जागिए, मैगी ने झिंझोड़ कर जगाया है!

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कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार :

मैगी रे मैगी, तेरी गत ऐसी! क्या कहें? सौ साल से नेस्ले कम्पनी देश में कारोबार कर रही थी! दुनिया की जानी-मानी कम्पनी है।

उसकी ‘दो मिनट’ की मैगी की देश भर में घर-घर पहुँच थी। सोचा भी नहीं था कि उसमें भी ऐसी गड़बड़ निकलेगी कि आखिर मैगी की नौ किस्मों को बाजार से पूरी तरह उठा लेने का फरमान सुना दिया जाये! 

चलिए, मैगी पर तो कार्रवाई हुई और इस बहाने देश में कुछ तो जगार हुई! लेकिन न समस्या मैगी है और न समाधान यह कि मैगी को कुछ दिनों के लिए बाजार से बाहर कर जिम्मेदारी पूरी कर ली जाये! असली समस्या तो कहीं और है और समाधान भी कहीं और है! मैगी अब बाजार में नहीं है, तो दूसरे और ब्राँड तो बाजार में हैं! और उन ब्राँडों में सीसा और मोनोसोडियम ग्लूटामेट यानी एमएसजी या अजीनोमोतो नहीं है, इसकी क्या गारन्टी? मैगी का हल्ला उठने के बाद तमिलनाडु ने जब नूडल्स के तीन और बड़े ब्राँडों की जाँच की तो उनमें भी सीसे की मात्रा खतरनाक स्तर पर पायी गयी! फिलहाल, तमिलनाडु ने इन तीनों ब्राँडों ‘वाय वाय एक्सप्रेस,’ ‘रिलायन्स सेलेक्ट इंस्टेंट’ और ‘स्मिथ ऐंड जोन्स चिकन मसाला’ की बिक्री पर रोक लगा दी है!

मैगी समेत चार ब्राँड में सीसा क्यों?

नेस्ले का कहना है कि वह मैगी में ऊपर से एमएसजी नहीं मिलाते। वह प्राकृतिक तौर पर मैगी की उत्पाद सामग्री में होता है। तो फिर पैकेट पर ‘नो एमएसजी’ क्यों लिखा जाता रहा? एमएसजी की खासियत है कि एक बार यह मुँह को लग जाये तो फिर आदमी उसी स्वाद के लिए लपकता है। नेस्ले ने यह तथ्य छिपाया। क्यों? इसकी क्या गारन्टी है कि मैगी में इसका जानबूझ कर इस्तेमाल नहीं किया जा रहा था? कौन जाने, मुँहलगी मैगी के पीछे कहीं एमएसजी का ही तड़का तो नहीं था? और फिर इतना अधिक सीसा कहाँ से आ गया? और सीसा नेस्ले के अलावा तीन और बड़े ब्राँडों में क्यों निकला? लापरवाही से सीसा आ गया या इस बात की निश्चिन्तता से कि सब चलता है! कौन पकड़ेगा? कौन जाँचेगा? किसे सुरक्षा मानकों की फिक्र है? लापरवाही से होता तो किसी एक जगह होता, किसी एक ब्राँड में होता। चार-चार ब्राँडों में कैसे हो गया? इसलिए हो गया कि सब आश्वस्त हैं, बिलकुल निछद्दम बेफिक्री है, जो मन आये करो, जैसे मन आये करो! (बनारसी जानते हैं कि निछद्दम का मतलब क्या है)। न कोई देखने वाला, न रोकने वाला, न टोकने वाला! खाने वाले बेफिक्री से खाते रहेंगे, जिन्हें गुणवत्ता जाँचनी है, वह बेफिक्री से बैठे अलसाते रहेंगे, धन्धा चलता रहेगा। तो सुरक्षा मानकों के लिए झंझट कौन करे, उस पर फालतू में पैसे क्यों खर्च किये जायें? अब यूपी में संयोग से कुछ सैम्पल पकड़ जायें, और फिर बात आगे बढ़ती चली जाये, ऐसी ‘दुर्घटनाएँ’ कभी हो गयीं, तो हो गयीं!

