अभिरंजन कुमार, पत्रकार :
जिस देश ने 70 साल धैर्य रखा, उसी देश में कुछ लोग 17 दिन में ही अधीर हुए जा रहे हैं। नोटबंदी के आलोचक तरह-तरह की दलीलों के साथ सरकार पर हमले कर रहे हैं। एक दलील यह भी है कि इससे आतंकवाद पर लगाम नहीं लगेगी, बल्कि उल्टे आतंकवाद और बढ़ेगा।
गौरतलब है कि नोटबंदी लागू करते समय प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि ‘सीमा पार से आतंकवाद को पैसा दिया जाता है। सीमा पार से जाली नोटों का धंधा हो रहा है। अब जरूरत आतंकवाद और काले धन से निर्णायक लड़ाई की है।’
प्रधानमंत्री के बयान के बाद देश के रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर और देश के गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने भी मजबूती से कहा कि नोटबंदी से सिर्फ काले धन पर ही लगाम नहीं लगेगी, बल्कि आतंकवादियों और नक्सलवादियों का वित्त-पोषण भी बंद हो जाएगा। नोटबंदी के बाद जिस तरह से कश्मीर में पथराव की घटनाएँ अपने आप बंद हो गयीं और चार महीने से जारी अशांति खत्म हो गयी, उससे सरकार के दावे को बल भी मिला।
मोटे तौर पर जनता भी सरकार के इन दावों पर यकीन करती हुई दिखायी दे रही है, लेकिन विपक्ष कई तरह के सवाल खड़े कर रहा है। सीपीएम के सीताराम येचुरी ने राज्यसभा में कहा कि नोटबंदी से आतंकवाद नहीं रुकेगा, क्योंकि आतंकवादी नोटों के थैले लेकर नहीं टहलते, बल्कि उनकी पूरी फंडिंग आजकल इलेक्ट्रॉनिक ट्राँसफर के माध्यम से होती है। इसी तरह, पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने भी कहा है कि नोटबंदी से सीमा पार आतंकवाद कम नहीं होगा, क्योंकि आतंकवादी नये नोटों की भी कॉपी कर लेंगे।
दरअसल, 22 नवंबर को जब जम्मू-कश्मीर के बांदीपुरा में मुठभेड़ में मारे गए दो आतंकवादियों के पास से 2000 के नये नोट बरामद हुए, तो नोटबंदी के आलोचकों को थोड़ी और ताकत मिली। नोटबंदी के बाद से जम्मू-कश्मीर में बैंक लूट की तीन वारदातें सामने आ चुकी हैं। इन घटनाओं के आइने में वे आशंका जता रहे हैं कि जो लोग अब तक पत्थर चलाते थे, वे अब बैंक लूटेंगे। वरिष्ठ पत्रकार वेदप्रताप वैदिक ने अपने एक लेख में नोटबंदी से आतंकवाद रुकने के दावे की खिल्ली उड़ाते हुए लिखा कि “मारे गए आतंकवादियों की जेब से नकली नहीं, असली नये नोट निकले हैं।”
जाहिर है, एक तरफ सरकार है, जो नोटबंदी के बड़े-बड़े फायदे गिना रही है। दूसरी तरफ विरोधी हैं, जो इसमें तरह-तरह की खामियाँ ढूंढ़ने की कोशिशें कर रहे हैं। इन सबके बीच, आम जन कन्फ्यूज है कि आखिर क्या सही है और क्या गलत है। देश एक बार फिर से दो ध्रुवो में बंट गया है। लेकिन मेरे ख्याल से, दोनों पक्षों के लोग राजनीतिक लाभ के चक्कर में अर्धसत्य का सहारा ले रहे हैं। जैसे यह कहना गलत होगा कि नोटबंदी से आतंकवाद पर लगाम नहीं लगेगी, वैसे ही यह मानना भी भूल होगी कि अकेले नोटबंदी से ही आतंकवाद की कमर टूट जाएगी।
जहाँ तक मारे गये आतंकियों से नये नोट बरामद होने का मामला है, तो यह मानना चाहिए कि जब सरकार ने लोगों को पुराने नोट बदलने की सुविधा दी, तो आतंकियों और उनके खैरख्वाहों ने भी अपने कुछ पुराने नोट बदल लिए होंगे और इसलिए अगर उनके पास कुछ नये नोट आ गये, तो इसे नोटबंदी की विफलता के तौर पर देखना एक सतही और जल्दबाजी भरा आकलन होगा।
इसी तरह, बैंक लूट की कुछ वारदातों के चलते यह मान लेना भी गलत होगा कि जो लोग अब तक पत्थर चलाते रहे हैं, वे अब बैंक लूटा करेंगे और भारत की सुरक्षा एजेंसियाँ बैठकर तमाशा देखेंगी। लंबी-लंबी कतारों और पैसे न मिलने से परेशान लोगों की आड़ में उचक्कों ने देश के दूसरे हिस्सों में भी एटीएम और बैंक लूट की कुछ वारदातें की हैं, इसलिए कश्मीर की घटनाओं को अलग करके देखने का कोई मतलब नहीं।
जहाँ तक आतंकवाद पर लगाम का प्रश्न है, तो निश्चित रूप से यह एक भीषण समस्या है और नोटबंदी जैसे किसी एक कदम से इसपर निर्णायक जीत हासिल की जा सकती है- ऐसा कहना भी उचित नहीं होगा। सच्चाई यह है कि आतंकवाद से लड़ने के लिए हमें कम से कम पाँच स्तरों पर काम करना होगा।
