फ्रांस में श्रमिक आंदोलन क्यों गहराया

0
90

राजेश रपरिया:

फ्रांस में श्रमिक आंदोलन से वहाँ का जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। तेलशोधक कारखानों, परमाणु बिजलीघरों, बंदरगाहों और सड़क रेल परिवहन कर्मियों के श्रमिक इस आंदोलन में शामिल हुए थे।

सड़क और रेल यातायात चरमरा गया है। अब सफाईकर्मियों और विमानचालकों के शामिल होने से श्रमिक आंदोलन और गहरा गया है। लेकिन फ्रांस के समाजवादी राष्ट्रपति फ्रांसवा ओलंदे ने झुकने से इन्कार कर दिया है। वैसे उन्होंने भरोसा दिलाया कि श्रमिकों की हड़ताल से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, आयोजन पर कोई प्रभाव नहीं पडे़गा। पर इस हड़ताल में शामिल होने से विमानचालकों को रोकने में फ्रांसीसी राष्ट्रपति के प्रयास विफल हो गये हैं। आलम यह है कि खाद्य आपूर्ति गड़बड़ा गयी है। पेट्रोल पंपों पर तेल का अभाव है। रेल सेवाएँ बुरी तरह से प्रभावित हैं। फ्रांस की राजधानी पेरिस और उसके आसपास के शहरों में कूड़े का अंबार लगा हुआ है। वहाँ पर्यटन उद्योग में भी भारी गिरावट आयी है।

फ्रांस की समाजवादी सरकार ने मई में श्रम कानूनों में सुधार के लिए संसद के निचले सदन में बिना वोट और बहस कराये एक कार्यकारी आदेश के जरिये एक कानून बना दिया, जिससे वहाँ की दक्षिणपंथी पार्टियाँ भड़क गयीं। उन्होंने राष्ट्रपति ओलंदे के कदमों को अलोकतांत्रिक बताया और विरोध में सड़कों पर उतर आयीं। इस विधेयक के संसद में पारित होने से न केवल फ्रांस में श्रमिकों के काम की अवधि 35 घंटे से बढ़ कर 48 घंटे प्रति सप्ताह हो जायेगी, बल्कि मजदूरी दर में भी गिरावट आयेगी। इसके साथ ही श्रमिकों को मिलने वाली सुरक्षा सुविधाएँ भी कम हो जायेंगी। नियोक्ताओं को कभी भी श्रमिकों को निकालने का हक मिल जायेगा। सत्ताधारी समाजवादी पार्टी का कहना है कि इन कदमों से रोजगार बढ़ेगा और बेरोजगारी के दैत्य से छुटकारा पाने का मार्ग प्रशस्त होगा।

लेकिन फ्रांसीसी सरकार के तर्क न तो वहाँ के धुर दक्षिणपंथी दलों के गले उतर रहे हैं और न ही धुर वामपंथी श्रमिक संघों के। वैसे भी छँटनी का मनमाना अधिकार बढ़ने से रोजगार कैसे बढ़ेगा, यह तर्क ही हजम होना मुश्किल है। त्रासदी यह है कि मौजूदा सत्ताधारी दल चुनावों में श्रमिक कल्याण, युवाओं को रोजगार और भारी सुविधाओं देने के लुभावने वादों से सत्ता पर काबिज हुआ था। 

फ्रांस के श्रमिक संघों का कहना है कि रोजगार बढ़ाने के नाम पर पिछले 15-20 सालों से श्रम सुधार किये जा रहे हैं, लेकिन अरसे से वहाँ बेरोजगारी दर 9-12 फीसदी के बीच बनी हुई है। इस समय यह दर तकरीबन 10 फीसदी है। फ्रांस में तकरीबन 57 लाख लोग बेरोजगार हैं, जिनमें अंशकालिक श्रमिक भी शामिल हैं। युवाओं में बेरोजगारी की दर 25 फीसदी है। फ्रांस में इस समय जो भी रोजगार मिल रहे हैं, उनमें 85 फीसदी अस्थायी नियुक्तियाँ हैं। इससे भयावह बात यह है कि इन अस्थायी कर्मचारियों में 70 फीसदी श्रमिकों की कामकाजी अवधि एक महीने या इससे कम है। 

लेकिन फ्रांस के युवा अर्थमंत्री मैकरान ने यह कह कर जले पर नमक छिड़क दिया है कि यदि श्रमिक मेरी तरह सूट पहनना चाहते हैं तो उन्हें ऐसे ही अधिक घंटे काम करना पड़ेगा। अमेरिका और भारत की तरह फ्रांस में भी आय असमानता तेजी से बढ़ रही है। सरकारी रवैये से श्रमिक हड़ताल राष्ट्रव्यापी हो गयी है। यूरोप के राजनीतिक जानकारों का कहना है कि राष्ट्रपति ओलंदे का यह दाँव उल्टा पड़ गया है और अगले साल होने वाले चुनाव में उनका प्राथमिक दौर में जीतना भी मुश्किल होगा। विश्व कारोबारी जगत में भी राष्ट्रपति ओलंदे की साख बेहद कमजोर हुई है। वहाँ श्रमिकों का आंदोलन अभिजात्य बनाम शेष होता जा रहा है। इस समय रोजगार की समस्या से पूरा विश्व हिला हुआ है। विकसित देशों, जैसे अमेरिका और यूरोपीय देशों में यह समस्या विस्फोटक हो गयी है। भारत में भी रोजगार को लेकर बैचेनी का माहौल है। संपन्न पटेलों और जाटों के आरक्षण आंदोलन से तो यही जाहिर होता है। 

(देश मंथन, 15 जून 2016)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें