शादी में कार

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आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार  :

शादी स्थल के बीचों-बीच एक कार की पार्किंग की जगह बना दी गयी थी।

मेजबान यानी कन्या के बाप परेशान थे कि वो वाली कार बुक हो गयी थी, पर अभी तक डिलीवरी ना मिली।

मैंने कहा – एकाध दिन बाद दे दीजियेगा, लड़के वाले इतने बेसब्रे तो ना होंगे।

पर वह बेसब्रे हो उठे-उनकी परेशानी मुझे समझ में आयी, तमाम मेहमानों को क्या दिखायेंगे। सबको कैसे पता चलेगा कि कोई ऐवें ही टाइप कार नहीं, उल्लेखनीय टाइप कार दी गयी है।

मैंने कहा- आप यूँ करो कि एक छोटा माडल रखवा दो कार का उस पार्किंग स्थल पर। उस माडल के साथ उस कार के स्पेसिफिकेशन्स वाले परचे रखवा दो। ना हो, तो स्क्रीन पर एक डिमांस्ट्रेशन सा चलता रहे, जो कार की खूबियाँ बताये। पब्लिक देख ले, समझ ले कि यही कार दी जायेगी।

कुछ टाइम पहले एक पालिटिकल पार्टी ने ये किया कि जिन मकानों का वादा किया गया है चुनावों के बाद, उनके छोटे माडल रखवा दिये पब्लिसिटी में। हालाँकि बाद में मकान का एक नमूना भी दिखाया गया।

मेजबान बोले- लड़के वाले कार के छोटे माडल को देख कर कहेंगे- अच्छा, बाद में ये माडल भर दे कर ही टरकाओगे। फिर कहोगे कि जो दिखाया था, वही दिया।

मसले देखने दिखाने के हैं। एक कन्या के बाप को मैंने सलाह दी कि काहे दस लाख खर्च कर रहे हैं कार में, इतने के मुचुअल फंड्स और शेयर खरीद कर कन्या और वर के नाम कर दें। इनवेस्टमेंट रहेगा, राहत रहेगी। कन्या के बाप नाराज हो गये- हाय हाय मुचुअल फंड्स और शेयर के डोक्यूमेंट्स कार पार्किंग स्थल पर रख कर कैसे दिखाऊंगा।

मसले देखने दिखाने के ही हैं।

करीब पच्चीस साल पहले तक मध्यवर्गीय शादियों में दूल्हा माँगे की कार में दुल्हन को विदा कराके ले जाता था। मैसेज साफ होता था कि फर्जी संपन्नता से खुश होना सीखो। फर्जीवाड़ा बाद में कार से हट कर व्यवहार बयानों और रिश्तों में फैलता। दार्शनिक मैसेज भी मिलता था, साधो, ना ये कार अपनी, ना ये दुनिया अपनी, ना रिश्ते अपने। इनमें भी बेशरम होकर खुश रहना सीखो। पर अब परायी दुनिया में कार अपनी होने का चलन शुरू हो गया है।

माँगे की कार पर दुल्हन ले जाने का चलन काश दोबारा शुरू हो।

(देश मंथन 14 जुलाई 2016)

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