रक्त दान : लोगों में जागरूकता की कमी

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

बच्चे को बहुत चोट लगी थी। खून बहुत बह गया था। बच्चे को लेकर कर माँ-बाप सरकारी अस्पताल पहुँचे थे। माँ दोनों हाथ जोड़ कर डॉक्टर के आगे गुहार लगा रही थी कि डॉक्टर साहब आप भगवान हो, किसी तरह मेरे बच्चे को बचा लो। 

डॉक्टर ने बच्चे को देखा। उसे अस्पताल में भर्ती किया और कहा कि खून बहुत बह गया है। इसे फौरन खून की जरूरत है। 

“खून की जरूरत है तो खून चढ़ाओ डॉक्टर साहब।”

महिला को देख कर लग रहा था कि वो खुद खून की कमी से जूझ रही है। पर उसका पति हट्टा-कट्टा नौजवान था। डॉक्टर ने उसके पति से कहा कि आप अपना खून दे दीजिए। 

“इनका खून? नहीं डॉक्टर साहब इनका खून नहीं दिया जा सकता।”

“क्यों? इनका खून क्यों नहीं? बच्चे को बाप का खून देना तो बहुत अच्छा रहेगा।”

“नहीं, डॉक्टर साहब, मेरे मरद का खून नहीं।”

“पर आपके मरद का खून क्यों नहीं?”

“साहब, ये कमाते हैं। पूरा घर यही चलाते हैं। खून देने से इन्हें कमजोरी हो जाएगी। नहीं, नहीं, डॉक्टर साहब। ऐसा बिल्कुल नहीं हो सकता है।”

“अरे, खून देने से कोई कमजोरी नहीं होती। आप खून दीजिए। नर्स…।”

लड़के का पिता खून देने को तैयार हो जाता है। पर माँ अड़ जाती है कि आपको मेरी जान की कसम। आप खून नहीं देंगे। डॉक्टर साहब मेरे बच्चे को कुछ हो गया तो मैं सह लूंगी। पर मरद को कुछ हो गया तो मैं तबाह हो जाऊंगी। इनका खून नहीं निकाला जा सकता। 

आप जानते हैं, डॉक्टर और दुर्घटनाग्रस्त बच्चे की माँ के बीच का ये डॉयलाग हिंदुस्तान के किस शहर का है?

ये है जबलपुर। हिंदुस्तान का दिल कहे जाने वाले मध्य प्रदेश का एक बड़ा शहर। यहाँ मेडिकल कॉलेज है। यहाँ इंजीनियरिंग कॉलेज है। यहाँ अच्छे और महँगे स्कूल हैं, कॉलेज हैं। यहाँ मॉल हैं। यहाँ सिनेमा हॉल हैं। यहाँ सैन्य हथियार बनते हैं। 

पर इस शहर में जो कुछ है, वो अंग्रेजों के ज़माने से है। सिवाय मॉल और कुछ सिनेमा हॉल को छोड़ कर। 

यहाँ के लोग दिलदार हैं। यहाँ के लोग भोले हैं। मगर ये उस माँ का भोलापन नहीं था, जब वो कह रही थी कि बच्चा बचे या न बचे, बच्चा तो फिर हो जाएगा, पर मेरा मरद खून नहीं देगा। मेरे मरद को कुछ हो गया तो हमारी जिन्दगी तबाह हो जाएगी। यह उसकी अशिक्षा थी। यह उसका अज्ञान था। 

जबलपुर में जब डॉक्टर Avyact Agrwal मुझे इस बारे में बता रहे थे तो बेशक वो बहुत व्यथित होकर सारी बात मुझे सुना रहे थे, और कह रहे थे कि बतौर डॉक्टर कितना मुश्किल होता है मरीजों के परिजनों को समझाना। 

डॉक्टर साहब ने मानव तन की पढ़ाई की है। मैंने मानव मन को समझा है। डॉक्टर साहब जब अपनी डॉक्टरी व्यथा बता रहे थे, तब मैं समझ रहा था कि ये समस्या नहीं है। समस्या कहीं और है। 

आप कहेंगे कि संजय सिन्हा समस्या तो यही है कि महिला अशिक्षित है और वो इस सत्य को नहीं जानती कि रक्त दान से किसी को नुकसान नहीं होता। डॉक्टर साहब भी यही समझा रहे थे मरीज की माँ को। 

पर मैं यह नहीं समझ रहा था। मैं समझ रहा था कि हिंदुस्तान में अगर किसी बच्चे की माँ ऐसा कहती है कि उसका बच्चा मर जाए तो मर जाए, पर मरद खून नहीं देगा तो इसका अर्थ ये हुआ कि हमारा देश दरअसल आज भी सत्तर साल पीछे है। वो आजाद ही नहीं हुआ है। 

मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ, इसे आप एक और बातचीत से समझ सकते हैं। 

मैंने जबलपुर में अपने एक जानने वाले से पूछा कि आपके शहर के नेताओं ने यहाँ के लिए क्या किया? 

कहने लगे कि साहब यहाँ बहुत काम हुआ है। हमारे नेताजी हर सुबह और शाम माँ नर्मदा के दर्शन करने जाते हैं। वो नर्मदा की साफ-सफाई को लेकर बहुत चिंतित रहते हैं। 

“ये तो बहुत अच्छा है। पर शहर के लिए क्या किया? गाँव के लिए क्या किया? लोगों के लिए क्या किया?”

“साहब, हमारे नेताओं ने दूसरी पार्टी के लोगों के अवैध निर्माण को तुड़वा दिया है। लोगों के दिल में उनके लिए बहुत रेसपेक्ट है।”

“शहर का विकास? गाँवों का विकास?”

देखिए, जबलपुर का अपना एक इतिहास है। यहाँ अंग्रजों के जमाने का क्लब है। आर्मी कल्चर है…।”

“ओह! आज की बात कीजिए। अंग्रेजी गुणगान मत कीजिए।”

“यहाँ सड़कें चौड़ी हुईं। यहाँ दिल्ली जैसे मॉल खुल गये। यहाँ भी मल्टी ब्रांड शो रूम खुल गए। अब हमें कुछ भी खरीदने के लिए दिल्ली नहीं जाना पड़ता। हाँ, इलाज के लिए नागपुर, मुंबई या दिल्ली जरूर जाना पड़ता है, पर बड़ी बीमारी में।”

“मैं पहली बार तीस साल पहले जबलपुर आया था। तब मेरे मामा यहाँ बिजली बोर्ड के खुफिया विभाग में उप पुलिस महानिरीक्षक बन कर आए थे। मैंने तब जैसा इस शहर को देखा था, मुझे तो वैसा ही दिखता है। वैसा ही बेतरतीब ट्रैफिक। जगह-जगह जाम। टूटी सड़कें। ये तो मैं सह लूंगा। पर उस महिला का ये कहना कि उसके बच्चे को उसका मरद खून नहीं देगा, क्योंकि उसे कमजोरी हो जाएगी, ये तो कुछ ज़्यादा हो गया।”

“पर साहब, ये उस महिला की अशिक्षा है। और ये कहानी सिर्फ जबलपुर की नहीं। मुझे लगता है कि पूरे हिंदुस्तान की है।”

“अब आप प्वायंट पर आए हैं। आपके और हमारे नेताओं ने अब तक सिर्फ हमारी भावनाओं को भुनाया है। हमने उन्हें मंदिरों के चक्कर लगाने, व्रत करने के लिए नहीं चुना है। हमने उन्हें रोटी, कपड़ा, मकान और शिक्षा जैसी बुनियादी चीजों को मुहैया कराने के लिए चुना है। मुझे अफसोस इस बात का रत्ती भर नहीं कि उन्होंने ऐसा नहीं किया, या ऐसा नहीं होने दिया। मुझे अफसोस इस बात का है कि हम इस सत्य को समझ ही नहीं पा रहे। वो हर पाँच साल के बाद आते हैं, कहते हैं सबको पानी मिलेगा। सबको खाना मिलेगा। अब दुनिया की हर बीमारी का इलाज आपके इसी शहर में होगा। आपका बच्चा भी स्कूल जाएगा। 

बस हम उन्हें फिर वोट दे देते हैं।”

“पर साहब विकास तो हुआ है। नर्मदा पर घाट बन गया है…।”

आपका रत्ती भर विकास नहीं हुआ। जिस दिन सबको पीने वाला पानी मिलने लगेगा, जिस दिन सब बच्चे स्कूल जाने लगेंगे, जिस दिन एक माँ यह समझ जाएगी कि रक्त दान से मरद के शरीर में कमजोरी नहीं आती, उस दिन से विकास शुरू होगा। 

***

रक्त दान के प्रति लोगों में कितनी कम जागरूकता है, इसकी जो कहानी डॉक्टर साहब मुझे सुना रहे थे, उसे आगे सुनने की मेरी दिलचस्पी खत्म हो चुकी थी। मैं नहीं जानना चाहता था कि बच्चा बचा या नहीं। हाँ, इतना मैंने डॉक्टर के मुँह से सुना था कि यह इकलौती कहानी नहीं। ऐसी सैकड़ों कहानियों से वो रोज गुजरते हैं।

(देश मंथन 30 जून 2016)

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