तारकेश कुमार ओझा :
सत्तर के दशक की सुपरहिट फिल्म शोले आज भी यदि किसी चैनल पर दिखायी जाती है तो इसके प्रति दर्शकों का रुझान देख मुझे बड़ी हैरत होती है। क्योंकि उस समय के गवाह रहे लोगों का इस फिल्म की ओर झुकाव तो समझ में आता है लेकिन नयी पीढ़ी का भी इस फिल्म को चाव से देखना जरूर कुछ सवाल खड़े करता है।
मैं सोच में पड़ जाता हूँ कि नई पीढ़ी के लोग आखिर करीब चार दशक पहले बनी इस फिल्म के साथ इतना जुड़ाव कैसे महसूस कर पा रहे हैं। क्योंकि अब न तो गब्बर सिंह की तरह देश में डाकू की कोई समस्या है और न ही अब ठाकुर जैसे जमींदार बचे हैं। वीरु, जय, बसंती और अंग्रेजों के जमाने के जेलर जैसे किरदार भी अब फिल्मी पर्दे पर कहीं नजर नहीं आते। इसके बावजूद इस फिल्म के प्रति लोगों के जुड़ाव का एकमात्र कारण है इसके पात्रों के साथ लोगों की कनेक्टीविटी। क्योंकि आज के दौर के लिहाज से देखें तो वीरु और जय जैसे सहज-सरल पात्रों को फिल्म जगत ने एक तरह से लंबे वनवास पर ही भेज दिया है। शायद ऐसे किरदारों के लिए रुपहले पर्दे पर अब कोई जगह बची ही नहीं। क्योंकि वीरू और जय न तो एनआरआई हैं और न ही महात्वाकांक्षी। उनके साथ ऐसा कोई बड़ा स्टारडम या विवाद भी नहीं जुड़ा है जिसे भुना कर अपनी तिजोरी भरी जा सके।
आज के दौर में तो बस बायोपिक के नाम पर चंद चर्चित-विवादित सेलीब्रेटी ही बचे हैं। इन पर फिल्म बनाने के लिए जितनी रकम खर्च करनी पड़े, करने को एक वर्ग तैयार है। शर्त बस इतनी है कि आदमी व्यावहारिक जीवन में सफलता के झंडे गाड़ चुका हो। जिसे लेकर फिल्म बनायी जा रही है उसका निजी जीवन यदि विवादों से भरा हो तो और भी अच्छा। क्योंकि इसकी आड़ में वो हर कला दिखायी जा सकती है जिसकी एक वर्ग को चाह रहती है, जिसके बल पर फिल्में बिकती और कमा पाती है। बेशक नीरजा और पाकिस्तान के जेल में लंबे समय तक यातना झेलने वाले सरबजीत सिंह पर बन रही फिल्म को इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। लेकिन दुर्भाग्य से बायोपिक के नाम पर फिल्म के केंद्र में रहने वाले शख्स के श्याम पक्ष को न्यायोचित ठहराना भी इसे बनाने वालों के लिए बाएँ हाथ का खेल हो गया है।
एक तरह से फिल्म बनाने वाले उस शख्सियत के वकील बन जाते हैं, जिसके जीवन पर फिल्म बनायी जा रही है। भाई सीधी सी बात है फिल्म यदि ऐसे व्यक्ति पर बन रही है जो सशरीर उपस्थित है तो वो तो फिल्म का प्रोमो से लेकर दि इंड तक देखेगा ही। यदि कुछ भी उसके मन के अनुकूल नहीं हुआ तो झट मुकदमा भी ठोंक देगा। लिहाजा फिल्में वैसे ही बन रही हैं जैसा इसके पीछे खड़ी ताकतें चाह रही हैं।
पता नहीं कितनी ही फिल्मों में देखा गया कि मोस्ट वांटेंड क्रिमिनल दाऊद इब्राहिम को फिल्म बनाने वालों ने महिमामंडित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। उसकी ऐयाशियों को रंगीनमिजाजी बता कर बचाव की कोशिश की गयी तो क्रूरता व विश्वासघात को महात्वाकांक्षा से जोड़ कर पेश किया जाता रहा। यह जतलाने की कोशिश की जाती रही कि बंदा बुरा नहीं है लेकिन थोड़ा महात्वाकांक्षी है और इसके लिए किसी भी सीमा तक जाने को हमेशा तैयार रहता है। हाल में एक विवादित क्रिकेट खिलाड़ी के जीवन पर बनी फिल्म में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला। उसकी काली करतूतों को भी न्यायोचित ठहराने की कोशिश की जाती रही।
मुझे आश्चर्य है कि बायोपिक के नाम पर एक ओर तो धड़ाधड़ चुनिंदा लोगों पर फिल्में बन रही है। सचिन तेंदुलकर से लेकर मैरीकाम, महेन्द्र सिंह धौनी और अजहरूद्दीन तक पर फिल्में या तो बन चुकी या बन रही है। लेकिन किसी भी फिल्म निर्माता की दिलचस्पी हॉकी के जादूगर ध्यानचंद पर फिल्म बनाने में नहीं है। जिन्होंने सीमित संसाधनों में देश का नाम दुनिया में रोशन किया। बदले में उन्हें वह कुछ भी नहीं मिला जो आज के खिलाड़ियों को मिल रहा है।
(देश मंथन, 30 मई 2016)