लोकतत्व के अभाव में रचे साहित्य का विधवा विलाप

0
355

संदीप त्रिपाठी : 

साहित्यकार कौन है? कहानियाँ, कविताएँ, नाटक, उपन्यास, ललित निबंध, व्यंग्य, आलोचना लिखने वाला साहित्यकार है? आप गोपाल दास नीरज, उमाकांत मालवीय़ को साहित्यकार मानते हैं? कुँवर बेचैन, सुरेंद्र शर्मा, काका हाथरसी, हुल्लड़ मुरादाबादी, चकाचक बनारसी साहित्यकार हैं या नहीं? ओमप्रकाश शर्मा, गुलशन नंदा, सुरेंद्र मोहन पाठक, वेदप्रकाश शर्मा साहित्यकार हैं या नहीं? राजन-इकबाल सिरीज लिखने वाले एससी बेदी क्या हैं? विज्ञान कथाएँ लिखने वाले गुणाकर मुले साहित्यकार माने जायेंगे या नहीं? बच्चों के लिए साहित्य रचने वाले क्या हैं?

साहित्यकार होने का पैमाना क्या है? जिनकी लिखी रचनाएं-पुस्तकें ज्यादा बिकी हों, पढ़ी गयी हों, यानी क्या बिक्री साहित्यकार के बड़े होने का पैमाना है? या आलोचक जिसे साहित्यकार मानें, वही साहित्यकार हो सकता है? जिसने ज्यादा लिखा है वह साहित्यकार है या जिसे कम लिखा लेकिन गुणवत्ता पूर्ण लिखा, वह साहित्यकार है? 

किसी रचना की गुणवत्ता कैसे तय होगी? पाठक जिसे ज्यादा पढ़ें, उस रचना में गुणवत्ता होगी या आलोचक जिस पर मुहर लगा दें, वह गुणवत्तापूर्ण होगी? आलोचक को किसी रचना की गुणवत्ता तय करने का अधिकार देने के आधार क्या हैं? यह किसने तय किया और किसने उसे मान्यता दी कि फलाँ विचारधारा से जुड़े होने पर ही आप द्वारा रचित किसी रचना को साहित्य माना जायेगा?

साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता रहा है। आईना तो सबको पसंद होता है। सब में सब शामिल हैं। लेकिन आज का साहित्य पाठकों से कटा हुआ है। यह मैं नहीं कह रहा हूँ, प्रलेस, जलेस और जसमं की गोष्ठियों से रूबरू हुए लोग यह जानते हैं कि इन गोष्ठियों में पठनीयता के संकट की बहुत चर्चा होती है।

दरअसल पठनीयता का संकट इसी कारण से है कि यह व्यवस्था बना दी गयी है कि अगर आप किसी खास संगठन के सदस्य नहीं हैं, तो आप साहित्य नहीं रच सकते, या फिर आपके रचे को साहित्य का दर्जा नहीं दिया जायेगा। जसमं से जुड़ा आलोचक प्रलेसं या जलेसं के सदस्य की रचना को स्तरहीन बतायेगा या नोटिस नहीं करेगा, प्रलेसं से जुड़ा आलोचक जसमं या जलेसं के सदस्य की रचना को स्तरहीन बतायेगा या नोटिस नहीं करेगा और जलेसं से जुड़ा आलोचक 

प्रलेसं या जसमं के सदस्य की रचना को स्तरहीन बतायेगा या नोटिस नहीं करेगा। अगर कोई इन तीनों संगठनों से नहीं जुड़ा है तो यह तीनों मिल कर उसकी रचना को या तो नोटिस नहीं करेंगे या स्तरहीन बतायेंगे। यानी इन्होंने खुद को साहित्त्य के मठ के रूप मान्यता दे रखी है, जनता माने या नहीं, इन्हें फर्क नहीं पड़ता।

इन संगठनों से जुड़े लोग जनता के नजरिये से नहीं, बल्कि एक खास विचारधारा के चश्मे से साहित्य लिखते हैं जो जनता से बहुत दूर है। यही वजह है कि आज के साहित्य पर ये साहित्यकार भले अपनी पीठ थपथपा लें या एक गिरोह बना कर एक-दूसरे को अच्छा बतायें, अकादमियों और संस्थाओं पर कब्जा कर एक-दूसरे को पुरस्कार बाँट लें, लेकिन जनता इन्हें नहीं जानती। दरअसल एक खास विचारधारा को बढ़ाने वाली रचनाओं को ही ये लोग साहित्य मानते हैं और साहित्य से लोक तत्व लापता है। लोकतत्व न होने से इस साहित्य और इन साहित्यकारों से जनता को कोई मतलब नहीं है। यही कारण है कि अब तक 25 लोग तमाम पुरस्कार लौटा चुके, लेकिन जनता में कोई सुगबुगाहट नहीं है। 

हे साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटाने वालों, पहले साहित्य को मठाधीशों, चापलूसों, स्वार्थी तत्वों से मुक्त करो। अपने साहित्य में विचारधारा नहीं, लोक की बात करो, लोक की बात कहो, तभी इन पुरस्कारों या सम्मानों को लौटाने का कोई अर्थ होगा। वरना यह पुरस्कार लौटाना महज एक गिरोह का अपनी सत्ता को बचाने का विधवा विलाप ही समझा जायेगा।

(देश मंथन, 13 अक्तूबर 2015)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें