भाजपा के लिए कठिन परीक्षा हैं उत्तर प्रदेश और बिहार के चुनाव

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संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय  :

लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति का सिरमौर बनकर भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र की सत्ता पर तो काबिज हो गयी है पर अब इन दोनों राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में उसकी साख दाँव पर है।

लोकसभा चुनावों के परिणामों के आधार पर तो दोनों राज्यों में उसकी सरकार बननी तय है किन्तु दिल्ली के विधानसभा चुनावों ने यह साबित किया कि कहानियाँ दोहरायी नहीं जाती हैं।

उत्तर प्रदेश और बिहार पिछले तीन दशकों से सामाजिक न्याय की ताकतों की लीलाभूमि बने हुए हैं और इन शक्तियों ने अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को बार-बार कराया है। उप्र और बिहार में कांग्रेस किस हाल में है किसी से छिपा नहीं है तो भाजपा भी उप्र में लंबे समय से सत्ता से बाहर है। विधानसभा चुनावों का मैदान उप्र में सपा-बसपा के बीच बंटा हुआ है। लोकसभा चुनावों का कोई असर मैदान में नहीं है यह उप्र में हुए विधानसभा उपचुनावों से साफ जाहिर है। इसी तरह बिहार में भाजपा एक बड़ी शक्ति है किन्तु विधानसभा में यह शक्ति उसे एक मजबूत गठबंधन का हिस्सा होने के नाते हासिल हुयी थी। ऐसे में उत्तर भारत के ये दो राज्य मोदी लहर की असलियत भी सामने लाने वाले हैं। यह भी गजब है कि दोनों राज्यों में भाजपा के पास मुख्यमन्त्री पद के लिए एक भी लोकप्रिय चेहरा नहीं है। यानि यह तय है कि ये चुनाव भी मोदी की आदमकद छाया में ही लड़े जायेंगें। जिस तरह स्मृति ईरानी को उप्र का मुख्यमन्त्री प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ने की बात की जा रही है, वह प्रयोग दिल्ली चुनाव में ‘किरण बेदी प्रयोग’ की तरह भारी पड़ सकता है। अमेठी के चुनाव समर में पराजित स्मृति ईरानी के साथ उप्र के कार्यकर्ता कोई रिश्ता जोड़ पायेंगें ऐसा संभव नहीं लगता। ऐसे में उप्र की डगर कठिन है और मोदी का नाम ही वहाँ एक सहारा रहेगा। अमित शाह की सारी रणनीतिक कुशलता के बावजूद चुनाव अंततः कार्यकर्ता लड़ता है और वही अपने वोटर को घर से निकाल कर मतदान केन्द्र तक पहुँचाता है। बिहार में चुनाव पहले हैं इसलिए बिहार का प्रभाव उप्र के चुनावों पर भी पड़ना तय है। आप देखें तो बिहार में जनता परिवार की एकता पर ही भाजपा की रणनीति और नजरें टिकी हुयी हैं। दलित नेता जीतन राम मांझी से प्रधानमन्त्री की मुलाकात साधारण घटना नहीं है। यानि प्रधानमन्त्री भी इस चुनाव के मायने समझ रहे हैं और अपने तरीके से कदम उठा रहे हैं।

जनता परिवार की एकता अगर टूटती है तो भाजपा को इस बहुकोणीय मुकाबले में ज्यादा लाभ मिल सकता है किन्तु आज भी वहाँ का संगठन अपने दम पर पूर्ण बहुमत लाने के आत्मविश्वास से खाली है। दूसरी ओर भाजपा के दिग्गज नेताओं की आपसी स्पर्धा और अविश्वास भी एक बड़ी  चुनौती हैं। कभी स्टार प्रचारक रहे शत्रुध्न सिन्हा जैसे नेताओं की नाराजगी समय-समय पर मीडिया के माध्यम से मुखरित होती रहती है। ऐन चुनाव के वक्त ऐसी उलटबासियों को रोकना और नियन्त्रित करना जरूरी है। बिहार की सामाजिक-राजनीतिक संरचना और वहाँ के समाज की राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ हमेशा ही राजनीतिक विज्ञानियों और समाज शास्त्रियों के चिन्तन-मनन और अनुशीलन का विषय रही हैं। कोई एक सबसे बड़ा कारक इस राज्य की राजनीति को सर्वाधिक प्रभावित करता है तो वह आज भी ‘जाति’ ही है। जाति के इस समीकरण को समझकर जो दल गठबंधन करते हैं और उपयुक्त उम्मीदवारों का चयन करते हैं वो मैदान मार ले जाते हैं। भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनावों में रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा जैसे स्थानीय क्षत्रपों से तालमेल कर एक सोशल इंजीनिरिंग की और उसे इसका लाभ भी मिला। आने वाले चुनावों में ये दो नेता अपने दल के साथ भाजपा के साथ हैं और उम्मीद है कि जीतन राम मांझी भी भाजपा के साथ आ जायें। मोदी सरकार के साल भर के कामकाज और उसके प्रभावों का आकलन भी इस चुनावों में एक बड़ा कारक रहेगा। भूमि अधिग्रहण कानून पर बना वातावरण जिसे अभी भी भाजपा जनता के गले नहीं उतार पायी है चिन्ता का कारण बन सकता है। बिहार के लोग अपनी राजनीतिक समझ और पक्षधरता के लिए जाने जाते हैं। उनकी राजनीतिक समझ पूरे देश के सामने एक उदाहरण की तरह सामने आती रही है। क्रान्तिकारी विचारों और आन्दोलनों के बीज इस धरती से फूटते रहे हैं और पूरा देश यहाँ से आन्दोलित होता रहा है। पटना का गाँधी मैदान ऐसी तमाम रैलियों का गवाह है, जिनसे देश की राजनीति में परिवर्तन परिलक्षित हुए हैं। ऐसे में मोदी और उनकी टीम के लिए बिहार एक चुनौती की तरह है। यदि भाजपा बिहार के मैदान को फतह करती है तो उसे उप्र की जीत के लिए एक नया आत्मविश्वास मिलेगा, जो दिल्ली की पराजय से कहीं न कहीं कमजोर पड़ा है।

