चाय वाले का एक सूत्र में जोड़ने का प्रयास

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दीपक शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार :

मोदीजी का अडानी मुझे पसन्द नहीं है। मोदीजी की एक मंत्रानी भी मुझे पसन्द नहीं है। मोदीजी का सूटबूट भी मुझे पसन्द नहीं है। और ये नापसंदगी किसी वैचारिक धरातल पर नहीं मेरिट के तर्क पर आधारित है। लेकिन बावजूद इन सबके मोदी जी कि कुछ बातों का मैं समर्थन करता हूँ। उनके कुछ प्रयास सराहनीय हैं।

जैसे हजारों साल के योग को युग-युग तक जीवंत करने का उनका योगदान। जैसे विदेश में छितरे-बिखरे असंख्य भारतीयों को एक सूत्र से जोड़ने का उनका प्रयास। जैसे इनक्रेडिबल इंडिया को देश के लोगों से जोड़ कर समूचे अभियान को दुनिया तक ले जाने का प्रयास। इन सारे प्रयासों के पीछे देश की छवि को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत करने का मकसद नजर आता है। वैसे छवि अभी मजबूत तो नहीं हुई है पर आसार अच्छे लगते हैं। यह एक अच्छी शुरुआत है। ये ऐसा काम है जिसे बीस साल पहले शुरू कर देने चाहिए था। नरसिम्हा राव से लेकर देव गोवड़ा और गुजराल से लेकर मनमोहन सिंह ऐसा कर सकते थे। पाँच साल तक सत्ता में रहे अटल-अडवाणी भी ऐसा सोच सकते थे। लेकिन एक चाय वाले ने यहाँ एक थीमेटिक विजन दिया है, जिसका स्वागत करना चाहिए।

अगर मै NSUI, AISA या किसी अन्य राजनीतिक विचारधारा से जुड़ने के बाद पत्रकार बना होता तो मै वैचारिक विवशताओं के कारण ये पोस्ट लिख ना पाता। और अगर मे ABVP से जुड़ा होता तो मैं अडानी और ईरानी के नाम पर मजबूरन चुप रहता। यानी दोनों स्थितयों में मैं मजबूर ही रहता। यानी किसी भी परिस्थिति में। मैं निष्पक्ष नहीं हो सकता हूँ। मेरी राइटिंग संतुलित नहीं हो सकती है। ये दोष तो है पर इसे व्यावहारिक मनोस्थिति का प्रभाव भी कहा जा सकता। जैसे सावन के अन्धे को हरा ही हरा दिखेगा और पतझड़ के अन्धे को हरा दिख ही नहीं सकता। यानी आपकी राइटिंग में, रिपोर्टिंग में, आपकी राजनीतिक सोच कहीं न कहीं रिफ्लेक्ट होगी। आप राजनीतिक फलक पर बायस्ड नजर आयेंगे।

मित्रों इस देश का दुर्भाग्य है की ज्यादातर पत्रकार राजनीतिक विचारधाराओं में बंटे हुये हैं। ज्यादातर तो वामपंथी हैं और बाकी समाजवादी, कांग्रेसी और ABVP वाले। जो विश्वविद्यालय के बाद राजनीतिक करियर नहीं जमा सके। जिन्हें सिविल सर्विसेज परीक्षाओं में सफलता नहीं मिली। उनमें से ज्यादातर पत्रकार बन गये। सच तो ये है कि बीस साल पहले पत्रकारिता के स्कूल देश में विकसित नहीं थे। इसलिए पत्रकारिता में पेशेवर लोग बहुत कम आये। मेरा मतलब है कि जो मेडिकल, इंजीनियरिंग, लॉ, स्पोर्ट्स, फिल्म या थिएटर से जुड़े थे, उन्होंने रिपोर्टिंग में diversify नहीं किया। ऐसे मेधावी। सिविल सर्विसेज या प्राइवेट सेक्टर या निजी एंटरप्राइज में तो चले गये पर उन्होंने पत्रकारिता में diversify नहीं किया। नतीजा आज आप देख रहे हैं। देश में मीडिया विचारधारों में बंटी है। इसलिए कुछ लेखक और स्थापित पत्रकार हमेशा उल्टा ही लिखते हैं। उन्हें उल्टा ही दीखता है। वो अपनी कलम से योग में भी भोग लगाते हैं। शायद इसीलिए कुछ बायस्ड बुद्धिजीवी अब एक नये अभियान की बात कर रहे हैं। उनका तर्क है कि अगर योगा डे हो सकता है तो कामसूत्रा डे क्यूँ नहीं हो सकता ?

मैं ऐसे पत्रकार मित्रों से कहने चाहूँगा कि जमाना बदल गया है। नई जनरेशन है। देश देशांतर पर जरा संभल कर लिखें। योग का भोग न लगाएँ वरना कोई सम्भोग से समाधी तक पहुँचा देगा।

जयहिंद, जय भारत ।

नोट : समाधी का अर्थ यहाँ कब्र नही है।

(देश मंथन 23 जून 2015)

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