असली समस्या मैगी से कहीं आगे की!

नेस्ले जैसी कम्पनियाँ अब तक हमारे निगरानी तन्त्र की इसी ढिलाई का फायदा उठा कर बेफिक्री से कुछ भी करती रही हैं। बहरहाल, अच्छी बात यह है कि फूड सेफ्टी ऐंड स्टैंडर्ड्स अथारिटी ने अब नेस्ले से सबक सीख कर तमाम ऐसी कम्पनियों के खिलाफ मुहिम छेड़ने का फैसला किया है, जो भ्रामक विज्ञापनों और लेबेलिंग कर अपने उत्पादों के बारे में तथ्य छुपा रही हैं और लोगों को मूर्ख बना रही हैं। लेकिन क्या इतना ही काफी है? समस्या तो इससे कहीं आगे की है। और वह है जनस्वास्थ्य और पर्यावरण को लेकर हमारी अपनी घनघोर उदासीनता। ब्राँडेड उत्पादों पर नियमों की कुल्हाड़ी चले, अच्छा भी है और जरूरी भी, लेकिन वह तो पूरे खतरे का एक बहुत छोटा-सा हिस्सा भर हैं। बड़ा खतरा तो उस हवा, पानी, अनाज, फल-सब्जी से है, जो हम हर पल इस्तेमाल करते हैं। लेकिन उनकी गुणवत्ता के बारे में कुछ करते नहीं। बाजार में तेल, मसाले, चाय की पत्ती, दूध, खोया, मिठाई, दवाई किसी चीज की बात कीजिए, कहाँ मिलावट नहीं है। धड़ल्ले से है। न कोई पकड़, न धकड़! फलों में रंग और मिठास के इंजेक्शन, सब्जियों पर रंग-रोगन, सब खुलेआम बेधड़क। और चलिए, दिल्ली में अभी कुछ चाटवालों के सैम्पल की जाँच एक अखबार ने करायी, पता चला कि ज्यादातर में टट्टी में पाये जानेवाले बैक्टीरिया पाये गये! बोतल बन्द पानी के नाम पर कैसा भी पानी बेचा जा रहा है। बड़े-बड़े रेस्तराओं के किचन में झाँक लें तो उलटी आ जाये। इनमें से किसी को न कानून का डर है, न पकड़े जाने की फिक्र। क्योंकि ऐसी कोई व्यवस्था ही नहीं है कि नमूनों की लगातार जाँच होती रहे, लगातार कार्रवाई होती रहे। जाँज कभी-कभार रस्म-अदायगी की तरह होती है। कारण, भ्रष्टाचार तो अपनी जगह है ही, ये निगरानी वाले विभाग भी बस नाम भर के लिए चलते हैं, न इनके पास अफसर होते हैं, न कर्मचारी, और न साधन। फिर कानून इतना लचर कि सजा भी बेहद मामूली होती है, इसलिए मिलावट का खेल बेखौफ बदस्तूर जारी रहता है। न सरकार को फिक्र, न जनता को।

