसे पहले मीडिया से टकराव मोल लिया और दिल्ली में सचिवालय में मीडिया का प्रवेश प्रतिबंधित किया। यानी दिल्ली सरकार के बारे में मीडिया सिर्फ वही छापेगी जो केजरीवाल छपवाना चाहते हैं। फिर केजरीवाल ने मुख्य सचिव की नियुक्ति के संदर्भ में केंद्र सरकार से टकराव का रास्ता अपनाया। दरअसल पहले केजरीवाल ने तीन नाम दिये और बाद में चौथा नाम आगे कर दिया। यह चौथा नाम एक कनिष्ठ अधिकारी का था, जिसे मुख्य सचिव पद पर नियुक्ति नहीं दी जा सकती थी। केजरीवाल ने इस पर केंद्र से टकराव मोल ले लिया था। फिर केजररीवाल के निशाने पर आये उपराज्यपाल। पहले केजरीवाल ने पुलिस और जमीन से जुड़ी फाइलें मुख्यमंत्री दफ्तर से होकर ही उपराज्यपाल के दफ्तर भेजे जाने का निर्देश दिया। इसके बाद केजरीवाल ने उपराज्यपाल को बिना बताये एस.एन. सहाय को कार्यवाहक मुख्य सचिव नियुक्त कर दिया। उपराज्यपाल कार्यालय ने इस मामले में सख्त रुख अपनाया। फिर केजरीवाल ने दिल्ली के नगर निगमों से टकराव मोल लिया। दिल्ली सरकार के पास गैरयोजना मद में 1800 करोड़ रुपये पड़े थे, जिनका इस्तेमाल न हो पाने के कारण वे 31 मार्च के बाद लौट गये, लेकिन केजरीवाल ने निगमों को कर्मचारियों का वेतन देने के लिए उन्हें अनुदान या कर्ज तक देना गँवारा नहीं किया, जिससे सफाई कर्मचारी हड़ताल पर चले गये और पूर्वी दिल्ली तीन दिन तक गंदगी और कूड़े से बजबजाती रही। इसके बाद केजरीवाल ने दिल्ली विद्युत नियामक आयोग से टकराव मोल ले लिया। आयोग बिजली दरों की समीक्षा निर्धारित समय पर कर रहा है, लेकिन केजरीवाल इसे टालना चाहते हैं। आयोग के अधिकारियों का कहना है कि आयोग को अर्धन्यायिक दर्जा प्राप्त है और वे अपने काम करने के लिए स्वतंत्र हैं। केजरीवाल इसे अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं।
कुल मिलाकर केजरीवाल ने जिस बात के लिए अब तक किसी से टकराव नहीं मोल ली, वह है जन लोकपाल। यह वही जन लोकपाल है, जिसके लिए अप्रैल, वर्ष 2011 में इस देश में एक जनांदोलन उठ खड़ा हुआ था। यह वही जन लोकपाल है, जिसके चलते कांग्रेस के पाँवों के नीचे से सत्ता और जनाधार, दोनों खिसक गया। यह वही जन लोकपाल है, जिसे लागू करने के लिए जनता ने दिसंबर, वर्ष 2013 में सभी आकलनों-सर्वेक्षणों को धूल-धूसरित करते हुए एक नयी सी पार्टी आप को 70 में से 28 सीटें दे दी थीं। यह वही जन लोकपाल है जिसे पारित कराने में विपक्ष का सहयोग नहीं मिलने का आरोप जड़ते हुए केजरीवाल ने महज 49 दिन सरकार चलाने के बाद इस्तीफा दे दिया था। आज वह जन लोकपाल कहाँ है, जनता तलाश रही है, केजरीवाल खामोश हैं।
(देश मंथन 04 अप्रैल 2015)

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