दलित हो तो दावत खिलाओ

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विकास मिश्रा, आजतक 

रामभरोसे दरवाजा खोलो, मैं नेता सुर्तीलाल। 

रामभरोसे – नेताजी आज गरीब के घर का रास्ता कैसे भूल गये। 

 सुर्तीलाल – तुम गरीब नहीं हो, तुम्हारे पास वोट की दौलत है। सारी बातें छोड़ो, मुझे खाना खिलाओ। मैं तुम्हारे घर खाना खाऊँगा, देखो बाहर कैमरा टीम भी आयी हुयी है, फोटो भी खिंचेगी। 

रामभरोसे – हुजूर मैं समझा नहीं, आप और मेरे घर खाना..। कोई खास बात सरकार..। 

सुर्तीलाल – खास बात यह है कि तुम दलित हो, मेरे लिए फलित हो, क्योंकि मैं नेता हूँ। तुम्हारे घर खाने से मुझे वोट मिलेंगे। चलो खाने पीने का इंतजाम करो

रामभरोसे – हुजूर, हमारा खाना आप खा पायेंगे, क्योंकि घर में कुछ भी खाने-पीने को नहीं है। बच्चे खेतों में चूहे पकड़ने गये हैं। हम लोग तो वही खाकर जिंदा हैं। 

सुर्तीलाल – बहाने मत बनाओ, दाल-रोटी और चावल सब्जी का इंतजाम करो।

रामभरोसे – हुजूर, 100 रुपये किलो दाल, 25 रुपये किलो आटा, 20 रुपये किलो आलू। इतनी महँगी चीज हम कहाँ से लायेंगे। हमारे घर तो तीज त्योहार पर भी इतना नहीं बनता। 

सुर्तीलाल – चलो पूड़ी-सब्जी ही खिलवा दो। 

रामभरोसे – सरकार क्यों गरीब का मजाक उड़ाते हैं, हमारे घरवालों ने तो बरसों से पूड़ी की शक्ल भी नहीं देखी। शायद आप गलत घर में आ गये हैं। आपको दलित के घर ही खाना है तो पड़ोस में दीना चाचा के घर चले जाइये। उनका बेटा कलक्टर है, घर में खाने-पीने का सब कुछ है। मेरी झोपड़ी में आपको क्या मिलेगा सरकार। 

सुर्तीलाल – नहीं, मुझे ऐसे दलित के घर खाना है, जो दिखने में दलित लगे। तुम्हारे बारे में पक्का पता करके आया हूँ। सुना है कि घीसू माधव* तुम्हारे ही खानदान के थे। 

रामभरोसे – हाँ हुजूर, हमारे परदादा थे घीसू और माधव। जुग जमाना बदला, लेकिन हमारी खानदानी हालत बिल्कुल वैसी ही है। हम पर रहम करो। 

सुर्तीलाल – रामभरोसे, झूठ मत बोलो, तुम्हारे पास पैसा है, सरकार ने कुछ तो दिया होगा, वही निकालो।

रामभरोसे – हाँ, चुनाव से पहले एक नोट और एक वोट माँगा था। हमने दिया भी। सरकार बन गयी। अब नेताजी से कहता हूँ कि कुछ भला करो, तो कहते हैं कि लखनऊ आओ, पार्क में घूमो। हाथी देखो। पहले तुम्हें सम्मान नहीं मिलता था, अब हाथी करेगा तुम्हारा सम्मान। हुजूर, हम कहते हैं कि बच्चे भूखे हैं तो नेताजी कहते हैं कि बच्चों को पार्क में घुमाओ, हाथी दिखाओ, भूख प्यास खुद ही मिट जायेगी। 

सुर्तीलाल – बातें मत घुमाओ..। कहीं से उधार माँगकर लाओ, मुझे खिलाओ। हम तुम्हें हाथी नहीं, कम्प्यूटर देंगे। 

रामभरोसे – आपके ताऊजी यहाँ आये थे, तब आपका जनम नहीं हुआ था, वह कहते थे कि वोट दो, हम तुम्हें रोटी कपड़ा और मकान देंगे। साठ साल हो गये, न तो भर पेट रोटी मिली, न तन ढंकने को कपड़े मिले और मकान के नाम पर यही झोपड़ी है। आपसे पहले भी एक नेताजी आये थे, खाना माँग रहे थे। कहते थे कि खाना खिलाओ, वोट दिलवाओ, हम मंदिर बनवा देंगे। सरकार हम तो ठहरे अनपढ़ आदमी। जबसे होश संभाला, रूखा-सूखा वो भी आधा पेट खाकर जिंदा हैं। मगर आपलोग तो पढ़े लिखे हैं। मंदिर देते हैं, कम्प्यूटर देते हैं, हाथी और पार्क देते हैं। भूख का कोई इंतजाम क्यों नहीं करते। 

घंटों की बातचीत का कोई फल नहीं निकला, नेताजी गुस्से में तमतमाते हुए चले गये। रामभरोसे हैरान हैं कि जाने कबसे खा रहे हैं, कितना खा रहे हैं, लेकिन नेताओं की भूख है कि मिटने का नाम नहीं लेती।

(सुर्तीलाल मेरे काल्पनिक पात्र हैं, जिनका मैं अपने व्यंग्य लेखों में अलग-अलग तरीके से इस्तेमाल करता हूँ। बहरहाल अंबेडकर जयंती पर जिस तरह दलित राजनीति हो रही है, दलितों के यहाँ दावत का एजेंडा तय हो रहा है, उसी पर लिखने की कोशिश की थी। कोशिश कैसी रही, ये तो आप ही बतायेंगे। )

*घीसू-माधव प्रेमचंद की कहानी कफन के पात्र हैं।

 (देश मंथन, 16 अप्रैल 2015)

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