हम सबकी घनघोर उदासीनता

स्वस्थ जीवन के लिए अच्छा खाना भी चाहिए और अच्छी हवा भी। दिल्ली आज दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बन चुका है। और केवल दिल्ली ही नहीं, देश के तमाम बड़े शहर बरसों से यह समस्या झेल रहे हैं। सरकारें आती रहीं, जाती रहीं, प्रदूषण लगातार बढ़ता गया। कैसे रुके? क्योंकि समस्या को टरकाते रहने के लिए बड़े बहाने हैं। पर सवाल यह है कि क्या वाकई हम कुछ करना भी चाहते हैं। ध्वनि प्रदूषण पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद कहीं भी रात में लाउडस्पीकरों का बजना नहीं रोका जा सका! जो एक काम बहुत आसानी से हो सकता है, वह भी नहीं होता! क्यों? इसलिए कि हमारा तन्त्र और हम इसे ‘फालतू’ की बात मानते हैं। तो जब इतना छोटा-सा अनुशासन हम नहीं मान सकते, तो वायु-प्रदूषण जैसी गम्भीर समस्या के बारे में तो कभी कुछ हो ही नहीं सकता! शहरों के एक-तिहाई बच्चों के फेफड़े कमजोर हो चुके हों, तो हों! किसे फिक्र है? गंगा को ले लीजिए। मुझे अपने बचपन के दिनों की याद है, गंगा की सफाई का अभियान वाराणसी में तब कभी शुरू हुआ था बड़ी धूमधाम से, शायद चालीस-पैंतालीस साल पहले। तब से अब तक अरबों-खरबों रुपये अब तक फूँके जा चुके हैं। तब से इन सवालों पर चर्चा हो रही है कि गंगा में जो सीवर लाइनें खुलती हैं, जो नाले आ कर मिलते हैं, कारखानों का जो रासायनिक कचरा गिरता है, उसे कैसे रोका जाये। सैकड़ों योजनाएँ बनीं, लेकिन गंगा लगातार और ज्यादा प्रदूषित होती गयी! जिस गंगा से लोगों की इतनी आस्थाएँ जुड़ी हों, उसे इतने बरसों के अभियान के बावजूद स्वच्छ नहीं किया जा सका। क्यों? सारा दोष सरकारों का ही नहीं है। हमारा भी है। गंगा किनारे बसे लोगों ने, कारखानों ने थोड़े पैसे खर्च किये होते कि उनकी गन्दगी गंगा में न जाये, तो आज समस्या इतनी गम्भीर न होती। देश की दूसरी नदियों का भी यही हाल है। हमें एहसास ही नहीं है कि इन नदियों को मार कर हम अपना कितना नुक़सान कर रहे हैं। श्रीनगर की झेलम को लीजिए। इतनी सुन्दर नदी है, दोनों किनारों पर दूर तक ऐसी सुन्दर बसावट है कि टूरिस्ट बस देखते रह जायें। लेकिन इन बस्तियों ने अपने घरों का कचरा फेंक-फेंक कर झेलम को बड़े बदबूदार नाले में बदल दिया। यही नदी अगर दुनिया के किसी और देश में होती तो पर्यटन से सोना उगल रही होती! लेकिन फिर वही सवाल, किसे फिक्र है?

तमिलनाडु से सीखिए

खेती में कीटनाशकों का अन्धाधुन्ध इस्तेमाल हो रहा है। कहीं कोई निगरानी नहीं। कहीं कोई चेतना नहीं। अनाज, दालों और सब्जियों को तो इसने जहरीला बना ही दिया, भूगर्भ जल में भी काफी मात्रा में ये कीटनाशक पहुँच गये हैं। यह जहरीला पानी पीने से तमाम तरह की जानलेवा बीमारियाँ हो रही हैं। तमिलनाडु ने पिछले पन्द्रह बरसों में एक छोटा-सा प्रयोग किया। भूगर्भ जल के नीचे जाते स्तर को रोकने के लिए ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग’ शुरू की। जनता अनमनी थी। जेब से पैसे जो लगने थे। लेकिन सरकार ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया तो बात बन गयी। भूगर्भ जल का स्तर भी ऊपर आ गया और पानी में कीटनाशक की समस्या भी काफी हद तक दूर हो गयी। तो ऐसा नहीं है कि हालात बदल नहीं सकते। बिलकुल बदल सकते हैं। सरकारें अगर इन बुनियादी मुद्दों को प्राथमिकता पर लें, खुद भी इनमें जुटें और जनता को भी जोड़ें और उसकी जिम्मेदारी का एहसास करायें, तो देश की सूरत जरूर बदलेगी! मैगी ने हमें झिंझोड़ कर जगाया है। इस पर गम्भीरता से विचार होना चाहिए कि जनस्वास्थ्य से होनेवाले खिलवाड़ को रोकने के लिए कानून कैसे कड़े बनाये जायें, निगरानी का सक्षम तन्त्र कैसे खड़ा किया जाये और जनता को यह बात कैसे समझायी जाये कि आज चार पैसे बचाने के बजाय कल अपने बच्चों की जान बचाना ज्यादा जरूरी है। 

(देश मंथन, 08 जून 2015)

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