राजीव रंजन झा :
यह खबर सुनने में आपको अच्छी लगेगी कि महँगाई दर घट कर पाँच वर्षों के सबसे निचले स्तर पर आ गयी है।
लेकिन इसके तुरंत बाद आप खुद को चिकोटी काटेंगे, यह देखने के लिए कि आप जगे हुए हैं या सपना देख रहे हैं। ऐसा इसलिए कि बाजार की हकीकत तो आपको मालूम ही है। आप जानते हैं कि बाजार से लौटने पर आपकी जेब की लुटी-पिटी हालत कैसी होती है। तो क्या कहीं आँकड़ों का भ्रम-जाल बुना गया है?
नहीं, जो महँगाई दर पाँच वर्षों के निचले स्तर पर आयी है, वह थोक महँगाई दर (डब्लूपीआई) है। यह थोक महँगाई दर अगस्त 2014 में घट कर 3.74 फीसदी पर आ गयी है, जो वाकई करीब पाँच वर्षों का सबसे निचला स्तर है। जुलाई में यह दर 5.19 फीसदी थी। लेकिन आप जिस महँगाई को खुद भुगतते हैं, वह खुदरा महँगाई दर में दिखती है। अभी हाल में उसके भी ताजा आँकड़े आये हैं। वह जुलाई के 7.96 फीसदी से घट कर अगस्त में 7.8 फीसदी पर आयी है। यानी उसमें कमी आयी तो है, पर उतनी नहीं, जितनी थोक महँगाई दर में।
यहाँ दो बातें समझने वाली हैं। सबसे पहले तो यह कि महँगाई दर घटने का मतलब चीजों के दाम घटना नहीं होता। इसका मतलब यह होता है कि चीजों के दाम बढ़ने की रफ्तार पहले से कम हो गयी है। इसलिए जब आप सुनते हैं कि महँगाई दर नीचे आ गयी है, तो उसका मतलब सीधे शब्दों में यह होता है कि 100 रुपये की जिस चीज का दाम बढ़ कर 110 रुपये हो सकता था, वह बढ़ कर केवल 105 रुपये हुआ है। अब यह उम्मीद तो कोई भूले-भटके भी नहीं करता कि 100 रुपये की चीज के दाम घट कर कभी 95 या 90 रुपये हो जायेंगे! यह केवल कुछ असामान्य स्थितियों में ही होता है, जब टमाटर के भाव 80 रुपये तक जाने के बाद फिर से 40 रुपये पर लौट आते हैं।
दूसरी बात जो थोक और खुदरा महँगाई दर में अंतर से दिखती है, वह यह है कि महँगाई को घटाने के सरकारी उपाय खुदरा स्तर पर ज्यादा नाकाम हो रहे हैं। सरकार एक थोक व्यापारी के गोदाम पर तो छापे मार सकती है। लेकिन ठेले पर सब्जियाँ बेचने वाला मंडी से किस भाव पर खरीद कर किस खुदरा भाव पर बेचेगा, इस पर नियंत्रण करने का कोई उपाय सरकार के पास नहीं है। खुदरा व्यापारी इस मानसिकता का फायदा उठाते हैं कि एक बार जो दाम ऊपर चले गये, वे लौट कर नीचे थोड़े ही आते हैं।
आँकड़ेबाजी ज्यादा हो जाने का खतरा उठाते हुए भी कुछ तथ्य आपके सामने रखता हूँ। थोक में पिछले साल अगस्त में प्याज के दाम 273 फीसदी बढ़े थे। इस साल अगस्त में प्याज के थोक भाव 45 फीसदी घटे हैं। लेकिन क्या प्याज की कीमतों में ऐसी कोई भारी कमी आपको अपने खुदरा बाजार में दिखी है?
