संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
आदमी जिन्दगी का सफर तय करता है। मोटर-गाड़ियाँ सिर्फ सड़कों का सफर तय करती हैं। समय के साथ जिन्दगी के सफर में आदमी बहुत कुछ सीखता है और नया होता जाता है, जबकि सड़क के सफर में मोटर-कार घिसती हैं और पुरानी पड़ती जाती है।
इन्दिरा गाँधी ने इमरजंसी की घोषणा तो कर दी थी, पर उन्हें जगजीवन रामों और देवकान्त बरुआओं ने आस बंधा दी थी कि देश की अनपढ़ और गरीब जनता के पास कोई विकल्प नहीं है। इमरजंसी जब खत्म होगी, आप चुनाव लड़िएगा, जीत आपकी होगी।
मैं अपने जीवन में इन्दिरा गाँधी को दो बार ही देख पाया हूँ और सुन पाया हूँ। आज मैं उन्हें याद करता हूँ तो वो मुझे ‘आईना’ फिल्म की नायिका अमृता सिंह जैसी नजर आती हैं। आप में से कई लोगों ने जैकी श्राफ, जूही चावला और अमृता सिंह की फिल्म ‘आईना’ देखी होगी, कुछ लोगों ने नहीं देखी होगी।
मैं क्योंकि यहाँ इतिहास नहीं दर्ज कर रहा, इसलिए आप हैरान मत हों कि इन्दिरा गाँधी की तुलना मैं किसी फिल्म की नायिका से कर रहा हूँ।
फिल्म ‘आईना’ में अमृता सिंह और जूही चावला सगी बहनें होती हैं। अमृता सिंह शहर के बड़े उद्योगपति जैकी श्राफ से प्यार करती है। अमृता सिंह बड़े घर की बेटी है, माँ-बाप उसकी हर मुराद आँखें मूंद कर पूरी करते हैं। अमृता सिंह महत्वाकांक्षी है और उसका मन मॉडलिंग में लगता है।
कहानी में ट्विस्ट तब आती है, जब जैकी और अमृता की शादी तय हो जाती है और अचानक अमृता को मॉडलिंग में एक बड़ा ऑफर मिल जाता है। बड़ी अजीब स्थिति होती है, जैकी श्राफ बारात लेकर अमृता के घर पहुँचे हैं और अमृता अचानक लापता हो जाती है। वो एक चिट्ठी छोड़ जाती है कि उसे एक बड़ा ब्रेक मिला है, और वो उसे नहीं गंवाना चाहती। शादी तो फिर कभी हो सकती है।
यहाँ तक कहानी सामान्य है। लेकिन अमृता के मन में इस विश्वास का होना बहुत मायने रखता है कि जैकी श्राफ जाएगा कहाँ, शादी तो उसी से करेगा।
क्यों करेगा?
