अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता

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आनंद कुमार, डेटा एनालिस्ट  :

भारतीय लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता एक लाइन में तय हो जाती है | संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में कुल दस शब्द भी नहीं हैं, लेकिन ये एक मौलिक अधिकार है। अगर कहीं ये सोच रहे हैं की मौलिक अधिकार है तो आप इसका हमेशा इस्तेमाल कर सकते हैं, तो आप गलत समझ रहे हैं।

इतनी स्वतन्त्रता हजम कर पाना आसान नहीं है। संविधान के बनने के मुश्किल से छह महीने बाद यानि की 18 जून, 1951 को ही चाचा नेहरु इस पर पाबन्दी लगा चुके हैं ।

संविधान के इस पहले संशोधन में कहा गया था की “देश की अखंडता और संप्रभुता के खिलाफ, मित्र देशों से अच्छे संबंधों के खिलाफ, जनता की भावनाएँ भड़काने के लिय, नैतिक मूल्यों, शालीनता की सीमा के बाहर या फिर अदालत की अवमानना के लिए, किसी को अपराध के लिए उकसाने के लिए या बदनाम करने के लिए” आप अगर इस अधिकार का इस्तेमाल करते हैं तो आप अपराधी होंगे ।

दरअसल ये पाबन्दी पहले ही संशोधन में इसलिए लगायी गयी थी, क्योंकि रोमेश थापर कि एक वामपंथी झुकाव वाली पत्रिका “Cross Roads” में चाचा नेहरु की नीतियों के बारे में कुछ छपा था और उसपर पाबन्दी लगा दी गयी थी। थापर ने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले को challenge किया और पाबन्दी मई 1951 में हटवा दी अदालत ने। अब चाचा नेहरु ये कैसे बर्दाश्त कर पाते? तो फौरन संविधान के प्रथम संशोधन में “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” पर ताले जड़ दिये गये ।

आज IPC में “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” पर रोक लगाने के कई कानून हैं।

इनमे से पहला है धारा 153 A : ये लिखित या बोले गए उन शब्दों पर लागू होता है, जिनसे अराजकता फैल सकती हो, किसी की भावनाएँ आहत होती हों या शत्रुता की भावना जागती हो, या फिर दो समुदायों के बीच गलतफहमियाँ, दुश्मनी जैसी भावनाएँ जागें । इसमें तीन साल की कैद या फिर जुर्माना या दोनों हो सकता है ।

दूसरा है धारा 292 : किसी भी अश्लील प्रकाशन पर ये लगता है (किताब, pamphlet, लेखन, ड्राइंग, पेन्टिंग हरेक पर लग सकता है)। पहली बार इस धारा में सजा होने पर दो साल की जेल होगी, दूसरी बार से पाँच साल की कैद है, साथ में जुर्माना भी हो सकता है ।

तीसरा है धारा 295 A : जानबूझ कर धार्मिक भावनाओं को क्षति पहुँचाने कि कोशिश में चाहे वो शब्दों से हो, इशारों से हो, किसी निशान या कुछ दिखा कर हो, हरेक “दुष्टतापूर्ण” गतिविधि पर ये लगता है। इसमें भी तीन साल की कैद और जुर्माना हो सकता है ।

चौथा है धारा 298 : ये शब्दों के “उच्चारण” पर लगता है। अगर कुछ ऐसा बोला है जिस से किसी कि धार्मिक भावनाएँ आहात होती हो, तो इस धारा में एक साल की कैद और जुर्माना हो सकता है ।

इसके अलावा जिन धाराओं/कानूनों का इस काम के लिए नाजायज इस्तेमाल होता है उनमें Indecent Representation of Women (Prohibition) Act of 1986, और SC and ST (Prevention of Atrocities) Act प्रमुख हैं ।

अभी हाल तक आवाज कुचलने के लिए IT Act of 2000 की धारा 66A का नेतागण जम कर इस्तेमाल कर रहे थे। आज कल ये धारा नहीं चलती, लेकिन अगर सोच रहे हैं कि जनता को “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” देने के लिए इसे हटाया गया है तो गलतफहमी निकाल दीजिये दिमाग से । IT Act किसी पर लगाने के लिए गिरफ्तार करने वाला अफसर DCP रैंक का चाहिए, अब हर आदमी फेसबुक चलाता है और उतने DCP पैदा करना संभव नहीं है। तो ये एक्ट सुविधाजनक नहीं बचा था इसलिए हटा दिया गया है ।

इन सब के बाद भी आप कह सकते हैं कि भारत में अपेक्षाकृत रूप से अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता काफी ज्यादा है। यहाँ कम से कम “मुक्तो-मन” ब्लॉग के लेखक को बीच बाजार मार नहीं डाला जाता है ।

इस से ज्यादा पाबन्दी आप पर फेसबुक लगाता है। शिकायतों के डर से नामी गिरामी लेखिका तसलीमा नसरीन का अकाउंट बन्द किया गया था। ये कोई इकलौती घटना नहीं है जब किसी सच लिख देने वाले के साथ ऐसा हुआ है।

(देश मंथन, 10 जुलाई 2015)

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