पिछले साल अगस्त में खाद्य वस्तुओं की थोक महँगाई दर 19.17 फीसदी थी, जो इस साल अगस्त में घट कर केवल 5.15 फीसदी पर आ गयी। लेकिन खुदरा बाजार में खाद्य महँगाई दर 9.42 फीसदी पर रही, पिछले महीने यानी जुलाई के 9.36 फीसदी से बढ़ गयी। थोक में महँगाई शांत पड़ रही है, लेकिन खुदरा में अभी भी फुफकार रही है।
इसलिए थोक महँगाई दर पाँच साल के निचले स्तर पर आ जाने से आपको कोई राहत नहीं मिलने वाली, न ही इससे रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर रघुराम राजन की चिंताएँ कम होने वाली हैं। पहले आरबीआई की नजर मुख्य रूप से थोक महँगाई दर पर होती थी और उसी के हिसाब से इसकी नीतियाँ तय होती थीं। लेकिन पिछले कुछ समय से इसने खुदरा महँगाई दर को भी तवज्जो देना शुरू कर दिया है, जो उचित ही है।
इसलिए जब तक खुदरा महँगाई दर में पर्याप्त कमी आती नहीं दिखे, और यह भरोसा नहीं बने कि यह निचले स्तरों पर रुकी रहेगी, तब तक आरबीआई अपनी ब्याज दरों में कमी नहीं करेगा। आरबीआई जब अपनी ब्याज दरों को घटाता है, तभी बैंक हमारे-आपके लिए और छोटी-बड़ी कंपनियों के लिए ब्याज दरें घटाते हैं। ब्याज दरें घटने से निवेश और खपत दोनों में इजाफा होता है और अर्थव्यवस्था को गति मिलती है।
इसीलिए आर्थिक जानकारों के एक बड़े तबके और उद्योग जगत की अरसे से माँग रही है कि आरबीआई ब्याज दरें घटाने का चक्र शुरू करे। मगर ऊँची महँगाई दर का हवाला दे कर आरबीआई ने इस माँग को लगातार नकारा है। रघुराम राजन कह चुके हैं कि उन्हें खुदरा महँगाई दर जनवरी 2015 तक 8% और उसके अगले 12 महीनों में घट कर 6% पर आने का इंतजार है। अभी बेशक खुदरा महँगाई दर उनके जनवरी 2015 के लक्ष्य के आसपास दिख रही है और थोक महँगाई दर काफी नीचे आ चुकी है, मगर आरबीआई को डर है कि इस समय ब्याज दरों में कटौती करने पर कहीं महँगाई दर फिर से न उछल जाये।
लेकिन नयी सरकार के आने के बाद से जिस तरह लोगों की उम्मीदें परवान चढ़ी हैं और लोग जल्दी से देश की आर्थिक विकास दर में तेजी आने की बाट जोहने लगे हैं, उसके मद्देनजर यह स्वाभाविक है कि अब आरबीआई पर ब्याज दरें घटाने का दबाव बनेगा। ऐसे में सरकार और आरबीआई के बीच फिर से खींचतान होने का अंदेशा रहेगा। सरकार ब्याज दरें घटाने के लिए आरबीआई को इशारे करती रहेगी और आरबीआई कहता रहेगा कि हुजूर पहले महँगाई तो घटाइये।
लेकिन आखिरकार इन्हीं दोनों को मिल कर इस पहेली का हल भी निकालना होगा। सरकार को यह देखना होगा कि थोक महँगाई में आयी कमी कैसे खुदरा बाजार पर भी असर दिखाये। वहीं आरबीआई को भी एक हद तक यह समझना होगा कि भारत में महँगाई दर की उठापटक पर उसकी ब्याज दरें ऊँची रखने से कोई नियंत्रण नहीं हो पाता है। उसने सालों से अपनी ब्याज दरें ऊँची रख कर देख लिया, क्या फर्क पड़ा महँगाई पर?
अब अगर थोक महँगाई दर घटी है तो इसका कारण आरबीआई की ऊँची ब्याज दरें नहीं हैं। इसके घटने के पीछे दो मुख्य कारण हैं – खाद्य महँगाई में कमी और ईंधन की कीमत में कमी। इन दोनों पर आरबीआई की ब्याज दरों का कोई असर नहीं होता। खाद्य महँगाई के पीछे मुख्य समस्या आपूर्ति पक्ष से जुड़ी रही है। यह समझा जा सकता है कि जमाखोरी और कालाबाजारी रोकने के लिए थोक व्यापारियों पर सरकार ने हाल में जो सख्ती की, उसका कुछ असर दिखा है। वहीं ईंधन, खास कर पेट्रोल की कीमत में कमी अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम घटने की वजह से आयी है।
इसलिए अब कहीं-न-कहीं आरबीआई को महँगाई दर के मामले में थोड़ा लचीला रवैया दिखाना होगा। बेहतर होगा कि वह खुदरा महँगाई दर में वांछित कमी का इंतजार करते रहने के बदले थोक महँगाई में कमी को ही आधार बनाते हुए ब्याज दरों में कटौती का सिलसिला शुरू करे। लेकिन इस सोमवार को ही मुंबई में रघुराम राजन ऐसी माँग को साफ नकार चुके हैं। उनका कहना है कि ब्याज दरों में कटौती करने का कोई तुक नहीं है, क्योंकि इससे फिर महँगाई बढ़ने लग जायेगी। वे उल्टे उद्योग जगत से कह रहे हैं कि आप दाम घटा दीजिए तो हम ब्याज दरें घटा देंगे। लेकिन राजन साहब, खाद्य महँगाई न तो बिड़ला साहब घटा सकते हैं, न टाटा साहब. न अंबानी साहब, और न आप। तो क्या दैवीय कृपा से महँगाई घटने का अनंत इंतजार करते रहेंगे?
(देश मंथन, 17 सितंबर 2014)