क्योंकि वो खूबसूरत है, जवान है, स्मार्ट है, फैशन परस्त है, बड़े बाप की बेटी है और सबसे बड़ी बात कि वो उसके बिना जी नहीं सकता।
शेक्सपीयर ने कहा था कि खुद पर विश्वास होना बहुत अच्छी बात होती है, लेकिन अति विश्वास का होना बुरा होता है।
अमृता सिंह के भीतर का विश्वास कब अति विश्वास में तब्दील हो गया, उसे खुद भी पता नहीं चला। नतीजा ये हुआ कि जैकी श्राफ बारात वापस ले जाने की जगह उसकी छोटी बहन जूही चावला से विवाह करने का प्रस्ताव रख देता है। और जैकी की शादी जूही चावला से हो जाती है।
फिल्मी कहानी फिल्मी ही होती है। अमृता इस बात को सह नहीं पाती कि जैकी उसकी जगह जूही को चुन लेगा। उसके अति विश्वास यानी ओवर कॉन्फिडेंस को बहुत चोट पहुँचती है और फिर शुरू होती है तिकड़म की राजनीति। अपनी ही बहन को मात देने का खेल।
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इलाहाबाद के आनंद भवन में पलती हुई इन्दिरा गाँधी की शायद ही कोई इच्छा ऐसी रही होगी, जिसे समय ने पूरा नहीं होने दिया होगा। इन्दिरा गाँधी में आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा था, इससे तो कोई इनकार कर ही नहीं सकता। लेकिन प्रधान मन्त्री बनने के बाद ये आत्मविश्वास कब अति आत्मविश्वास में तब्दील हुआ, इसका उन्हें भी पता नहीं चला होगा।
मैं अपने लिखे को आज एक काल्पनिक कहानी मान लूँ, तो मुझे ये मानने में कोई हिचक नहीं कि इन्दिरा गाँधी ने इमरजंसी लगाते हुए ये सोचा ही नहीं होगा कि वो जनता जो उनसे बेहद प्यार करती थी, उनका साथ छोड़ देगी। ठीक वैसे ही जैसे फिल्म में अमृता को लगा था कि जैकी उसके बिना जी ही नहीं सकेगा।
गणित की भाषा में कहूँ तो ऐसा सोचना अमृता का एक गलत कैलकुलेशन था। यह एक ऐसी गणना थी, जिसमें उसने खुद को ही धोखा दे दिया। सुनने में ऐसा लग सकता है कि जैकी ने अमृता को छोड़ दिया, पर सच यही है कि अमृता ने अमृता को छोड़ दिया था।
आप में से जो लोग इमरजंसी के उस दौर में रहे होंगे और इमरजंसी के ठीक बाद होने वाले चुनाव को जरा सा पढ़ने की कोशिश की होगी, वो समझ सकते हैं कि इन्दिरा गाँधी के मन में यह गलतफहमी किसी और ने नहीं, खुद उन्होंने अपने मन में डाल ली थी कि अगर चुनाव हुए तो वो भारी बहुमत से चुनाव जीत जाएँगी।
सच तो यह है कि मुझ जैसा पाँचवीं कक्षा का विद्यार्थी जो चुनाव, वोट ये सब नहीं समझता था, उसके कानों तक यह बात पहुँचने लगी थी कि चुनाव में इन्दिरा गाँधी के खिलाफ अगर इस बार गधा भी खड़ा होगा तो वो जीत जाएगा। वैसे एक सच ये भी है कि उनकी इस सोच को उनके पुत्र संजय और उनके चंपुओं से भी ये बल मिला ही था।
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जयप्रकाश नारायण बनाम इन्दिरा गाँधी की इस लड़ाई में जनता के मन में ये बैठाया जा चुका था कि ये आखिरी मौका है, जब आप लोकतन्त्र और या तानाशाही में से किसी एक को चुन सकते हैं। अगर फिल्मी कहानी को फिल्मी कहानी न मानें और फिल्म ‘आईना’ में अमृता सिंह की छोटी बहन बनी जूही चावला के मन की दबी इच्छा को किसी शालीन फैसले के रूप में न देखें, तो सोचने की कोशिश कीजिए कि जूही कैसे आखिरी वक्त में जैकी से शादी के लिए हाँ कह गई। अमृता के मन पर ये कितनी बड़ी चोट थी कि उसी की सगी बहन ने उसके साथ छल कर दिया।
