नयनतारा से मुनव्वर एक डूबते हुए वंश को बचाने के लिए हुए क्रांतिकारी

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अभिरंजन कुमार, पत्रकार :

अब आप इसे सेक्युलरिज्म की लड़ाई कहें, अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले के खिलाफ सघर्ष कहें या बढ़ती असहिष्णुता का विरोध… नयनतारा सहगल से लेकर मुनव्वर राणा तक आते-आते यह साफ हो चुका है कि बिहार चुनाव के ठीक बीच लेखकों का “पुरस्कार लौटाओ अभियान” पूर्णतः सियासी है। जिन डिजर्विंग और नॉन-डिजर्विंग लेखकों पर अतीत में अहसान किये गये, आज एक डूबते हुए वंश को बचाने और देश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने के लिए उनका इस्तेमाल किया जा रहा है।

लेखकों की यह एकजुटता ठीक उसी मकसद से पैदा हुई है, जिस मकसद से बिहार में लालू, नीतीश और कांग्रेस इकट्ठा हुए हैं। अभी इस महा-गठबंधन में कम्युनिस्ट पार्टियाँ शामिल नहीं हैं, लेकिन देर-सबेर उन्हें भी इसमें आना ही है, क्योंकि कांग्रेस के साथ के बिना भारत में वामपंथ की साँस फूलने लगती है। 1975 की इमरजेंसी से लेकर 1996 की रामो-वामो और 2004 की यूपीए सरकार तक यह प्रमाणित है। आज जो लेखक इकट्ठा हुए हैं, वह वास्तव में इन्हीं दलों से जुड़े लेखकों का “महा-गठबंधन” है।

विरोध इस बात का भी नहीं है कि लेखकों का कोई गठबंधन बनता है या वे किसी खास राजनीतिक दल या गठबंधन के लिए काम करते हैं। लोकतंत्र में उन्हें भी किसी दल या गठबंधन का समर्थन या विरोध करने का उतना ही हक है, जितना एक आम नागरिक को। समस्या तब होती है, जब आप जनता की आँखों में धूल झोंकने लगते हैं। हिडेन एजेंडा चलाने लगते हैं। जब बड़ी-बड़ी बातों के आवरण में छोटे-छोटे खेल खेलने लगते हैं। हमारे लोकतंत्र में पब्लिक को ठगने वाले पहले से ही बहुत सारे हैं। अब क्या लेखक भी ठगी के इस कारोबार में शामिल हो जाना चाहते हैं?

ढोंग छोड़िए और साफ बोलिए न …कि हम कांग्रेस-लेफ्ट का समर्थन या भाजपा का विरोध करते हैं। …कि हम बिहार चुनाव में भाजपा को हराना चाहते हैं। …कि हमें देश में फिर से कांग्रेस की सरकार चाहिए। …कि हमारी ख्वाहिश है कि एक बार वामपंथियों की अपने दम पर सरकार बने। साफ-साफ बोलिए और बहस छेड़िए। अगर हम भी सहमत हुए तो आपके साथ हो लेंगे। लेकिन एक छिपे हुए एजेंडे के तहत हिन्दुओं-मुसलमानों को आमने-सामने खड़ा कर देना, तिल का ताड़ बना कर देश को बदनाम करना, लोकतंत्र में जो त्योहार पाँच साल बाद आता है, उसे असली मुद्दों से भटका देना- यह क्या है?

यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि मेरा विरोध “पुरस्कार लौटाओ अभियान पार्ट-2” से है। इसके बावजूद कि “पुरस्कार लौटाओ अभियान पार्ट-1” भी वामपंथी लेखकों द्वारा ही छेड़ा गया था, हमने उसका समर्थन किया। अगर सचमुच मूर्तिपूजा और अंधविश्वास के खिलाफ लिखने की वजह से ही कलबुर्गी की हत्या हुई, तो साहित्यकारों का यह फर्ज़ था कि वे लोकतांत्रिक तरीके से अपना विरोध दर्ज कराएँ। ऐसे में उदय प्रकाश और कुछ कन्नड़ लेखकों ने पुरस्कार लौटाकर प्रतिरोध प्रकट करने का जो तरीका चुना, उसमें तब तक एक गरिमा थी, क्योंकि तब तक सियासत गौण थी और मकसद अहम था।

