संजय कुमार सिंह, संस्थापक, अनुवाद कम्युनिकेशन :
मीडिया में ऐसा नहीं है कि अगर आपने एक स्तरीय मीडिया संस्थान में नौकरी शुरू की, अच्छा काम करते हैं, योग्य हैं तो उसी में रहेंगे, समय के साथ आपको तरक्की मिलती रहेगी और आप संतुष्ट या असंतुष्ट रहकर भी उसी में नौकरी करते हुए रिटायर हो जाएँ। अमूमन ऐसा देखने मे नहीं आता है – कुछेक अपवाद जरूर होंगे।
20-25 वर्षों से कॉरपोरेट संस्थानों की विज्ञप्तियाँ अनुवाद करते हुए लोगों का आना-जाना खूब देखा है और उसकी भी खबरें खूब अनुवाद की हैं। अक्सर ऐसा होता है कि संस्थान का स्तर कम होता है तो पद बढ़ जाता है पर यहाँ नौकरी करने आई हस्ती से संस्थान का कद बढ़ता है। या फिर पद नहीं बढ़ता है आप नौकरी में बने रहते हैं। कई बार पद भी बढ़ जाए, संस्थान भी ऊपर-नीचे का हो जाए पैसे नहीं बढ़ते और ज्यादातर नियुक्तियाँ तो बगैर किसी सूचना के हो जाने के बाद घोषित होती है। अगर किसी ने अपने संस्थान में अच्छी तरक्की पायी तो वह कुछ ही तरक्कियों के बाद संस्थान से शायद बड़ा हो जाता है। संस्थान में उसके लायक काम नहीं रहता है या फिर लोग वर्षों उपसंपादक की नौकरी करते रहते हैं। एक खबर पढ़ रहा था – उदय सिन्हा बने हरि भूमि अखबार दिल्ली के संपादक। याद आया, मैं छोटा था तो उदय सिन्हा दि हिन्दू के रिपोर्टर हुआ करते थे। जमशेदपुर किसी रिपोर्टिंग के सिलसिले में आये हुए थे। टाटा स्टील के कॉरपोरेट डिविजन में ही मैंने उनका नाम सुना था। 20-25 साल पहले जो हिन्दू में रिपोर्टर था वो अब हरिभूमि का संपादक। क्या लगता है आपको यह तरक्की है। उदय सिन्हा इससे पहले चैनल वन के मैनेजिंग एडिटर थे। चैनल वन भी हिन्दू के मुकाबले …. क्यू कहूँ। वहाँ भी पाँच साल चैन से रह पाये कि नहीं, पता नहीं। अब हरि भूमि में नयी नौकरी।
हम लोग छोटे थे तो ज्ञानवर्धन मिश्र एक बड़ा नाम था। दैनिक आज जब बिहार से नहीं छपता था तब इसके पटना संवाददाता रहे ज्ञानवर्धन मिश्र ने हाल में अखबार की दशा पर एक टिप्पणी लिखी थी जिसमें उनका परिचय इस प्रकार दिया गया था, लेखक ज्ञानवर्धन मिश्र बिहार के वरिष्ठ पत्रकार और “आज” के प्रभारी संपादक रहे हैं। इसके आलावा श्री मिश्र “पाटलिपुत्र टाइम्स” (पटना), “हिंदुस्तान” (धनबाद) एडिटोरियल हेड और “सन्मार्ग” (रांची) के संपादक रह चुके हैं। स्पष्ट है कि जो व्यक्ति इस अखबार के बिहार पहुँचने से पहले से इससे जुड़ा हुआ था वह इस अखबार के बिहार और झारखंड (तब एक ही था) से कई संस्करण शुरू होने और संपादकीय प्रभारी के पद तक पहुँचने पर भी अखबार में नहीं टिक पाया और कई दूसरे अखबारों में नौकरी करनी पड़ी। हालाँकि ऐसे उदाहरण कम हैं कि कोई अखबार में पहली सीढ़ी से शुरू करके किसी संस्करण का प्रभारी तक बने। ज्ञानवर्धन मिश्र ने अपनी टिप्पणी में कई मशहूर, स्थापित या बड़े नामों का जिक्र किया है और ये सब लोग योग्य होते हुए भी किसी एक या ज्यादा संस्थान में आराम से सुकून की नौकरी नहीं कर पाये। इसके कई कारण हो सकते हैं पर इनमें एक कारण यह तो है ही कि हिन्दी के अखबारों में ना प्रतिभा की इज्जत है ना उसे जोड़ कर रखने की कोई कोशिश होती है।
लंबे समय तक मुंबई जनसत्ता के स्थानीय संपादक रहे राहुल देव तरक्की पाकर जनसत्ता के संपादक बने पर कुछ ही साल रहे या रह पाये। अंग्रेजी से हिन्दी में आये, बेहद सक्रिय हैं पर नियमित नौकरी ना अंग्रेजी में ना हिन्दी में कर पाये। पता नहीं, मिली नहीं, की नहीं या कर नहीं पाए। ये तो कुछेक उदाहरण हैं और आम आदमी पार्टी में पत्रकारों की संख्या से भी लगता है कि मीडिया में ज्यादा काम कर चुके या अनुभव वाले लोगों की जरूरत नहीं है।
(देश मंथन, 06 अगस्त 2015)