फिल्म देखते हुए दर्शकों को जूही चावला से बेशक हमदर्दी होती है, क्योंकि उसने तो समय का साथ दिया था। वो जानती थी कि उसकी बड़ी बहन जिद्दी, बददिमाग और तानाशाह है। वो नहीं चाहती थी कि उसका प्रेमी, जो बारात लेकर घर आया हो और उसे बेइज्जती के साथ वापस जाना पड़े। वैसे जितना सच यह है, उतना ही बड़ा सच यह भी है कि जूही के मन में बहन के लिए प्यार नहीं था।
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जिस जगजीवन राम, हेमवती नन्दन बहुगुणा और नंदनी सदपती जैसे नेताओं पर इन्दिरा को अथाह भरोसा था, उन्होंने समय की चाल पहचान कर इन्दिरा गाँधी से खुद को अलग कर लिया। इन लोगों ने खुद को कांग्रेस से तोड़ कर अलग पार्टी खड़ी कर ली – कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी।
जिस संजय गाँधी को इन लोगों ने अपनी गोद में खिलाया, उसी संजय गाँधी की उद्दंडता का हवाला देते हुए इन लोगों ने इन्दिरा को छोड़ दिया। सनद रहे कि संजय गाँधी अगर भारतीय राजनीति में उद्दंड हो चुके थे, तो इस चुनाव से बहुत पहले उनकी उद्दंडता सामने आ चुकी थी। लेकिन जगजीवन राम और उनके साथियों ने इमरजंसी में इन्दिरा गाँधी का खूब साथ दिया था। सिर्फ साथ ही नहीं दिया, बल्कि उन्हें उकसाया भी कि ऐसा करना कतई गुनाह नहीं।
दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है, इसी सिद्धांत के तहत जेपी के छात्र आंदोलन में सारे लोग इकट्ठा होने लगे।
जेपी का आंदोलन एकदम अलग आंदोलन था। संघ की मंशा एकदम अलग मंशा थी। इन्दिरा के साथ उठने-बैठने वाले संजय गाँधी के सताए लोगों का दुख एकदम अलग दुख था। जनता का दुख एकदम अलग था।
अगर संघ, इन्दिरा विरोधियों, इन्दिरा के दोस्त से दुश्मन बने लोगों की चाहतों और जेपी के आंदोलन को अलग-अलग करके कोई अध्ययन करे, तो समझ जायेगा कि जेपी सिर्फ इस्तेमाल हो रहे थे, जिसका भान उन्हें हुआ लेकिन तब तक पानी बह चुका था। बहुत पुरानी बात नहीं है। आपकी जरा सी यादों को मैं कुरेदूंगा तो सब साफ हो जायेगा।
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याद कीजिए अन्ना हजारे का रामलीला मैदान का वो आंदोलन, जिसमें न जाने कहाँ-कहाँ से आकर लोग जुड़ते चले गए थे। अन्ना भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे। उनके संगी-साथी अपने एनजीओ के लिए अन्ना के साथ जुड़ गये थे। कोई राजनीतिक दल जो अपनी लकीर बड़ी करने की जगह , इस आंदोलन में दूसरे की लकीर छोटी करने में लग गयी थी। उसे न लोकपाल से मतलब था, न अन्ना से लेकिन रामलीला मैदान में उसे अपनी रोटी बेवजह उसे सिंकती नजर आ रही थी। उसके सामने 1977 का चुनाव था, जब सब कुछ करके जेपी ने खुद को चुनाव से बाहर कर लिया था। उसे पता था कि जेपी जो खाना पका रहे हैं, उसे वो खुद नहीं खाएँगे। अन्ना आंदोलन में भी इन्हें पता था कि महान लोग अपनी महानता के बोझ तले दब कर सिर्फ आंदोलन खड़ा करते हैं, उसे बिठाने की जिम्मेदारी वो नहीं निभा सकते।
