आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार :
गुजरात की मुख्यमंत्री ने सोशल मीडिया पर इस्तीफा दिया। नेता चुन कर आता है जनता द्वारा, पर मुक्ति चाहता है फेसबुक द्वारा। फेसबुक के यूँ कई इस्तेमाल हैं- इस पर कविता, इश्क और इस्तीफा कुछ भी किया जा सकता है। यूँ कई लोग इस्तीफा और इश्क में असमर्थ होते हैं, तो फेसबुक पर कविता का अंबार दिखायी देता है।
आज से सौ साल बाद अगर फेसबुक की सामग्री का विश्लेषण होगा, तो उसमें पचास हजार टन कविता ही मिलेगी। फेसबुक का कविता युग -2010 के बाद का कविता समय फेसबुकी-कविता युग के तौर पर चिन्हित किया जायेगा। फेसबुक का विश्लेषण किया जाये, तो लगभग हर हिंदी भाषी कवि ही चिन्हित होगा। सौ सालों बाद शोधकर्ता यह निष्कर्ष ना निकाल लें कि हिंदी भाषी अधिकतकर कविता ही किया करते थे और कुछ ना करते थे, जैसा कि फेसबुक पर मिली सामग्री से साफ होता है। हिंदी भाषी क्षेत्रों के पिछड़े होने की वजह भी यही है कि यहाँ कविता के अतिरिक्त कुछ और ना किया जाता था।
वैसे गुजरात की मुख्यमंत्री द्वारा सोशल मीडिया पर इस्तीफा दिये जाने की कोई तुक नहीं थी। पर तुक का मसला तो यह है कि तुक तो कई कविताओं में भी ना होती, पर वो फेसबुक पर होती हैं ना। जिसकी मर्जी हो वह फेसबुक पर कविता कर जाता है, जिसकी मर्जी हो, वह फेसबुक पर इस्तीफा कर जाता है। अपनी अपनी क्षमताएं हैं। वैसे कईयों की इच्छा है कि कई लोग फेसबुक की कविताई से इस्तीफा दे दें। पर ना, ना, ना ऐसे इस्तीफे कभी ना आने के। फेसबुक ने कईयों को कवि बना दिया है। पुराने जमाने में बंदे विरह में कवि बन जाते थे। किसी हादसे के बाद कवि बन जाते थे, अब फेसबुक देखकर कवि बन जाते हैं। फेसबुकिया होगा पहला कवि, फेसबुक पर उपजा होगा गान।
ऐसी ऐसी कविताएं फेसबुक, जिन्हे पढ़ कर बेहोशी आ जाये। पर कविताजी फुलटू इठलायमान हैं फेसबुक। ऐसे फेसबुक कवियों को शर्म भी नहीं आती।
विद्वानों ने कहा है-कामातुरां भयां ना लज्जा यानी कामातुरों को भय नहीं होता,लज्जा भी नहीं होती।
कुछ कुछ ऐसा हाल इधर फेसबुक पर कवितातुरों का भी हो लिया है, लज्जा का लोप कतई हो गया है। फेसबुकातुराँ भयं ना लज्जा। पर फेसबुक पर अकेले कवि ही लज्जाहीन नहीं हैं और भी बहुत उन जैसे ही हैं।
अपनी बर्थडे की 2500 फोटो ठोंक कर फेसबुकातुर उम्मीद करते हैं कि हर फोटो पर उनका हर फ्रेंड लाइक करेगा। भई कुछ तो रहम कर ले, बीस साल पहले तक 2500 फोटो बंदे की अपनी की शादी की ना होती थीं। खैर, अपनी शादी के फोटो लाइक ना करे, बंदा, तो बात समझ में आती है। आप सर्वे कर के देख लें, मैंने तो देख लिया है 99% बंदे अपनी शादी की फोटो दोबारा नहीं देखते। बाकी जो बचे 1% हैं, ये वो हैं जो एक बार भी नहीं देखते।
फेसबुकातुर होने का हाल यह है कि बंदा इंदिरा गाँधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर घुसता बाद में है, पहले फेसबुक पर घोषणा कर देता है कि मैं यहाँ आ गया हूँ। भाई तू आ गया है, अच्छी बात है। हम क्या करें। तू हमें कल दारु की हालत में चांदनी चौक में लड़खड़ाता भी दीखा था, तब हमने यही सोचा था कि हम क्या करें, तेरा पर्सनल मामला है। दारु में लड़खड़ाहट तेरा पर्सनल मामला है, इंदिरा गाँधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट तेरा पर्सनल मामला है, हमें बीच में क्यों डालता है।
ठीक, फेसबुक वाल तेरी पर्सनल है, कुछ भी डाल। पर पर्सनल आइटम डाल कर तू नेशनल किस्म की उम्मीदें क्यों पाल लेता है। कि अलीगढ़ से फलाँ ने लाइक ना किया और गाजियाबाद से अलां ने लाइक ना किया। और रोहतक के रमेश ने लाइक ना मारा, जबकि मैंने तो उसकी फटीचर कविता पर कविता से बड़ा कमेंट लिखा था।
कवितातुर और फेसबुकातुर दोनों की गति एक ही होती है, और ऐसा कवितातुर जो फेसबुकातुर हो जाये, उसका तो कहना ही क्या। खैर जिसके पास अपनी फेसबुक वाल है वह कविता करे इस्तीफा करे, कोई क्या कर लेगा।
फेसबुकातुराँ भयम् ना लज्जा, यह बात सिर्फ समझी जा सकती है, समझायी नहीं जा सकती, समझे ।
(देश मंथन 08 अगस्त 2016)