फूट डालो, फ्रूट खा लो” की नीति पर चलते हैं पढ़े-लिखे लोग!

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अभिरंजन कुमार, पत्रकार :

कोई अगर “भारत माता की जय” या “वन्दे मातरम्” नहीं बोलता, तो न बोले, पर ऐसा भी न कहे कि मेरी गर्दन पर चाकू रख दोगे, तो भी नहीं बोलूँगा। न ही कोई सचमुच इस बात के लिए उसकी गर्दन पर चाकू रख दे कि बोलोगे कैसे नहीं?

यह सब अपनी-अपनी आस्था के विषय हैं। हिन्दुओं में भी कई आस्तिक होते हैं, कई नास्तिक होते हैं। जो नास्तिक होते हैं, वे किसी देवी-देवता की जय नहीं बोलते, तो क्या उन्हें धर्म और समाज से बाहर कर दिया जाना चाहिए या विधर्मी और असामाजिक मान लिया जाना चाहिए?

अगर हमारे मुस्लिम भाइयों-बहनों की अपनी कुछ धार्मिक मान्यताएँ हैं, जिनके चलते वह निराकार एकेश्वरवाद में यकीन रखते हैं और मूर्ति या चित्र रूप में किसी की उपासना नहीं करना चाहते, तो देश के नाम पर ही सही, उनपर ऐसा करने का दबाव नहीं डालना चाहिए।

अगर कोई ये नारे लगाता है कि “भारत तेरी बर्बादी तक जंग रहेगी” या “भारत तेरे टुकड़े होंगे” या “बंदूक के दम पर लेंगे आजादी”- तो यह निश्चित रूप से देशद्रोह है। जो उन्हें देशद्रोही नहीं मान कर उनका बचाव और समर्थन कर रहे हैं, मैं उनकी पुरजोर निंदा करता हूँ।

लेकिन मैं उन लोगों की भी निंदा करता हूँ, जो “भारत माता की जय” या “वन्दे मातरम्” जैसे नारे नहीं लगाने के चलते किसी को देशद्रोही करार दे देते हैं। मेरे ख्याल से देश के सभी नागरिकों को स्वयँ ही यह तय करने दिया जाना चाहिए कि वह अपने मुल्क से किस रूप में मोहब्बत करे।

अगर कोई “भारत तेरे टुकड़े होंगे” बोलता है, तो देश को नुकसान पहुँचता है। पर अगर कोई “भारत माता की जय” नहीं बोलता, तो इससे देश को क्या नुकसान पहुँचता है? अगर कोई देश को नुकसान पहुँचा रहा हो, तो बेशक उसे देशद्रोही बोलिए, पर जो नुकसान नहीं पहुँचा रहा, उसे देशद्रोही कैसे कह सकते हैं?

मुझे सबसे ज़्यादा शिकायत है देश के पढ़े-लिखे लोगों से, जो अपने स्वार्थ के लिए नफरत, उन्माद, जातिवाद और सांप्रदायिकता का धंधा करने में जुटे हैं। चूँकि पढ़े-लिखे लोग सामूहिक नहीं, व्यक्तिगत फायदे में यकीन रखते हैं, इसलिए वे “फूट डालो, फ्रूट खा लो” की नीति पर चलते हैं।

इसे मैं नियम की तरह तो पेश नहीं करना चाहता, लेकिन मेरा अनुभव यही है कि पढ़े-लिखे लोग अनपढ़-गरीब लोगों की तुलना में अधिक जातिवादी, सांप्रदायिक और देशद्रोही/देशघाती होते हैं। अगर हमारे पढ़े-लिखे लोग इतने जातिवादी और सांप्रदायिक न होते, तो देश से ये बुराइयाँ कब की खत्म हो गयी होतीं।

इतना ही नहीं, हमारे देश का एक अनपढ़-गरीब नागरिक तो इसी मिट्टी में पैदा होता है और इसी की सेवा करते हुए इसी में मिट जाता है। लेकिन एक पढ़ा-लिखा आदमी जैसे ही थोड़ा सक्षम हो जाता है, न सिर्फ़ दूसरे देशों में जा बसने का सपना देखने लगता है, बल्कि बात-बात पर देश बाँटने, देश तोड़ने या देश छोड़ने की धमकी भी देने लगता है।

उदाहरण के लिए, आपने विद्वान लेखक यूआर अनंतमूर्ति को देश छोड़ने की धमकी देते सुना, लेकिन क्या कभी किसी अनपढ़-गरीब हिन्दू को ऐसी धमकी देते सुना? इसी तरह, आपने विद्वान अभिनेता आमिर खान को भी देश छोड़ने की धमकी देते सुना, पर क्या किसी अनपढ़-गरीब मुसलमान को ऐसी धमकी देते सुना?

हमारे पढ़े-लिखे लोग अन्य तरीकों से भी देश की जड़ें खोखली करने में जुटे हैं। भ्रष्टाचार क्या है? अगर इससे देश को नुकसान पहुँचता है, तो क्या यह देशद्रोह/देशघात नहीं है? और अगर यह देशद्रोह/देशघात है, तो यह कौन कर रहा है इस मुल्क में? पढ़े-लिखे लोग या अनपढ़-गरीब लोग?

इसलिए बात हिन्दू-मुसलमान की है ही नहीं। भारत का हर अनपढ़-गरीब हिन्दू और मुसलमान देशभक्त है और इसी देश में जीने-मरने की तमन्ना रखता है। यह डिवीजन और डिस्ट्रक्शन वाला कीड़ा तो सिर्फ पढ़े-लिखे-सक्षम लोगों के दिमाग में है!

यानी कुछ न कुछ प्रॉब्लम तो हमारी शिक्षा-व्यवस्था में ही है! इसलिए दिल्ली हाई कोर्ट की जज प्रतिभा रानी ने सर्जरी वाली जो बात कही थी, मेरे ख्याल से उसकी सबसे ज़्यादा जरूरत हमारी शिक्षा-व्यवस्था में ही है। 

(देश मंथन, 18 मार्च 2016)

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