मूँगफली खाते रोबोट

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आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार :

वक्त तेजी से बदल रहा है, इंसान का संवाद मशीनों से ज्यादा और रूबरू-इंसानों से कम हो रहा है।

तमाम आयोजनों के न्योते फेसबुक पर भेजे जा रहे हैं, जिन्हे फेसबुक न्योते मिल रहे हैं, वो भी फेसबुक पर ही लाइक करके अपनी जिम्मेदारी निपटा रहे हैं। फेसबुक पर बुलाया था, तो फेसबुक पर आ गये। व्यक्तिगत आकर बुलाते तो भी शायद फेसबुक पर ही निपटा देते, तुम्हे।

संवाद मशीन टू मशीन ज्यादा हो गया है, वन-टू-वन कम हो गया है।

मेरा मोबाइल आपके मोबाइल से बात कर रहा है, आपसे मिलकर रूबरू बात किये हुए जमाना हुआ-यह बात अधिकांश मित्रों के संदर्भ में सच ही साबित होती है।

सब तरफ मशीनें, डिवाइज, गैजेट जमे हुए हैं।

एयरपोर्ट पर तो अब आम है वह मशीन, देर-सबेर स्टेशनों, बस-अड्डों पर भी आ जायेंगी, जिनमें दस रुपये डालो और पीने के लिए पानी की बोतल निकालो और पीकर चलते बनो।

इधर से कैश गया उधर से आइटम आया, तो टाटा बाय-बाय।

उस दिन मैंने दिल्ली एयरपोर्ट पर ऐसी मशीन से तीस बोतलें निकालीं, यानी मैंने लघु स्तर का खास ग्राहक होने की पात्रता अर्जित कर ली थी। अगर किसी दुकान पर किसी दुकानदार से तीस बोतलें खरीदी होतीं, तो उसकी निगाहों में एकाध ग्राम इज्जत मेरे लिए बढ़ गयी होती। उसने एकाध बोतल शायद मुफ्त में भी दे दी होती। अगली मुलाकात में हालचाल पूछने की भूमिका भी बन जाती। पर मशीनें सौहार्द्र ना मानतीं। कतई नहीं मानतीं।

मशीनें इज्जत ना देतीं, हालाँकि वह बेइज्जत भी नहीं करतीं।

इंसान बेइज्जती भी कर देते हैं। किसी बैंक में किसी क्लर्क से अगर अपने खाते का बैलेंस दिन में पाँच बार पूछ लो, तो वह ऐसी निगाह से देखने लगता है कि मानो मैं नैनो कार का मालिक हूँ (सीएनजीवाली)। मशीन इस मामले में निरपेक्ष है। एटीएम से बीस बार बैलेंस चेक कर लो, वह बेइज्जत नहीं करती।

इज्जत जहाँ मिलने की संभावना होती है, बेइज्जती भी वहीं से मिलती है। मशीनें यह दर्शन समझा जाती हैं।

पर उस हुड़क का क्या करें, उस सामाजिकता का क्या करें, जो रह-रह कर सिर उठाती है।

मेरे एक परिचित रिटायर्ड बुजुर्ग हैं, जिनके पास टाइम और पैसे के सिवा कुछ नहीं है। कुछ नहीं इसलिए कि उनके बेटे उनसे बात करना टाइम खोटी करना समझते हैं। पत्नी इसलिए बात नहीं करती कि वो ही पुरानी साठ साल पुरानी बातें लेकर बैठ जाते हैं। इन बुजुर्ग का टाइम पास बैंकों में होता था। चार बैंकों में खाते हैं इनके अलग-अलग। पहले किसी बैंक में जाकर अपने बैंक बैलेंस से लेकर हाल-ए-दुनिया से लेकर वो सक्सेना की लड़की भाग गयी थी, उसका क्या हुआ-जैसे विषयों पर रोचक चर्चाएँ हो जाती थीं।

अब सरकारी बैंकों तक में काम बढ़ गया, तो बैंक क्लर्क कहने लगे इनसे-जी आप मोबाइल पर ही बैलेंस पूछ लिया करें या एटीएम से पूछ लिया करें। यहाँ चल कर ना आया करें, हमारा टाइम खोटी होता है।

बैलेंस तो एटीएम या मोबाइल बता देगा। पर सक्सेना की लड़की भाग गयी थी, उसका क्या हुआ-जैसे विषय तो मोबाइलोचित नहीं हैं। इस पर विमर्श के लिए तो रूबरू, व्यक्तिगत मुलाकात करनी पड़ती है।

मशीनों की दिलचस्पी कतई इस विमर्श में नहीं है कि सक्सेना की लड़की भाग गयी थी, उसका क्या हुआ-जैसे विषय तो मोबाइलोचित नहीं हैं।

मुझे सामाजिकता खतरे में दिखायी दे रही है। मुझे इंसानों के आपसी विमर्श संकट में दिखायी पड़ रहे हैं। देर सबेर सारे काम ही मशीनें करेंगी। रोबोट करेंगे। बैंकों में रोबोट ही लोन दे देंगे। रेस्त्राँ में रोबोट ही खाना बना कर खिला देंगे, पेमेंट ले लेंगे। ट्रेन, बस, सब कुछ रोबोट या मशीनें ही चला लेंगी। इंसान सामाजिकता को ना तरसे, आपसी संवाद से वंचित ना हो, इसके लिए अभी से कुछ कदम उठाने पड़ेंगे।

एटीएम, रोबोटों में कुछ मानवोचित बातचीत की आदतें डालनी होंगी, वरना मानव जीवन एकदम नीरस और व्यर्थ लगने लगेगा।

जापानी और अमेरिकन वैज्ञानिकों को इस संबंध में भारतीय समाजशास्त्रियों से राय-मशविरा लेकर काम करना चाहिए। एटीएम, रोबोट, मशीन वगैरह की प्रोग्रामिंग इस तरह से की जाये कि आनेवाले 50-100 सालों में कुछ इस तरह के दृश्य दिखायी पड़ें-

ग्राहक एटीएम पर जाये, तो कैश निकालने के बाद एटीएम ही खुद पूछ ले-और क्या हाल हैं। आजकल कम आना हो रहा है, क्या घर में कैश रिश्वत ज्यादा आ रही है।

या एटीएम खुद ही सवाल पूछने लगे-और बताओ क्या हुआ, तुम्हारे पड़ोस में सक्सेनाजी की बेटी भाग गयी थी, क्या हुआ उसका।

या कुछ ऐसे सवाल बैंक-रोबोट पूछने लगे-और शर्माजी कल उनसे फेसबुक चैट में क्या-क्या शेयर कर रहे थे।

मानवीयता बनी रहनी जरूरी है, मशीनों में।

काश ऐसी सर्दी में रोबोट मूँगफली टूँगता हुआ कायदे की गपबाजी करने लगे, सन 2,500 में ऐसी प्रार्थनाएँ नियमित हो जायेंगी।

(देश मंथन, 24 दिसंबर 2015)

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