इन बतछुरियों की काट ढूँढिए!

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कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :  

पाकिस्तान है कि मानता नहीं! मुँह में बात, बगल में छुरी! इधर बात, उधर छुरी! हम बतकही करते हैं, पाकिस्तान बतछुरी करता है! हर बार यही होता है. इस बार भी यही हुआ। वहाँ उफा में बात हुई। यहाँ बधाईबाजों ने महिमा गान शुरू किया। इधर अभी साझा बयान पर इतराने की अँगड़ाई उठी ही थी कि उधर जवाब में सीमा पार से बन्दूकों की आतिशबाजी चल पड़ी। कहीं कोई कोर-कसर बाकी न रह जाये, कहीं बातचीत का ‘असली’ नतीजा समझने में कोई गलतफहमी न रह जाये, इसलिए उधर से सशरीर कई आतंकवादी तोहफे भी फटाफट भेज दिये गये। पूरे सबूतों के साथ कि वे सारे के सारे पाकिस्तानी ही हैं। लो, कर लो बात!

पाकिस्तान के तीन प्लान!

पिछले करीब चालीस बरसों से पाकिस्तान यही कर रहा है। वह इधर बात करता है, उधर पीठ में छुरी घोंपता है। वह करगिल में धोखे की जंग कर चुका, संसद पर हमला करा चुका, मुम्बई पर हमला करा चुका और अब फिर वह पिछले कुछ दिनों से लगातार भारत को मुँह चिढ़ा रहा है। सीमा पर गोलीबारी और आतंकवादियों की नयी टोलियों के साथ वह पूरी बेशर्मी से अपनी साजिशों में लगा है। क्या वह भारत के धैर्य की परीक्षा ले रहा है? क्या वह भारत को उकसा रहा है कि म्याँमार जैसी कार्रवाई करके दिखाओ? और अगर ऐसा है तो क्या भारत को इस ‘ट्रैप’ में फँसना चाहिए? 

पाकिस्तान, दरअसल, बरसों से एक सधी-सधाई नीति पर चल रहा है। उसका प्लान ‘ए’ हमेशा से रहा है बतछुरी यानी बात भी करते रहो और भारत में आतंकवादी षड्यंत्र भी रचते रहो। बात करके दुनिया को दिखाते रहो कि पाकिस्तान सारे विवादों को सुलझाने के लिए किस तरह बातचीत के रास्ते पर चल रहा है और साथ-साथ आतंकवाद के रूप में भारत के लिए सिरदर्द भी पैदा करते रहो। प्लान ‘बी’ यह कि बात अगर किसी तरह बन्द हो जाये तो अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर का सवाल उठा कर उसे ‘द्विपक्षीय’ के बजाय अन्तरराष्ट्रीय बनाने की चेष्टा करो। और प्लान ‘सी’ यह कि बीच-बीच में करगिल जैसी कोशिश करके यह भी देखो कि पिछले युद्धों में मिली हार का बदला लिया जा सकता है या नहीं? 

इसके जवाब में भारत की नीति क्या रही है? सिर्फ एक यानी बातचीत करके झगड़े सुलझाये जाएँ और ‘मानवीय सम्पर्क’ और व्यापार बढ़ा कर जनता के बीच खाई कम की जाती रहे। लेकिन समय ने बार-बार सिखाया है कि पाकिस्तान से केवल बातचीत करते रहना कोई अक्लमंदी की बात नहीं है। बातचीत कर आप लगातार पिटते रहें, अपनी जनता के सामने बेबस साबित होते रहें, यह कौन-सी अक्लमंदी? फिर बात तो आप सरकार से करते हैं। लेकिन चाबी पीछे से पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के हाथ में होती है। सरकार तो वहाँ बस एक मुखौटा भर है, जो अन्तरराष्ट्रीय और कूटनीतिक मंचों पर कठपुतली की तरह पेश होती रहती है। लेकिन पर्दे के पीछे फैसले कुछ और होते हैं।

बेनजीर की किताब, नवाज का बयान!

पर्दे के पीछे के इस खेल को खुद पाकिस्तान की पूर्व प्रधान मन्त्री बेनजीर भुट्टो अपनी किताब ‘बेनजीर भुट्टो : रिकन्सिलिएशन, इसलाम, डेमोक्रेसी ऐंड द वेस्ट’ में उजागर कर चुकी हैं। इसके बाद किसी शक-शुबहे की कहाँ गुंजाइश रह जाती है। बेनजीर ने खुद लिखा है कि वह भारत-पाक के दो युवा और उदार नेताओं का दौर था, वह और राजीव गाँधी दोनों देशों के बीच सम्बन्ध सुधारने की तरफ तेजी से आगे बढ़ रहे थे, लेकिन आईएसआई इसमें अड़ंगे डालने में जुटी थी और यहाँ तक कि उसने बेनजीर को ‘भारतीय एजेंट’ तक कह कर बदनाम करने की कोशिश की। 

