कौशल विकास : भई क्या रखा है डिग्री में, कुछ काम सीख लो

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राजीव रंजन झा :

कौशल विकास या स्किल डेवलपमेंट मोदी सरकार का मौलिक नारा नहीं है।

यूपीए सरकार ने भी इसके बारे में बहुत सारी बातें कही थीं और उद्योग संगठन अक्सर इसके लिए पुरजोर पैरवी करते रहते हैं। उद्योग संगठनों का हित इसमें बड़ा साफ दिखता है। उन्हें कुशल प्रशिक्षित मजदूर-कारीगर जैसे लोग चाहिए। इसके लिए प्रशिक्षण का खर्च वे खुद नहीं उठाना चाहते, बल्कि चाहते हैं कि सरकारी खर्चे पर सीखे-सिखाये लोग उन्हें मिल जायें।

सरकार चाहती है कि कौशल-विकास के नाम पर उसे युवाओं को रोजगार देने की जिम्मेदारी से छुट्टी मिल जाये। अरे भई, काम करना सिखा दिया, अब जाओ बाजार में और काम खोजो।

इन सबके बीच बहुत महीन ढंग से यह बात बिठायी जा रही है कि किताबी ज्ञान में क्या धरा है। क्या करेंगे लोग पोथी पढ़-पढ़ कर। क्या करेंगे गणित को जरा अच्छे से जान कर। नोट गिन कर लेना-देना तो अनपढ़ लोग भी जान ही जाते हैं किसी तरह। कबीर के दोहे और दिनकर की कविताएँ पढ़ कर क्या मिलेगा उन्हें? प्रेमचंद की कहानियों में उनके लिए क्या रखा है? कहीं ज्यादा अंग्रेजी जान जायेंगे तो अहंकार से मजदूरी ही नहीं करेंगे। 

उन्हें क्या करना है 1857 के बारे में जान कर, या भारत की सांस्कृतिक विरासत को समझ कर?  गांधी, अंबेडकर या भगत सिंह के बारे में तो आज कल लोग फेसबुक पर ही जान लेते हैं, किताबों से पढ़ाने की क्या जरूरत है? संविधान किस चिड़िया का नाम है, यह पढ़ लेने पर कहीं वे बगावती तेवर के न हो जायें। उन्हें करनी तो वही मेहनत-मजदूरी ही है ना।

जी नहीं, मैं श्रम को दोयम दर्जे का नहीं बता रहा। मैं बिल्कुल यह नहीं कह रहा कि मेहनत-मजदूरी करना कोई हीन काम है, लेकिन यह समझ क्यों विकसित की जा रही है कि मेहनत-मजदूरी और कारीगरी करने वाले लोगों को आरंभिक स्तर के इतिहास, भूगोल, राजनीति शास्त्र, विज्ञान और गणित की भी जरूरत नहीं है? उन्हें इन सारी चीजों की सामान्य समझदारी रखने वाला एक बेहतर नागरिक बनाने की जरूरत क्यों नहीं है? कच्ची उम्र में ही बस ठेल दो किसी एक काम में और जन्म भर के लिए उस पेशे का गुलाम बना दो?

हम क्यों इस बात पर जोर देने लगे हैं कि कुछ पढ़ो या मत पढ़ो, लेकिन कौशल विकास के नाम पर किसी उद्योगपति की फैक्ट्री में श्रम-शक्ति का हिस्सा बन जाने लायक काम सीख लो? हम क्यों नहीं उसे कम-से-कम 12वीं तक तमाम विषयों की एक ठीक-ठाक समझ विकसित कर लेने के बाद खुद अपनी क्षमताओं और रुचि के आधार पर आगे अपना भविष्य चुनने की स्थिति में आने देना चाहते हैं?

लोग तर्क देंगे कि कौशल विकास का अभियान तो उन लोगों के लिए है, जो खुद ही पढ़ाई बीच में छोड़ कर असंगठित श्रम बाजार में आ जाते हैं। बताया तो यही जा रहा है कि इस अभियान का मकसद ऐसे लोगों को ज्यादा हुनरमंद बनाना है, ताकि वे अपने श्रम का बेहतर मूल्य पा सकें। यह उद्देश्य अच्छा लगता है, लेकिन क्या इसके नाम पर एक वर्ग को धीरे से यह नहीं समझाया जाने लगा है कि भाई, किताबी पढ़ाई में ‘तुम्हारे लिए’ कुछ नहीं रखा है। ‘तुम्हारे लिए’ पर विशेष जोर मैंने इसलिए दिया है कि कौशल-विकास की नीतियाँ बनाने वाला कोई भी व्यक्ति अपने परिवार से तो किसी को इस कौशल विकास के लिए नहीं ही भेजेगा! उनके अपने परिवारों के लिए तो दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय या काशी हिंदू विश्वविद्यालय भी छोटी जगहें हैं। उनका काम कैंब्रिज, हॉर्वर्ड या ऑक्सफोर्ड की डिग्री के बिना नहीं चलता, लेकिन बाकी समाज को वे जरूर यह समझाने में लग गये हैं कि भई क्या रखा है डिग्री में, कुछ काम सीख लो।

(देश मंथन, 24 मार्च 2015)

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