पहला- आतंकवादियों की फंडिंग के रास्ते बंद करके। इस दिशा में नोटबंदी से कम से कम इतना तो हुआ ही है कि बड़ी मात्रा में उनका पुराना कैश बर्बाद हो गया है और अब उन्हें नये सिरे से फंड का इंतजाम करना होगा, जिसमें वक्त लगेगा। अगर सीताराम येचुरी की बात मानें कि आजकल आतंकवादियों को इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसफर के जरिए फंडिंग की जाती है, तो इस किस्म की फंडिंग पर सरकार की एजेंसियों को चौकस बना कर निश्चित रूप से लगाम लगायी जा सकती है।
दूसरा- आतंकवादियों को मारकर, पकड़कर, सजा दिला कर। इसके लिए देशवासियों को यकीन रखना चाहिए कि हमारी सेना ओर अन्य सुरक्षा एजेंसियो के जवान आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए लगातार चौकस हैं। अपवाद-स्वरूप उनसे भी कुछ चूकें हुई हैं और हो सकती हैं, लेकिन इन्हें नियम की तरह मान लेना ठीक नहीं होगा।
तीसरा- आतंकवाद के आका पाकिस्तान को सबक सिखा कर। उसे सबक सिखाने के लिए सामरिक, कूटनीतिक और आर्थिक सभी तरह के प्रयासों की जरूरत होगी। सेना द्वारा पीओके में घुस कर सितंबर महीने में किया गया सर्जिकल स्ट्राइक इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह से पाकिस्तान का सिंधु नदी का पानी रोकने का इरादा जता रहे हैं, अगर सचमुच वे ऐसा कर पाएं, तो यह दूसरा महत्वपूर्ण कदम होगा। पाकिस्तान का मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा छीनना तीसरा महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। इन सबके बीच, अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में पाकिस्तान को अलग-थलग करने की कोशिशें लगातार चलती रहनी चाहिए, जैसा कि सार्क सम्मेलन के बहिष्कार से संभव हुआ।
चौथा- भटके हुए बच्चों और नौजवानों को रास्ते पर लाकर। खुद प्रधानमंत्री मोदी कह चुके हैं कि “मेरी सरकार अटल बिहारी वाजपेयी के ‘इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत’’ के मंत्र में भरोसा रखती है। जिन हाथों में लैपटॉप होना चाहिए, खेलने के लिए बैट या फुटबॉल होना चाहिए, उन्हें पत्थर थमाएँ जा रहे हैं। लेकिन हम इंसानियत और कश्मीरियत को दाग नहीं लगने देंगे। देश कश्मीर का विकास चाहता है।“ अगर आतंकवाद और जम्मू कश्मीर के मसले को राजनीति से परे रख कर देखें, तो यह कबूल करना चाहिए कि मोदी सरकार ने जम्मू कश्मीर के विकास के लिए अब तक पौने दो लाख करोड़ रुपये से अधिक का पैकेज दिया है।
पाँचवाँ- बातचीत के जरिए। सभी संबंधित पक्षों से बातचीत का रास्ता हमेशा खुला रहना चाहिए। यह बातचीत निश्चित रूप से देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता की शर्त पर नहीं हो सकती, न ही आतंकवाद के मसले पर नरमी दिखाकर। मणिशंकर अय्यर और सलमान खुर्शीद जैसे राजनीतिक विरोधी भले ही मोदी सरकार पर यह आरोप लगाते रहे है कि वे बातचीत के रास्ते में यकीन नहीं रखते, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के दिन ही पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को बुला कर दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया था। इसके बाद रूस के ऊफा में भी वे खुद पहल करके नवाज़ शरीफ से मिले। फिर दुनिया को चौंकाते हुए उनकी नातिन की शादी में कराची भी पहुँच गये। इसलिए ऐसा कहना मुनासिब नहीं होगा कि मोदी राज में भारत ने पाकिस्तान को पर्याप्त मौके नहीं दिये हैं।
आखिरी बात, कि सरकार के जो विरोधी यह कह रहे है कि नोटबंदी से आतंकवाद नहीं रुकेगा, उन्हें यह भी समझना चाहिए कि आतंकवाद से लड़ाई सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं हो सकती, बल्कि इसमें उन सबका भी बराबर का साथ और सहयोग चाहिए। दलगत भावना से ऊपर उठकर। राजनीतिक विरोध को परे रखकर। अंदरूनी मतभेदों को भुलाकर। व्यक्तियों के लिए नफरत छोड़ कर। सिर्फ देश और नागरिकों के हितों को ध्यान में रखकर।
(देश मंथन, 26 नवंबर 2016)