संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मेरे मन में हमेशा से था कि अगर मैं कभी इटली आया तो कोलेजियम जरूर जाऊँगा, जहाँ ईसा पूर्व कई सौ वर्ष पहले बने उस स्टेडियम में जरूर जाऊँगा, जहाँ ग्लैडिएटर्स कहे जाने वाले योद्धा जमींदारों की मौज के लिए मरने को लड़ते थे। मैं इटली के रोम आया तो शहर के बीच मौजूद पवित्र देश वैटिकन की यात्रा पर सबसे पहले पहुँचा, फिर मैं उस कब्रगाह में भी गया, जहाँ पहली और दूसरी सदी में मसीहियों के शवों को दफनाया जाता था। जमीन से कई मंजिल नीचे बने इस कब्रगाह की कहानी बेहद दिलचस्प है, लेकिन अभी मैं आपको अपने साथ लिए चलता हूँ उस स्टेडियम में, जिसमें दरअसल रोम शहर का रोम-रोम बसा है।
ईसा पूर्व बने मिट्टी और ईंट के इस स्टेडियम का आकार दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान से छोटा नहीं, लेकिन यहाँ क्रिकेट या फुटबॉल के मैच नहीं होते। यहाँ सैकड़ों साल पहले आदमी को आदमी से लड़ाया जाता था। तलवारों से लैस दो योद्धा, मनोरंजन की वजह बनाये जाते थे, जमींदारों और उनके दोस्तों के लिए।
यह एक निहायत असभ्य खेल था, जिसमें दो इंसान लड़ते थे और एक को इसमें से निश्चित रूप से मरना पड़ता था। मतलब किसी एक की मौत तय थी।
मौत के इसी जश्न को इस स्टेडियम में बैठ कर तालियाँ पीटते हुए जमींदार, उनके परिजन, उनके चंपू सब देखा करते थे।
यह पूरी कहानी शुरू होती है, ईसा मसीह के जन्म के कुछ सौ साल पहले और रोम ने मानव असभ्यता से भरे इस खेल को खेले जाने वाले मैदान और उसकी इमारत को संजो कर रखा है, ताकि मानव की आने वाली पीढ़ियाँ देख सकें कि देखो, कितनी बर्बरता के दौर से निकल कर हम यहाँ पहुँचे हैं। हम अमन और चैन की ओर जन्म की गौरवमयी गाथा कहते और सुनते हुए नहीं पहुँचे, बल्कि समाज और देश ने मानव सभ्यता के इस क्रमिक विकास के पर्व को मनुष्य के खून में खुद को रंग कर विकसित किया है।
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दोपहर का खाना खाने के बाद मेरी दिलचस्पी इस जगह जल्दी से जल्दी पहुँचने की हो गई थी। मेरी टीम में कुछ लोगों का मन स्ट्रीट पर खरीदारी करने का भी रहा होगा, लेकिन मेरे लिए रोम के उस इतिहास को अपनी आँखों से देखने की जल्दी थी, जहाँ बस कर ही सचमुच रोम का रोम-रोम आज एक सभ्य समाज बन सका है।
टिकट लेकर मैं ढाई हजार साल से अधिक पुरानी इस जर्जर इमारत के भीतर दाखिल हो सका। मेरे गाइड ने मुझे समझाया कि तब करीब साठ हजार लोग यहाँ मानव मौत के युद्ध का लुत्फ उठाने के लिए एक साथ बैठ सकते थे। चारों ओर स्टेडियम और बीच में गहरे तक बसे मैदान को देख कर मेरी रूह बिल्कुल नहीं काँपी। बल्कि मुझे खुशी हुई कि समय के क्रमिक विकास में यही रोम शहर खुद को तैयार कर रहा था, भावनाओं से संचालित होने के लिए।
बेशक मुझसे मेरी माँ ने कहा था कि आदमी भावनाओं से संचालित होता है, कारणों से तो मशीनें चला करती हैं, पर मुझे यकीन है कि प्रभु ईशु ने भी आदमी के लिए भावनाओं से चलने की तरफदारी की होगी। यकीनन इस देश में इस तरह के खूनी खेल उनके होने से पहले ही शुरू हो सकते थे। मुमकिन है कि उनके होने के बाद भी कुछ बिगड़ैल जमींदारों ने अपना मनोरंजन ऐसे ही खेलों से साधा होगा। पर अगर आपसी दुश्मनी को कैसे भूल कर फिर मानवता के सीने से लगा जा सकता है, यही देखना हो, तो एकबार यूरोप की यात्रा जरूर करनी चाहिए। एक बार उस धर्म देश में जरूर जाना चाहिए, जो किसी मुल्क के बीच में एक अलग मुल्क बन कर रहने का भी हौसला दिखाता हो।
मैं चाहूँ तो ग्लैडिएटर्स के लड़ने की इस जगह को उनका एम्पी थिएटर्स भी कह सकता हूँ। इस जगह को पेट्रोनियस भी कह सकते हैं। पर मैं यहाँ यह देखने नहीं पहुँचा था कि किस तरह की ईंट और मिट्टी से इनका निर्माण किया गया। मैं यहाँ पहुँचा था यह महसूस करने के लिए मौत के इस खेल से मुक्ति पाने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ी, इस पूरे समाज को।
और अपने जानने की इसी चाहत में मैंने पाया कि जला दिये जाने, बांधने, मारने और तलवार से मृत कर दिये जाने को सहन करने के लिए शपथ लेने वाले ग्लैडिएटर्सों के बीच से ही निकल कर स्पार्टकस नामक एक दास ने कैसे इस पूरे खेल की पारी बदल दी और जमींदारों को समझाने में कामयाब रहा कि आदमी होने का अर्थ होता है, जीओ और जीने दो। मरो और मार दो का सिद्धांत समय के साथ बदल गया है।
यूरोप ने विध्वंस का इतिहास देखा है। उस जीया है, इसलिए पूरे यूरोप के लिए अब जीने का एक मतलब जीना होता है।
काश! हम यह समझ पाते कि जीओ और जीने दो को ही जीना कहते हैं। रोम और भारत की सभ्यता एक दूसरे के बहुत करीब से होकर गुजरने वाली सभ्यता है। पर हम कब सोच सकेंगे कि ‘मरो या मारो’ वाले खेल को खेलाने वाले हमारे राजनीतिक जमींदार हमें आज भी ग्लैडिएटर की तरह इस्तेमाल करके सिर्फ अपना मनोरंजन करते हैं।
तरीका बदल गया है। स्टेडियम बदल गया है। शहर बदल गया है, देश बदल गया है।
खेल कब बदलेगा, यह देखने का इंतजार रहेगा।
नोट- यह तस्वीर उन्हीं खूनी अखाड़ों की है, जहाँ आदमी-आदमी को मारने का खेल खेलता था, और जमींदार उपर बैठ कर आनन्द उठाया करते थे।
(देश मंथन, 12 अगस्त 2015)