पार्ट-2 तक आते-आते वही “पुरस्कार लौटाओ अभियान” एक इनडीसेंट मूवमेंट में तब्दील हो गया, क्योंकि इसमें सियासत हावी है और मकसद संदिग्ध है। नयनतारा सहगल के कूदते ही यह अभियान कलंकित हो गया और साफ झलकने लगा कि बिहार चुनाव के बीच में दादरी कांड के बहाने एंटी-बीजेपी पार्टियाँ इन लेखकों को वोटों के ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल कर रही हैं। जिन लोगों ने दादरी करवाई- वे भी सांप्रदायिक हैं। जिन लोगों ने राई का पहाड़ बनाया- वे भी सांप्रदायिक हैं। दोनों पक्षों ने जबरन इसे हिन्दू-मुस्लिम रंग दिया और देश के लहू में नफरत का इंजेक्शन लगाने की कोशिश की। दुर्भाग्य से हमारे लेखक इस घिनौनी सांप्रदायिक राजनीति में नफरत के उसी इंजेक्शन का “सीरिंज” बन गये हैं।

नयनतारा सहगल को तो अपना वंश बचाना है। वह मोतीलाल नेहरू की अपनी नातिन हैं, जवाहर लाल नेहरू की अपनी भाँजी हैं, इंदिरा गाँधी की अपनी फुफेरी बहन हैं, राजीव गाँधी/सोनिया गाँधी की अपनी फुफेरी मौसी हैं, राहुल गाँधी/प्रियंका गाँधी की अपनी फुफेरी दादी हैं। रिश्ता इतना नजदीकी है। पोते (राहुल) और पतोहू (सोनिया) के राजनीतिक भविष्य पर संकट है। वंश का अपील समाप्त हो गया है। आखिर कुछ तो करना होगा। मुमकिन है सोनिया, राहुल, प्रियंका, वाड्रा से उनकी बात हुई हो। क्या करना है- इसपर चर्चा हुई हो। और उस चर्चा में जो तय हुआ हो, वही नयनतारा मैडम ने किया है।

नयनतारा मैडम की संवेदनशीलता और क्रांतिकारी तेवरों के बारे में क्या बात करें? 1984 में, जब भतीजे राजीव गाँधी के प्रधानमंत्री बनते ही सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने खड़े होकर दिल्ली में 3,000 सिखों की हत्या करवा दी, तब उन्हें कुछ दिखायी नहीं दिया था। राजीव गाँधी ने पीड़ितों को इंसाफ देने की बजाय जले पर नमक छिड़कते हुए कहा कि “बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती हिलती ही है।“ मोदी की चुप्पी पर सवाल खड़े कीजिए, लेकिन बताइए कि भारत के प्रधानमंत्रियों के इतिहास में इससे ज़्यादा घृणित, आपराधिक और दंगाई मानसिकता वाला हत्यारा बयान आज तक दूसरे किस प्रधानमंत्री ने दिया? भतीजे ने पीएम बनने के दूसरे ही महीने दिसंबर 1984 में भोपाल गैस कांड में हजारों हिन्दुस्तानियों की मौत के जिम्मेदार अमेरिकी उद्योगपति वारेन एंडरसन को रातों-रात भगा दिया। लेकिन मैडम ने भतीजे की सरकार से साहित्य अकादमी पुरस्कार ले ही लिया।

अब 30 साल बाद, दादरी में एक व्यक्ति की हत्या पर मैडम का जमीर कोमा से निकल आया है। अगर आज भी देश में सोनिया-राहुल की सरकार होती, तो यह तय है कि दिल्ली और भोपाल की तरह अगर कहीं हजारों-लाखों लोगों की हत्या भी हो जाती, तो उनकी क्रांतिकारी चेतना को ऐसे पँख नहीं लगते। बहरहाल, जब “खानदानी” लेखिका नयनतारा सहगल ने पुरस्कार लौटा दिया, तो “खानदान” के “कद्रदानों” के लिए तो जुलूस बाँधकर निकलना बनता ही था।

