संदीप त्रिपाठी :
प्रख्यात कृषि पत्रकार पी. साईनाथ को सुनना अपने-आप में अद्भुत है। अद्भुत इसलिए है कि आज के दौर में जब हर आदमी, भले ही वह पत्रकार ही क्यों न हो, खेमों में बँटा दिखता है।
साईनाथ जैसा आदमी जब देश के अन्नदाता किसान की बातें करता है तो राजनीतिक लाइन लेने की बजाय वह सिर्फ और सिर्फ किसानों के पक्षधर, किसानी के पक्षधर, और इस तरह खाद्य सुरक्षा और इंसानियत का पक्षधर नजर आता है। पी. साईनाथ ने प्रख्यात पत्रकार रामबहादुर राय के सौजन्य से प्रभाष न्यास की ओर से 16 जुलाई को नयी दिल्ली में आयोजित प्रभाष प्रसंग नामक कार्यक्रम में किसानों की अद्यतन स्थिति पर सारगर्भित व्याख्यान दिया।
रोजाना 2000 किसान छोड़ रहे खेती
साईनाथ ने भारतीय खेती-किसानी की दयनीय स्थिति का जो खाका आँकड़ों और उदाहरणों से खींचा, उसके बाद शक-ओ-शुबहे की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती। उन्होंने किसानों और किसानी की हालत में गिरावट के लिए पिछले 25 वर्षों के काल को रेखांकित किया। साईनाथ ने जनगणना आँकड़ों के माध्यम से स्पष्ट किया कि 1991 से 2011 के दरम्यान औसतन रोजाना लगभग 2000 किसानों ने खेती छोड़ी। उन्होंने बताया कि जनगणना के किसान कॉलम में जहाँ संख्या घटती दिखी, वहीं खेतिहर मजदूर के कॉलम में संख्या बढ़ती दिखी। इसके अलावा शहरों में मजदूरों की संख्या भी बढ़ती दिखी। उन्होंने स्पष्ट किया कि ये नये खेतिहर मजदूर और शहरी मजदूरों में अधिकांश वही किसान हैं, जो खेती छोड़ रहे हैं।
किसान और कृषि पर आश्रित में भेद
एक महत्वपूर्ण आँकड़ा, जो उन्होंने स्पष्ट किया, वह किसानों की संख्या के बारे में था। देश में कितने किसान हैं, इस पर हमारे सामने एक भ्रामक तस्वीर सामने आती है। साईनाथ ने किसान की परिभाषा को स्पष्ट करते हुए कहा कि 180 दिन से ज्यादा दिन खेती करने वाला जनगणना के हिसाब से किसान है। इससे कम दिन खेती करने वाला सीमांत किसान है। इसके अनुसार देश के आबादी का महज लगभग 8 फीसदी हिस्सा किसान है। इसमें सीमांत किसानों को जोड़ लें तो यह संख्या लगभग 10 फीसदी बैठती है। यह 10 फीसदी आबादी पूरे देश को अन्न उपलब्ध कराती है। इस 10 फीसदी में खेतिहर मजदूर और किसानों और खेतिहर मजदूरों के आश्रित शामिल नहीं हैं। इन 10 फीसदी, खेतिहर मजदूर और आश्रितों को मिला लें तो खेती पर 53 फीसदी आबादी निर्भर है। इसी 10 फीसदी आबादी के कंधों पर 100 फीसदी आबादी की खाद्य सुरक्षा का जिम्मा है। लेकिन न तो सरकारों को और न ही मीडिया को खेती-किसानी की सुध है।
मानसून नहीं, जल प्रबंधन की समस्या
सुखाड़ की समस्या पर साईनाथ ने स्पष्ट कहा कि किसान सूखे की समस्या से कम और पानी की प्रबंधन नीति की समस्या के चलते ज्यादा मारे जा रहे हैं। उन्होंने इसे विराट जल संकट कहा। उन्होंने कहा कि भारत में खेती में पानी के लिए हम महज 40 फीसदी ही मानसून पर निर्भर हैं। शेष सिंचाई मानसून से इतर स्रोतों से होती है। लेकिन गलत जल प्रबंधन के कारण यह पानी किसानों को नहीं मिल पाता और खेती में विफलता का पूरा दारोमदार मानसून पर डाल कर इतिश्री कर ली जाती है। उन्होंने महाराष्ट्र का उदाहरण देते हुए बताया कि शहरी इलाकों को ग्रामीण के मुकाबले 400 फीसदी ज्यादा पानी दिया जा रहा है, जबकि यह पानी ग्रामीण स्रोतों का है। इसका उपयोग कृषि में किया जाना चाहिए। यह नीतिगत विफलता है।
कृषि में महिलाएँ
खेती में महिलाओं की स्थिति पर भी साईनाथ ने स्पष्ट खाका खींचा। उन्होंने कहा कि किसान बही पर महिलाओं का नाम नहीं होता। यानी सीधे शब्दों में कहें तो महिलाओं को किसान नहीं माना गया है, जबकि खेती में रोपाई से कटाई तक 60 फीसदी से अधिक काम महिलाएँ ही करती हैं। इन महिलाओं को किसानी में शामिल न करने से किसानी की सही तस्वीर सामने नहीं आ पाती।
