अब नहीं सोचेंगे, तो कब सोचेंगे?

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कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार :

हाशिमपुरा और भी हैं ! 1948 से लेकर 2015 तक। कुछ मालूम, कुछ नामालूम ! जगहें अलग-अलग हो सकती हैं। वजहें अलग-अलग हो सकती हैं। घटनाएँ अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन चरित्र लगभग एक जैसा।

सरकारों का रवैया भी एक जैसा। राजनीतिक गुल-गपाड़ा भी एक जैसा। जाँच और इनसाफ की उम्मीदों का हश्र भी लगभग एक जैसा। समय बदला, बदलता रहा, लेकिन 1948 में हैदराबाद से लेकर 1987 में हाशिमपुरा, 2000 में मलोम से लेकर 2015 में शेषाचलम तक इन कहानियों में कुछ नहीं बदला!

बीस कत्ल, दो कहानियाँ

शेषाचलम के रक्तचन्दन के जंगल की जमीन बीस लकड़हारों के खून से लाल हो गयी। लकड़हारे तमिलनाडु के थे। उन्हें मारा आन्ध्र पुलिस की टास्क फोर्स ने। पुलिस की कहानी वही पुरानी है। उसने करीब सौ लकड़हारों को रक्तचन्दन के पेड़ काटते देखा, उन्हें चेतावनी दी, तो उन्होंने पत्थरों और दराँतियों से पुलिस पर हमला कर दिया। पुलिस को ‘आत्मरक्षा’ में गोली चलानी पड़ी! बीस लकड़हारे मारे गये। मौके से कुछ कुल्हाड़ियाँ, दराँतियाँ, कारतूसों के कुछ खोखे और चार देसी कट्टे मिले हैं! बताइए पत्थरों और दराँतियों और अगर वाकई लकड़हारों के पास देसी कट्टे भी थे, तो भी उनसे पुलिस पर ऐसा क्या जानलेवा हमला हो सकता है कि पुलिस को ऐसा कत्लेआम करना पड़े? पुलिस और लकड़हारों में यह कथित मुठभेड़ दो जगहों पर हुयी। दोनों जगह वही एक कहानी कैसे? और पुलिस की कहानी के उलट एक और कहानी सामने आयी है कि कुछ लकड़हारों को तो पुलिस ने एक बस से पकड़ा था। उनका एक साथी पहचान में आने से बच गया था क्योंकि वह एक महिला के साथ की सीट पर बैठा था।

पुलिस और सुरक्षा बल क्यों करते हैं ऐसा?

जाहिर है कि मामले की जाँच होगी। अदालत बैठेगी। सुनवाई होगी। जाने कितने साल लगेंगे इस सब में। और फिर किसी को सजा मिल पायेगी या नहीं, अपराधियों की शिनाख्त हो पायेगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता। 28 साल लम्बी हाशिमपुरा की अदालती सुनवायी का अंजाम क्या रहा? यही न कि अपराधियों की शिनाख्त नहीं हो सकी! तो शेषाचलम में यही कहानी नहीं दोहरायी जायेगी, कौन कह सकता है? हाशिमपुरा में तो दंगा हुआ था, साम्प्रदायिकता का जहर सेना और पीएसी तक भी फैल गया, तो हैरानी नहीं, लेकिन शेषाचलम में तो कोई दंगा नहीं हुआ था। बात महज दो राज्यों के बीच थी। एक राज्य के स्कर, दूसरे राज्य की पुलिस! सच है कि चन्दन की तस्करी के लिए वह इलाका बदनाम है, खूँखार चन्दन माफिया का वहाँ आतंक है, लेकिन माफिया को आतंकित करने के लिए निहत्थे लकड़हारों का कत्लेआम कैसे जायज ठहराया जा सकता है?

पुलिस और सुरक्षा बल ऐसा करते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि उनके खिलाफ कभी कोई कार्रवाई या तो नहीं होगी, या नहीं हो पायेगी। अकसर सत्ता तंत्र यही कह कर कार्रवाई नहीं होने देता कि इससे पुलिस बलों का मनोबल टूटेगा और वह दंगाइयों, आतंकवादियों, उग्रवादियों और माफियाओं के खिलाफ कैसे लड़ पायेंगे? और अगर मजबूरी में मामला अदालतों तक पहुँचा भी तो सालों साल चले जाँच कमीशनों और फिर उसके बाद की अदालती कार्रवाई में गवाह तोड़-मरोड़ कर, सबूत मिटा कर सबको बचा लिया जायेगा! इसलिए यह सिलसिला न कभी रुका है और न कभी रुकेगा, सरकार चाहे कोई हो, सत्ता चाहे किसी राजनीतिक दल के पास हो!

हैदराबाद की रिपोर्ट, जो कभी छपी नहीं

वाकया 1948 का है। हैदराबाद के भारत में विलय के लिए निजाम के खिलाफ ‘पुलिस कार्रवाई’ में कुछ ही दिनों के संघर्ष के बाद निजाम के रजाकारों ने घुटने टेक दिये। यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन निजाम के पतन के बाद हैदराबाद और आसपास के जिलों से छन-छन कर जो खबरें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक पहुँची, उससे वह हैरान रह गये। उन्होंने काँग्रेस के पंडित सुन्दरलाल के नेतृत्व में एक जाँच टीम वहाँ भेजी। टीम की रिपोर्ट के मुताबिक ‘पुलिस कार्रवाई’ और उसके बाद की घटनाओं में पूरे राज्य में 27 से 40 हजार के बीच लोग मारे गये, कई जगहों पर सेना और सुरक्षा बलों के लोगों ने मुसलिम पुरुषों को पकड़-पकड़ कर बाहर निकाला और मौत के घाट उतार दिया। बीबीसी के मुताबिक इस रिपोर्ट को कभी प्रकाशित नहीं किया गया। पिछले दिनों कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के इतिहासकार सुनील पुरुषोत्तम ने यह रिपोर्ट ढूँढ कर निकाली, तब यह सब बातें सामने आयीं!