नरेन्द्र मोदी के सेनापति अमित शाह की कठिन परीक्षा इस राज्य में होनी है क्योंकि उनकी भी रणनीतिक कुशलता एक बार सवालों के दायरे में हैं। बिहार में भाजपा के पास प्रखर नेताओं की एक पूरी जमात है जिसमें सुशील कुमार मोदी, रविशंकर प्रसाद, नंदकिशोर यादव, गिरिराज सिंह, शत्रुध्न सिन्हा, सीपी ठाकुर, शाहनवाज हुसैन, राजीव प्रताप रूढ़ी आदि शामिल हैं। ये सारे नेता अगर एक होकर बिहार के मैदान में उतरते हैं तो एनडीए में शामिल रामविलास पासवान और उपेंद्र सिन्हा को मिलाकर भाजपा की ताकत बहुत बढ़ जाती है। दूसरी तरफ नीतीश कुमार अपने स्वयं के चेहरे के नाते एक लोकप्रिय छवि रखते हैं किन्तु उनका संकट यह है उन्होंने प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी से नाहक टकराव लेकर और मांझी प्रकरण में जल्दबाजी दिखाकर अपनी विश्वसनीयता को चोट ही पहुँचायी है। आज जनता परिवार के दल ही उनको नेता स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है। बिहार के भीतर-बाहर भी उनकी छवि एक ऐसे नेता की बन रही है, जो अवसरवाद के साथ-साथ सत्ता के लिए समझौते कर सकता है। इससे निश्चय ही नीतीश की नैतिक आभा कम हुयी है। वहीं नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा चुनावों के दौरान स्वयँ को एक पिछड़ा वर्ग से आने वाला प्रधानमन्त्री प्रचारित कर बिहार के जनमानस में पैठ बनाई है। विकास के सवाल पर भाजपा के नेता यह प्रचारित करने में लगे हैं कि भाजपा जब तक जेडीयू सरकार में थी तभी तक यह विकास और सुशासन का मामला चला और अब क्योंकि भाजपा अलग है इसलिए नीतीश पर भरोसा करना कठिन है। यह कह पाना कठिन है कि भाजपा का यह विकास मन्त्र कितना काम करेगा। बिहार की राजनीति को समझने वाले इस बात को समझते हैं कि इस प्रदेश के चुनाव साधारण नहीं है, यहाँ से हवा बिगड़ने और बनने का काम प्रारंभ होता है। नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव का भविष्य जहाँ इस चुनाव से तय होगा, वहीं नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के लिए भी ये चुनाव भाजपा संगठन में उनकी उपस्थिति को तय करेंगें। दिल्ली प्रदेश के बाद मोदी के लिए यह दूसरी कठिन परीक्षा है। भाजपा को बिहार में मौजूदा विधायकों से अधिक लाने की चुनौती जहाँ मौजूद है, वहीं उप्र के नेता इस बात से आश्वस्त हो सकते हैं कि वहाँ तो मौजूदा विधायकों से ज्यादा विधायक निश्चित ही आयेंगें। जानकारी के लिए दिल्ली और उप्र दो ऐसे राज्य हैं जहाँ भाजपा के लोकसभा सदस्यों की संख्या विधायकों से ज्यादा है। 

(देश मंथन, 06 जून 2015)

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