और यह एक बार नहीं हुआ। बेनजीर और राजीव की कोशिशों के दस साल बाद फरवरी 1999 में अटलबिहारी वाजपेयी और नवाज शरीफ के बीच ऐसी ही पहल शुरू हुई। लेकिन हुआ क्या? लाहौर यात्रा की गर्मजोशी अभी माहौल में ताजा ही थी कि तीन महीने के भीतर करगिल हो गया! क्योंकि सेना-प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ कोई दोस्ती नहीं चाहते थे! इस बार नवाज शरीफ का बयान आया कि करगिल के बारे में तो उन्हें वाजपेयी जी के फोन से ही पता चला! पाकिस्तानी सत्ता तंत्र में सेना और आईएसआई की इस कुटिल सच्चाई का इससे बड़ा और क्या सबूत चाहिए!

क्या ऐसे होती है दोस्ती?

और तीसरी बार पीठ में छुरा तब घोंपा गया, जब ख़ुद मुशर्रफ राष्ट्रपति थे और सरकार, सेना, आईएसआई तीनों की कमान उनके हाथ में थी। जुलाई 2001 में आगरा में वाजपेयी-मुशर्रफ मुलाकात हुई, बातचीत बनते-बनते अचानक क्यों उखड़ गयी, यह अब भी रहस्य के घेरे में है। लेकिन मुशर्रफ के आगरा दौरे के पाँच महीने के अन्दर ही संसद पर हमला हो गया! और देखिए। अप्रैल 2005 में क्रिकेट डिप्लोमेसी के बहाने मुशर्रफ फिर भारत आये, प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह और उनके बीच फिर बड़ी अच्छी बात हुई। लेकिन हुआ क्या? छह महीने के भीतर ही, ऐन दिवाली के पहले दिल्ली के सरोजनी नगर में हुए आतंकी विस्फोटों में साठ से ज्यादा लोग मारे गये। 

देखा आपने कि बात करके क्या मिला? एक लाइन का निष्कर्ष यह है कि पाकिस्तान से बात हो तो होश मत गँवाइए। उड़ने मत लगिए, बल्कि और चौकस रहिए। लेकिन पाकिस्तान को प्लान ‘बी’ का मौका न मिले, इसलिए बातचीत तो बन्द करना भी अक्लमंदी नहीं। बात तो करनी ही है, लेकिन बातें करने के साथ-साथ भारत को यह जरूर सोचना चाहिए कि वह बतछुरी का सही जवाब कैसे देता रहे। वह पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार से बात करते हुए वहाँ की सेना और आईएसआई से कैसे निबटे? भारत को इसका कोई न कोई प्रभावी तरीका ढूँढना ही होगा। लेकिन क्या वह तरीका म्याँमार जैसा हो सकता है? शायद नहीं। हालाँकि कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि एक-दो बार ऐसी कार्रवाई सफलतापूर्वक कर दी गयी तो पाकिस्तान सबक सीख जायेगा और औकात में आ जायेगा। लेकिन यह तर्क सही नहीं है, वरना तो 1971 और फिर करगिल की शर्मनाक पराजयों के बाद पाकिस्तान को रास्ते पर आ ही जाना चाहिए था। दूसरी बात यह कि ऐसा कोई कदम किसी बड़े युद्ध में भी बदल सकता है। आज की दुनिया में ताकत आर्थिक विकास से आती है, युद्ध से नहीं, यह बात हमें याद रखनी होगी। 

इसीलिए भारत को ठंडे दिमाग से सोच-समझ कर अपनी पाकिस्तान नीति नये सिरे से तय करनी चाहिए। और खास कर पाकिस्तान से उठ रहे आईएसआईएस के नये खतरे पर भी चौकस नजरें रखनी चाहिए। जो पाकिस्तान एक तरफ अमेरिका को अपनी धरती से ‘आतंक के खिलाफ युद्ध’ के लिए सारी सुविधाएँ मुहैया करा रहा था, वही दूसरी तरफ अमेरिका के सबसे बड़े दुश्मन और दुनिया के सबसे बड़े आतंकी नेटवर्क अल कायदा के मुखिया उसामा बिन लादेन को अपनी सैनिक छावनी में छिपाये भी हुए था। ऐसे दोमुँहे पाकिस्तान पर आप कैसे भरोसा कर सकते हैं कि वह आपके खिलाफ आईएसआईएस को अपना नया हथियार बनाने की घिनौनी साजिश नहीं रच रहा होगा! अभी पिछले दिनों पाकिस्तान में आईएसआईएस के उर्दू में छपे पर्चों के मिलने के बाद पूरी कहानी में इस नये पेंच को भला कैसे अनदेखा किया जा सकता है?

(देश मंथन, 08 अगस्त 2015)

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