किसे मिल रहा है कृषि ऋण
कृषि ऋण पर साईनाथ ने बताया कि कृषि ऋण के नाम पर कृषि से जुड़े धंधों के लिए ऋण बाँटा जा रहा है। उन्होंने महाराष्ट्र में नाबार्ड का उदाहरण दिया। नाबार्ड का गठन खेती और ग्रामीण इलाकों में ऋण बाँटने के लिए किया गया है। लेकिन एक वर्ष नाबार्ड ने उस वर्ष बाँटे जाने वाले ऋणों में 53 फीसदी का प्रावधान मुंबई के लिए किया और शेष राशि बाकी महाराष्ट्र के लिए। साईनाथ ने सवाल उठाया कि मुंबई में कौन सी खेती होती है? स्पष्ट है बाँटे जाने वाले कृषि ऋण का एक बड़ा हिस्सा खेती के लिए मिल ही नहीं रहा है। वह ऋण कॉरपोरेट इंडिया ले जा रहा है। लेकिन आँकड़ों में वह कृषि ऋण ही दिखाया जाता है। उन्होंने सवाल उठाया कि 10 करोड़ रुपये का ऋण कौन-सा किसान लेता है?
सरकारी योजनाओं का खोखलापन
उन्होंने किसानों की भलाई के लिए सरकारी योजनाओं और कदमों के खोखलेपन को भी उजागर किया। उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह के काल का एक उदाहरण दिया। डॉ. सिंह महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में पहुँचे। वहाँ किसानों को भैंस बाँटने का कार्यक्रम था। तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह किसानों को भैंस बाँट कर चले गये। अब जिन किसानों को भैंस मिली, वे अगले दिन से भैंस के खरीदार ढूँढने लगे। वजह यह थी कि उन किसानों का पूरा परिवार जितना खाता था, उससे ज्यादा भैंस के लिए व्यवस्था करनी पड़ती थी, जो उन किसान परिवारों के लिए संभव नहीं था। हालात यह हो गये कि मुफ्त में भी भैंस लेने वाले नहीं मिल रहे थे।
आत्महत्या के आँकड़ों में हेराफेरी
किसानों की आत्महत्या के संदर्भ में सरकारों द्वारा की जा रही हेराफेरी पर भी उन्होंने अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि जब किसानों की आत्महत्या पर राजनीति होने लगी तो सबसे पहले महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख की सरकार ने घालमेल शुरू किया। फिर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी उसी राह पर चलीं और अचानक 12 राज्यों और 6 केंद्रशासित प्रदेशों ने घोषित कर दिया कि उनके यहाँ किसानों की आत्महत्या के कोई मामले सामने नहीं आये हैं। उन्होंने किसानों या किसानी के कारण आत्महत्या के मामलों में कमी दर्शाने के लिए की जा रही हेराफेरी पर भी ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने महाराष्ट्र की ही एक लड़की का उदाहरण दिया, जिसमें पढ़ाई में अच्छी होने के बावजूद आगे पढ़ने के लिए किसान पिता के पास पैसे न होने से उस लड़की ने आत्महत्या कर ली। आँकड़ों में इसे छात्रा की आत्महत्या के रूप दर्शाया गया।
कृषि और मीडिया
साईनाथ ने कहा कि पहले मीडिया में कृषि संवाददाता होते थे, लेकिन किसानों से राजस्व प्राप्ति न होने से धीरे-धीरे यह परंपरा समाप्त होती गयी। अब मीडिया में खेती पर नाम-मात्र को खबरें आती हैं। इससे पत्रकारों में खेती के बारे में समझ कम होती गयी और अगर किसी में काबिलियत है भी तो इन खबरों से राजस्व न मिलने के कारण मीडिया इन्हें तवज्जो नहीं देता। उन्होंने मीडिया पर 5 वर्ष की अवधि के लिए हुए एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहा कि देश की 69 फीसदी ग्रामीण जनता को मीडिया में मिलने वाला कवरेज महज 0.67 फीसदी रहा। उन्होंने यह भी कहा कि कृषि पत्रकारिता का अर्थ आज कृषि मंत्रालय को कवर करना रह गया है। इससे साफ है कि मीडिया में किसानों की कोई सुनवाई नहीं रह गयी है।
(देश मंथन, 18 जुलाई 2017)