इस गरमी पर एक छोटा-सा सवाल!

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कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार:

लोग गरमी से मर रहे हैं। अब तक अठारह सौ से ज्यादा लोग मर चुके हैं। खबरें छप रही हैं। लोग मर रहे हैं। सरकारें मुआवजे बाँट रही हैं।

गरमी कम हो जायेगी, लोगों का मरना रुक जायेगा। फिर लोग बरसात से मरेंगे। फिर खबरें छपेंगी। फिर मुआवजे बँटेंगे। फिर कहीं-कहीं लोग बाढ़ से मरेंगे। फिर सर्दी आयेगी और लोग ठंड से मरने लगेंगे! मौसम आते रहेंगे, जाते रहेंगे, लोग मौसम की मार से मरते रहेंगे! 

हर साल की, हर मौसम की यही कहानी है। देश का कोई हिस्सा हो, कोई सरकार हो, यह कहानी नहीं बदलती। कैसे बदले? सरकारों से पूछिए, नेताओं से पूछिए, जवाब एक ही होगा, सरकार क्या करे, मौसम को कौन रोक सकता है? सही बात है। मौसम को तो कोई रोक नहीं सकता। लेकिन मौसम से होने वाली मौतें रोकी जा सकती हैं। बशर्ते कि कोई इस बारे में सोचे!

दस दिन यह क्यों नहीं हो सकता?

गरमी से कौन मरता है? आमतौर पर शहरी मजदूर, फेरीवाले, जो दिन भर धूप में खटते हैं। या वे लोग जिन्हें कहीं सिर छिपाने की जगह नहीं होती। आँध्र की ओपन एअर चेरलापल्ली जेल के अधिकारियों ने तय किया गरमी के कारण कैदियों से खेतों में काम सुबह छह से दस बजे तक ही लिया जायेगा और शाम को गरमी कुछ कम रही, तो शाम को भी काम होगा। जानलेवा गरमी ज्यादा से ज्यादा दस-ग्यारह दिन ही तो पड़ती है। क्या सरकारें इन दस-पन्द्रह दिनों के लिए काम का नया समय नहीं तय कर सकतीं, सिर्फ इन पन्द्रह दिनों में सारे दफ्तर सुबह नहीं खोले जा सकते, बाजार क्या दोपहर 12 से चार तक नहीं बन्द रखे जा सकते, जब घातक अल्ट्रा वायलेट (पराबैंगनी) किरणों का तीखापन सबसे ज्यादा होता है! बरसों पहले जब एयरकंडीशनर और कूलर सुलभ नहीं थे, तो शहरों में गरमी के दिनों में यही होता था। तो अब दस-पन्द्रह दिन के लिए ऐसा करने में क्या दिक्कत है? 

क्यों? इस छोटे-से कदम में ऐसी क्या कठिनाई थी कि आज तक किसी को यह सूझा नहीं। खास कर अविभाजित आँध्र की किसी सरकार को यह क्यों नहीं सूझा, जहाँ हर साल गरमी के ये दिन ऐसे ही जानलेवा होते हैं। अकेले आँध्र और तेलंगाना में इस बार गरमी से सत्रह सौ लोग मर चुके हैं।

असली मुद्दों पर कब सोचती हैं सरकारें?

उत्तर भारत के कई शहरों में ठंड और बरसात में बेघर गरीबों को पनाह देने के लिए रैन बसेरे बनते हैं। लेकिन आग बरसाते सूरज में कोई उनमें पनाह नहीं ले सकता? क्यों? इसलिए कि वह अकसर टीन या ऐसी निर्माण सामग्री से बनाये जाते हैं जो गरमी में बेतहाशा तपते हैं। वैसे भी अकसर रैन बसेरे जितनी जरूरत हो, उसके मुकाबले काफी कम ही बन पाते हैं और जो बनते भी हैं, वह भी कड़ाके की ठंड में लोगों को कोई राहत नहीं दे पाते और गरमी में तो उनमें घुसा ही नहीं जा सकता! ढंग का एक रैन बसेरा कैसे बने, सरकारों और उनके योजनाकारों को इतनी मामूली-सी बात आखिर क्यों समझ में नहीं आती? अच्छा मान लीजिए कि एक साल समझ में नहीं आयी, दूसरे साल समझ में नहीं आयी, चलो ठीक है, लेकिन सड़सठ साल में भी समझ में नहीं आयी? और किसी ब्राँड की सरकार को समझ में नहीं आयी! क्यों? इसलिए कि गरीब आदमी के जीने-मरने से किसी को क्या मतलब? 

और गरीब क्या, असली मुद्दों पर हमारी सरकारों ने कब सोचा है? ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है। मौसम बेचाल हो रहा है, क्योंकि पर्यावरण पर हमने कोई ध्यान दिया ही नहीं। भारत के आठ सबसे गरम साल 2001 से 2010 के दशक में रहे हैं। पेड़ों और जंगलों की लगातार कटाई और कंक्रीट निर्माण के भयावह विस्तार ने शहरों को तपती भट्टियों में बदल दिया है। विश्व मौसम संगठन के मुताबिक दिल्ली, राँची, पटना समेत भारत के कई शहरों में अल्ट्रा वायलेट किरण इंडेक्स बहुत खतरनाक स्तर यानी 9 के आसपास पाया गया। आँध्र और तेलंगाना में यह 12 के आसपास रहा। 0-11 के पैमाने पर मापा जाने वाला यह इंडेक्स 4 के नीचे होना चाहिए। जैसे-जैसे यह इंडेक्स ऊपर जाता है, वैसे-वैसे खतरा बढ़ता जाता है। और 12 का अल्ट्रा वायलेट इंडेक्स होने पर तो घंटे-आध घंटे भी धूप में रहना तुरन्त जान ले सकता है या फिर इससे त्वचा कैंसर से लेकर शरीर के इम्यून सिस्टम के बिगड़ने तक तमाम दूसरी बीमारियाँ हो सकती हैं। लेकिन पर्यावरण को लेकर हमारी इतनी उदासीनता है कि हम ऐसी किसी चेतावनी पर ध्यान देना तो दूर, अक्सर उसे तिरस्कार की नजर से देखते हैं और ‘झोलाछाप’ एनजीओ की साजिश कह कर खारिज कर देते हैं!