हैदराबाद और हाशिमपुरा की घटनाओं का एक अलग चरित्र है, लेकिन शेषाचलम के साथ-साथ मणिपुर, पंजाब और जम्मू-कश्मीर या कहीं भी ऐसी घटनाओं के पीछे पुलिस और सुरक्षा बलों का एक जैसा ही चेहरा बार-बार क्यों नजर आता है? 1995 में पंजाब में जसवन्त सिंह खालरा ने अमृतसर म्यूनिस्पैलिटी के रिकार्ड खँगाल कर यह भंडाफोड़ किया था कि पुलिस ने हजारों लाशों का खुफिया तरीके से ‘अन्तिम संस्कार’ किया था। इस भंडाफोड़ के कुछ दिनों बाद ही खालरा की हत्या हो गयी! दस साल बाद छह पुलिसकर्मियों को खालरा की हत्या के आरोप में सज़ा हुई! अन्दाज लगा सकते हैं कि उस दौर में ‘आतंकवाद के दमन’ के नाम पर कितने निर्दोष लोग वहाँ मारे गये होंगे और खालरा के भंडाफोड़ से पुलिस क्यों इतना परेशान थी कि उन्हें उनके घर से ‘उठवा’ कर उनकी हत्या करा दी गयी!

बस स्टाप पर फर्जी मुठभेड़!

इरोम शर्मिला का नाम तो आपने सुना ही होगा। 2000 में मणिपुर के मलोम में एक बस स्टाप पर असम राइफल्स के लोगों ने गोलियाँ चला कर दस निर्दोष लोगों को भून दिया। कहा गया कि यह सुरक्षाबलों और उग्रवादियों के बीच मुठभेड़ थी। बाद में हाइकोर्ट ने पाया कि कोई मुठभेड़ हुयी ही नहीं थी। इसी घटना के बाद से इरोम शर्मिला आफ्स्पा हटाने की माँग को लेकर अब तक संघर्ष कर रही हैं। अभी हफ्ते भर पहले ही तेलंगाना में पाँच कथित मुसलिम आतंकवादियों को पुलिस ने ‘मुठभेड़’ में मार डाला. पाँचों को हथकड़ियाँ लगी थीं और वह पुलिस की गाड़ी में ही अदालत ले जाये जा रहे थे। कहा गया कि उन्होंने पुलिस पर हमला कर दिया तो ‘आत्मरक्षा’ में पुलिस को गोली चलानी पड़ी।

इसके पहले सोहराबुद्दीन, तुलसी प्रजापति और इशरतजहाँ मुठभेड़ में पुलिस की कहानी पंक्चर हो चुकी है। इशरतजहाँ मामले में तो सीबीआई ने एक आइबी अफसर पर पूरी साजिश रचने का आरोप लगाया। यह अलग बात है कि अब इन मामलों में ‘क्लीन चिट’ मिलने लग गयी है। अभी पिछले साल दिल्ली में स्पेशल सेल ने जम्मू-कश्मीर के कथित आतंकवादी लियाकत शाह को पकड़ कर पूरी फर्जी कहानी रची, बाद में एनआइए की जाँच में इसका भंडाफोड़ हो गया।

पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल

ये तमाम घटनाएँ पुलिस की कार्यप्रणाली पर गम्भीर सवाल उठाती हैं। यह सही है कि आतंकवाद, नक्सलवाद, उग्रवाद, दंगाइयों, तस्करों, माफियाओं के खिलाफ पुलिस और सुरक्षा बलों को पूरी मुस्तैदी से कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए, उन पर किसी किस्म का कोई दबाव नहीं होना चाहिए, उन्हें अपने विवेक के आधार पर और परिस्थितियों के अनुसार तुरन्त फैसले लेने की आजादी होनी चाहिए, पुलिस और सुरक्षा बलों का मनोबल ऊँचा रहना चाहिए, लेकिन साथ ही यह भी जरूरी है कि फैसले किसी पूर्वग्रह से न लिये जायें, कोई फर्जीवाड़ा न किया जाये और इस बुनियादी उसूल का पालन किया जाये कि निर्दोष न मारे जायें और न जानबूझ कर गलत आरोपों में फँसाये जायें।

बरसों से हम पुलिस सुधारों की बात कर रहे हैं, लेकिन बस बात ही करते रहे हैं। पुलिस का काम कानून की रखवाली करना और उसका पालन कराना है, तो उस कानून को खुद भी मानने की पुलिस की जिम्मेदारी और जवाबदेही भी बनती है। एक न्यूनतम बुनियादी ईमानदारी और जवाबदेही के बिना कोई भी तंत्र सही काम नहीं कर सकता। मानवाधिकार आयोग या इस तरह के दूसरे तमाम उपकरण अब तक बेअसर ही साबित हुये हैं। इस पर हम अब नहीं सोचेंगे, तो कब सोचेंगे?

(देश मंथन, 13 अप्रैल 2015)

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