मैं बहुत से लोगों को जानता हूँ, जो अन्ना आंदोलन से सिर्फ इसलिए जुड़ गये थे कि उनके मन में कोई नाराजगी थी। सबके मन में सोनिया गाँधी और मनमोहन सिंह से नाराजगी नहीं थी। कोई अपने बॉस से नाराज था। कोई पत्नी से तंग आया पड़ा था। कोई पति से आहत थी। किसी को नौकरी नहीं मिल रही थी, तो कोई परीक्षा में फेल हो गया था। किसी की बिजली का बिल ज्यादा आया था, तो कोई मकान मालिक से परेशान था। कहने का मतलब ये कि अन्ना के आंदोलन में रामलीला मैदान में बैठे लाखों लोगों में से ढेरों लोगों की अपनी कोई शिकायत थी। उन्हें लग रहा था कि कोई है, जो उनके लिए कुछ कर रहा है। वो कौन है, वो क्या कर रहा है, इससे उनका बहुत लेना-देना नहीं था। अन्ना के आंदोलन में ढेरों ऐसे लोग थे, जो अमिताभ बच्चन के हाथों विलेन के पिटने पर जोर-जोर से तालियाँ बजा कर अपनी भड़ास निकालते हैं।
मैंने एकबार अन्ना हजारे से कहा भी था कि आपने जनता के साथ धोखा किया। आपने दरअसल जनता के उस गुस्से को अपने आंदोलन से धो पोंछ दिया, जो उसके मन में था और वो एक राजनीतिक सुधार के रूप में प्रस्फुटित हो सकता था। लेकिन आपने बिना मौसम के बरसात की तरह बरस कर उसके मन को सांत्वना तो दे दी, लेकिन विकल्प के रूप में कुछ नहीं दिया। तब आम चुनाव नहीं हुए थे और मैंने अन्ना से कहा था कि आपने भी जेपी की तरह ही अपने लिए नहीं, जनता के लिए एक मौका गँवा दिया।
अन्ना आंदोलन के समय जनता में गुस्सा था, लेकिन अलग-अलग वजहों से। जेपी आंदोलन के समय भी जनता में गुस्सा था, लेकिन अलग-अलग वजहों से।
जेपी के आंदोलन और जनता के गुस्से को कब सत्ता के आकांक्षियों ने अपने पक्ष में मोड़ लिया किसी को पता भी नहीं चला। ठीक वैसे ही जैसे अन्ना के आंदोलन और जनता के गुस्से को राजनीतिक महात्वाकांक्षियों ने अपने पक्ष में मोड़ लिया।
खैर, ये राजनीति का विषय है और मैं उस पर कुछ लिख नहीं पाऊँगा।
मुझे तो ये याद करते हुए आश्चर्य हो रहा है कि 1977 इन्दिरा गाँधी किस संसार में थीं, जो उन्हें नहीं पता था कि होने वाले चुनाव में उनकी धज्जियां उड़ जाएँगी।
फिल्म ‘आईना’ में अमृता सिंह किस भरोसे पर ऐन शादी के दिन घर छोड़ कर भाग गयी कि उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा।
सोनिया गाँधी की कांग्रेस ने किस भरोसे पर पिछला चुनाव लड़ा कि उनकी पार्टी चुनाव जीत ही जायेगी।
ये सारे वो सच हैं, जिन्हें समझने के लिए किसी विशेषज्ञ की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए थी। इतना तो आदमी खुद पढ़ ले सकता है। पढ़ लेना चाहिए।
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मैंने कहा था न कि आदमी जिन्दगी का सफर तय करता है, मोटर-गाड़ियाँ सड़कों का सफर तय करती हैं। मैंने ये भी कहा था कि आदमी जिन्दगी के सफर में नया होता है, मोटर-गाड़ियाँ पुरानी होती हैं।
पर जो समय की चाल के साथ खुद को नहीं माँजता, समय उसका साथ छोड़ देता है। यही हुआ था उस चुनाव में इन्दिरा गाँधी के साथ। समय ने उनका साथ छोड़ दिया। पर जो हार कर जीतते हैं, उसे ही बाजीगर भी कहते हैं। तो 1977 के चुनाव में इन्दिरा गाँधी की हार और फिर किसी मामले में उनकी गिरफ्तारी के बाद जब सबने ये मान लिया था कि इन्दिरा युग का अन्त हो गया, तब इन्दिरा गाँधी खुद को समय के साथ माँजने में जुटी थीं।
नतीजा?
सिर्फ तीन साल बाद इन्दिरा गाँधी दुगुने उत्साह के साथ देश की उम्मीद बन बैठी थीं।
सब पर चर्चा करुँगा। आप बस हाँ कहिए।
(देश मंथन 29 जून 2015)