एक-तिहाई बच्चों के फेफड़े कमजोर!

अभी हाल में ही एक और खतरनाक रिपोर्ट आयी है कि देश के महानगरों के एक-तिहाई से ज्यादा बच्चे फेफड़ों की क्षमता का टेस्ट नहीं पास कर सके। उनका साँस की बीमारियों का शिकार होना तय है। वायु-प्रदूषण को लेकर गम्भीर चेतावनियाँ पिछले कितने बरसों से दी जा रही हैं। लेकिन कौन सुने और क्यों सुने? पिछले साल जम्मू-कश्मीर में आयी बाढ़ के बाद यह सनसनीखेज खुलासा हुआ था कि वहाँ ऐसी तबाही की चेतावनियाँ काफी पहले से दी जा रही थीं और बाद में तो एक सरकारी रिपोर्ट में तो साफ-साफ कह दिया गया था कि शहरी विकास और जमीन पर अवैध कब्जों की होड़ ने झेलम के पानी की निकासी के सारे रास्ते बन्द कर दिये हैं और अगर कभी भारी बरसात हुई तो श्रीनगर में भयानक तबाही होगी। तब उस रिपोर्ट की खिल्ली उड़ा कर फेंक दिया गया था! 

विकास कीजिए, लेकिन पर्यावरण की कीमत पर नहीं। आखिर दुनिया के तमाम दूसरे देश हैं, जो आपसे कहीं ज्यादा विकसित हैं, लेकिन कितना सुन्दर और निर्मल नीला आसमान उनके शहरों के ऊपर दिखता है! और हमारे यहाँ कितना मटमैला! लेकिन पर्यावरण की चिन्ता न सरकार को है, न जनता को। अजीब हालत है। पर्यावरण की रक्षा की खानापूरी बस सरकारी फाइलों में होती रहती है। उद्योगों, कल-कारखानों, बाँधों, बिजली घरों से लेकर नयी टाउनशिप बनाने और तीर्थों व पर्यटन स्थलों के विकास के नाम पर पर्यावरण का गला हम दिन-रात घोंटते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि विकास के यह सारे काम और पर्यावरण की रक्षा, दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। बिलकुल हो सकती हैं, लेकिन कुछ पैसा ज्यादा खर्च करना पड़ेगा। सो पैसे बचाने के लिए पर्यावरण की बलि चढ़ा दी जाती है।

यथा सरकार, तथा जनता

और जनता भी कम नहीं। घर-घर अस्थमा के मरीज बढ़ रहे हैं। सबको पता है कि खेतों और सूखी पत्तियों का कचरा नहीं जलाना चाहिए। उससे बढ़िया खाद बन सकती है। लेकिन जब एक तीली माचिस से काम हो सकता है तो कौन चक्करों में पड़े। लोग अस्थमा के शिकार हो तो हों। कचरा जलाने वालों के अपने घरों के बच्चे भी उसके शिकार हो सकते हैं। लेकिन यहाँ तो लोग अपनी जान की परवाह भी नहीं करते! पोलिथीन बड़ा नुकसानदेह है। इस्तेमाल न हो तो अच्छा है। और अगर इस्तेमाल हो तो उसे ढंग से अलग करके फेंका जाये। लेकिन किसके पास टाइम है इतना ख्याल करने का। पूरा देश पोलिथीन के विशाल कचराघर में बदल चुका है। सारी गाय-भैंसे उसे खाती हैं, और फिर वह जहरीला दूध हम बड़े चाव से पीते हैं। गो-वंश प्रेमी इस देश में किसी को इसकी चिन्ता नहीं हुई। 

और फिर खाने के हर सामान में मिलावट है। सबको मुनाफा चाहिए। बन्दा दूसरे को मिलावटी सामान बेचता है और किसी और से मिलावटी सामान खरीदता है। फिर फसलों में जरूरत से ज्यादा रासायनिक खाद और कीटनाशकों का इस्तेमाल। वजह वही, ज्यादा मुनाफा चाहिए। सब्जियाँ नाले और सीवर के पानी से सींची जाती हैं। फिर शक्ल चमकाने के लिए रंग दी जाती हैं। सब बेधड़क इसलिए हो रहा है कि कानून में कड़ी सजा नहीं है, और जितनी है भी, उस पर अमल कौन कराये? सरकारी अगला काहे काम करने की जहमत उठाये! 

हम जहर उगा रहे हैं, जहर खा रहे हैं, जहर पी रहे हैं और जहरीली हवा में साँसें ले रहे हैं, मर रहे हैं, बीमार पड़ रहे हैं और लगातार पर्यावरण को चौपट करने में लगे हैं। सब बरसों से बदस्तूर जारी है। इस गरमी पर यही एक छोटा-सा सवाल मन में उठा था कि किसी सरकार के एजेंडे में ये बातें कभी क्यों नहीं आतीं?

(देश मंथन 03 जून 2015)

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