अभिरंजन कुमार :
बिहार चुनाव एक पहेली की तरह बन गया है। अगड़े, पिछड़े, दलित, महादलित-कई जातियों/समूहों के लोगों से मेरी बात हुई। उनमें से ज्यादातर ने कहा कि उन्होंने बदलाव के लिए वोट दिया, लेकिन साथ ही वे इस आशंका से मायूस भी थे कि बदलाव की संभावना काफी कम है।
बदलाव के लिए वोट करने, फिर भी बदलाव नहीं होने की आशंका से मायूस ऐसे तमाम लोगों से जब मैंने पूछा कि अगर आप सबने बदलाव के लिए वोट दिया, तो बदलाव क्यों नहीं होगा? उन सबका जवाब एक ही था और बड़ा दिलचस्प था- ‘मैंने तो बदलाव के लिए वोट किया, लेकिन ‘उसने’ नहीं किया।’
अब मैं उस “उसने” को ढूंढ़ रहा था, जिसे बिहार में बदलाव नहीं चाहिए। मुझे “उसने” मिले, लेकिन कम मिले। यहाँ यह डिस्क्लेमर दे दूँ कि मैंने बड़ी संख्या में लोगों से यूँ ही चलते-फिरते राय पूछी, कोई वैज्ञानिक सर्वे नहीं किया। फिर भी मुझे ऐसा लगा कि इस बार बिहार में उसकी “हवा” नहीं चल रही, जिसकी जीत होने वाली है।
हालाँकि यह अपने आप में एक दिलचस्प और विचित्र स्थिति है। मुझे लगता है कि बिहार के बारे में जो कन्फ्यूजन फैला है, उसकी कई वजहें हैं-
एक : कि यह एक जाति-विभक्त समाज है और प्रोग्रेसिव से प्रोग्रेसिव वोटरों तक पर नाखून में स्याही लग जाने की घड़ी तक अपनी ही जाति में वोट देने का जबर्दस्त दबाव रहता है। ऐसे माहौल में लोग अपनी पक्षधरता के बारे में खुल कर बोलने से कतराते हैं।
दूसरा : कई जगहों पर अलग-अलग पार्टियों ने “दबंग” या खुलकर कहें, तो ऐसे “अपराधियों” को टिकट दे रखा है, जो कभी न कभी पुलिस से भागते फिरते थे, उनके असर वाले क्षेत्रों के वोटर अपनी पक्षधरता के बारे में खुल कर बात करके कोई जोखिम नहीं लेना चाहते।
तीसरा : कागज पर गणित लगाने वाले लोग जब अपना कैलकुलेशन करते हैं, तो जमीन पर भी उन्हें “तगड़ी फाइट” दिखायी देती है। ऐसे लोग ही ओपिनियन-मेकर हैं और आम लोगों को बताते हैं कि हवा किस तरफ चल रही है। अब जब मौसम-वैज्ञानिकों के आकलन में ही गड़बड़ी आ जाए, तो हवा की दिशा कैसे पता चलेगी?
बहरहाल, गठबंधनों के बारे में बात करें तो महागठबंधन ने शुरू में ही सारा कन्फ्यूजन और सारी लाज-शर्म छोड़कर चुनाव को अगड़ी और पिछड़ी जातियों की लड़ाई बनाने का एलान कर दिया। एनडीए इस चक्रव्यूह में फंस गया। उसे समझ में ही नहीं आया कि इसका जवाब कैसे दें।
कन्फ्यूज एनडीए ने महागठबंधन को जवाब देने के लिए जातिवाद भी किया, सांप्रदायिक कार्ड भी खेला और बीच-बीच में विकास के असल मुद्दे से भटका भी। यह उससे बड़ी चूक हो गयी, लेकिन जनता एनडीए के पंडितों से अधिक समझदार निकली। उसने पूरे खेल को समझा और कोई चूक नहीं की।
महागठबंधन के बिछाए इस चक्रव्यूह में सिर्फ एनडीए नहीं फंसा, मीडिया और मौसम-वैज्ञानिक भी फंसे। उन्होंने इस चुनाव के आकलन में अपने विवेक का इस्तेमाल छोड़ सारा ध्यान जातियों और संप्रदायों के गणित पर लगा दिया।
नतीजा : हवा तो अपनी ही दिशा में बह रही है, लेकिन जो हवा को भी जातियों और धर्मों में बाँटकर देखते हैं, वे उसे महसूस कैसे करें?
(देश मंथन, 29 अक्तूबर 2015)