मुझे इस बात की पक्की जानकारी है कि कुछ लोगों ने जरूर पब्लिसिटी के चक्कर में स्वेच्छा से पुरस्कार लौटाये हैं, लेकिन कई लोगों पर दबाव बनाया गया, अहसानों का मोल चुकाने को कहा गया, लेखक-एकता और लड़ाई का वास्ता दिया गया। बिरादरी से बहिष्कृत होने के डर से… अछूत घोषित कर दिये जाने के डर से भी कइयों ने पुरस्कार लौटाये हैं। मुनव्वर राणा इन्हीं में से एक हैं। “सत्ता इनके शहर रायबरेली की नालियों से बहती हुई दिल्ली पहुँचती है।“ अच्छे शायर हैं, लेकिन सोनिया की चापलूसी में इन्होंने जो कविता लिखी है, उसे पढ़ कर किसी भी स्वाभिमानी लेखक का सिर शर्म से झुक जाएगा।

यानी, नयनतारा से लेकर मुनव्वर तक… लेखकों का सोनिया-राहुल कनेक्शन स्वतः स्पष्ट है। बीच में जिन लेखकों का लेफ्ट कनेक्शन है, उन्हें इन कांग्रेसी लेखकों से कनेक्ट होने में इसलिए परेशानी नहीं हुई, क्योंकि कांग्रेस और लेफ्ट पार्टी के बीच एक बार फिर से अंदरूनी कनेक्शन स्थापित हो चुका है और अगर बिहार चुनाव में अपेक्षित रिजल्ट मिला, तो इस कनेक्शन का खुला एलान भी होगा। इन सबका कहना है कि देश में असहिष्णुता बहुत बढ़ गयी है और अभिव्यक्ति की आजादी को कुचला जा रहा है, लेकिन इतिहास देखेंगे तो समझ आएगा कि मोदी के मंसूबे चाहे जो हों, लेकिन इन आरोपों की कसौटी पर नेहरू-गांधी खानदान के “हाथियों” के सामने अभी वे “चींटी” समान हैं।

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने तो देश के पहले राष्ट्रपति और पहले नागरिक राजेंद्र प्रसाद की ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हड़प ली थी और कई बार ऐसा हुआ, जब रेडियो से उनका भाषण प्रसारित ही नहीं होने दिया। तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की 1975 की इमरजेंसी कु-कथा को कौन नहीं जानता। छठे प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1986 में शाहबानो मामले में करोड़ों मुस्लिम महिलाओं के हक और देश में न्याय की सुप्रीम व्यवस्था को कुचलते हुए सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट दिया था। फिर 1988 में डेफेमेशन बिल लाकर प्रेस की आजादी छीनने और इमरजेंसी पार्ट-2 लाने की कोशिश की थी।

कहना नहीं होगा कि लेखकों का यह आंदोलन साहित्य और साहित्यकारों की गरिमा को गिराने वाला आंदोलन है। जब साहित्य सियासत की गोद में बैठ जाएगा और सियासी मास्टरमाइंड अपनी बंदूकें चलाने के लिए साहित्यकारों के कंधों का इस्तेमाल करेंगे, तो यह साहित्य और समाज दोनों के लिए बुरा होगा। आज मीडिया से लोगों का भरोसा उठता जा रहा है। कल साहित्य से भी उठ जाएगा। साहित्य और साहित्यकारों की विश्वसनीयता बनी रहनी चाहिए। अगर कल को भाजपा-आरएसएस के हिडेन एजेंडे पर चलने वाले लेखक भी ऐसी गिरोहबाजी करेंगे, तो हमें उनका भी विरोध करना पड़ेगा।

(देश मंथन, 21 अक्तूबर 2015)

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